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Sep 28, 11:15 pm
फाजिल्का -शहीद भगत सिंह की जन्म शताब्दी पंजाब व देशभर में मनाई गई। इस दौरान बाघा, हुसैनी वाला, खटकड़ कलां सहित भगत सिंह से जुड़ी हर छोटी बड़ी जगह पर जश्न व सरकार मेहरबान रही। इन सब में एक ऐसी भी जगह है, जिसने इस अमर शहीद के लिए अपने एक अहम हिस्से की कुर्बानी दी लेकिन बदले में मिला पिछड़ापन व सरकारी नजरंदाजी।
शहीद भगत सिंह को याद करने में जुटे राजनीतिक जमावड़े में शायद ही किसी नेता को याद होगा कि भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव का हुसैनीवाला स्थित समाधि स्थल 1960 से पहले पाकिस्तान के कब्जे में था। जन भावनाओं को देखते हुए 1950 में नेहरू-नून-मुहाइदे के तहत फैसला लिया गया कि इन तीनों शहीदों की समाधि स्थल पाक से लिया जाए व इसके बदले में कोई अन्य हिस्सा पाकिस्तान को दिया जाए। करीब एक दशक चली ऊहापोह के बाद पाकिस्तान ने इसके बदले भारत से फाजिल्का सेक्टर का एक अहम हिस्सा मांगा। सैन्य दृष्टि से इसे देना भारत के लिए कतई मुनासिब नहीं था, लेकिन हुसैनीवाला से जुड़ी जनभावनाओं के मद्देनजर 1961 में स्वर्ण-शेख समझौते के बाद फाजिल्का के 12 गांव व सुलेमानकी हेड वर्क्स पाकिस्तान को सौंप दिया गया। इस समझौते के बाद शहीद त्रीमूर्ति से जुड़ा समाधि स्थल तो भारत को मिल गया, लेकिन फाजिल्का सेक्टर सैन्य दृष्टि से पूरी पश्चिमी सीमा के सबसे कमजोर सेक्टरों में शामिल हो गया। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान ने फाजिल्का सेक्टर के लगभग पूरे इलाके पर कब्जा कर लिया था। इसी कमजोर स्थिति के चलते फाजिल्का औद्योगिक व व्यापारिक रूप से ऐसा पिछड़ा कि फिर कभी नहीं उभर पाया, जबकि 1960 से पहले फाजिल्का की गिनती उत्तर भारत के प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में होती थी। इसी महत्व के चलते कभी फाजिल्का से सीधा कराची तक गोल्डन रेल ट्रैक के नाम से रेल संपर्क भी बिछा हुआ था।
ऐसे में जब शहीद भगत सिंह की जन्म शताब्दी मनाई गई, तो क्षेत्र के लोगों की इच्छा है कि सरकार कुछ ऐसा करे कि अमर शहीद के साथ-साथ फाजिल्का की कुर्बानी को भी याद किया जाए। फाजिल्का के विधायक सुरजीत ज्याणी, रुड़कीके भूपिंदर सिंह सहित क्षेत्र की पूरी जनता भी इस पक्ष में है कि इलाके को भी भगत सिंह की याद से जुड़े स्मृति स्थलों जैसा मान दिया जाए।
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