फाजिल्का-भारत के मानचित्र पर फाजिल्का का नाम कभी ऊन की प्रमुख मंडियों शुमार था। फाजिल्का की तुलना इंग्लैंड के मानचेस्टर से की जाती थी जो दुनिया में ऊन का प्रमुख स्थान है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऊन का फाजिल्का से क्या रिश्ता है, लेकिन अब यह बात सपना सा हो गया है। ऊन का व्यापार होना तो दूर सरकार द्वारा जारी ऊन की स्थापित मंडियों की सूची से फाजिल्का का नाम ही गायब हो गया है। उल्लेखनीय है कि आजादी से पहले फाजिल्का न केवल देश की बल्कि एशिया की प्रमुख ऊन मंडी हुआ करता था। लुधियाना से लाहौर वाया फाजिल्का रेल ट्रैक जिसे व्यापारिक नजरिये से अंग्रेजों ने गोल्डन ट्रैक का नाम दिया था, के रास्ते फाजिल्का मंडी में बिकने वाली देश भर की ऊन लाहौर के रास्ते अन्य रास्तों से पूरी दुनिया में सप्लाई की जाती थी। तब फाजिल्का में राम प्रैस व ऊन की सफाई कर उसकी गांठे बनाने वाली कई छोटी-मोटी प्रैस फैक्ट्रियां भी अस्तित्व में थीं। आजादी के बाद जैसे ही गोल्डन ट्रैक बंद हुआ, वैसे ही ऊन का व्यापार गर्त में समाने लगा। रही सही कसर पंजाब सरकार की गलत नीतियों ने पूरी कर दी है। आजादी के बाद लुधियाना की हौजरी फैक्ट्रियों, सेना के जवानों की जर्सियों के निर्माण के लिए ऊन उत्पादकों का माल खपता रहा है। सरकार ने ऊन व्यवसाय को कोई तरजीह नहीं दी, बल्कि मंडी में बिक्री टैक्स दो से बढ़ाकर चार प्रतिशत कर दिया जो राजस्थान में आज भी दो प्रतिशत ही है। साथ ही राज्य सरकार ने गांवों में लगाई जाने वाली अस्थाई ऊन खरीद मंडियां भी पिछले 10-12 साल से लगानी बंद कर दी है। सरकार की अनदेखी के चलते कभी ऊन बाजार के नाम से मशहूर बाजार में अब ऊन का नामोनिशान भी नहीं मिलता। गांवों में ऊन उत्पादकों को अपनी भेड़ो के इलाज के लिए पशु डिस्पेंसरियां व डाक्टर तक नसीब नहीं होते। इसके चलते यहां की ऊन की गुणवत्ता भी धीरे-धीरे कम हो गई। इलाके के अधिकांश गड़रियों व अन्य भेड़ पालकों ने भेड़ पालनी बंद कर दी है। वैसे भी एक भेड़ से छह महीने में आधा किलो ऊन ही प्राप्त होती है, जिसकी अधिकतम कीमत 12 से 14 रुपये (1000-1100 रुपये प्रति मन) होती है। उसमें से भी आठ रुपये तो ऊन काटने वाला ले जाता है। शेष चार छह रुपये गड़रियों की जूती घिसाई में निकल जाते है। जो थोड़ी बहुत मांग लुधियाना हौजरी मिलों की थी, वह भी आस्ट्रेलिया की मैरिनो क्वालिटी की ऊन ने समाप्त कर दी है। अब आलम यह है कि कभी सीजन में 25 हजार मन ऊन की आवक होती थी, अब कम होकर साढ़े चार सौ मन तक सिमट गई है। पिछले साल साढ़े चार सौ मन आवक के मुकाबले इस बार उतनी आवक होने की संभावना भी नहीं है। ज्यादा टैक्स के चलते अधिकांश ऊन उत्पादक अपनी ऊन राजस्थान के हनुमानगढ़ व अन्य मंडियों में ले जाकर ऊन बेच रहे है, ताकि हौजरी फैक्ट्रियों से नकारी यहां की ऊन बीकानेर की फैक्ट्रियों में कारपेट बनाने
Thursday, September 24, 2009
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