Friday, December 31, 2010
82 लोगों की दुनिया कर गए रोशन- Eye Donation in Fazilka
अमृत सचदेवा, फाजिल्का
फाजिल्का की समाजसेवी संस्थाओं ने नेत्रदान की दिशा में वो कर दिखाया है जो महानगरों की संस्थाएं भी नहीं कर पाई। फाजिल्का में नेत्रदान के प्रति दो-तीन साल में इतनी जागरूकता फैली कि करीब चार सौ लोगों की अंधेरी जिंदगी रोशन हो गई।
2010 में भी नेत्रदान की अलख जगाने में जुटी सोशल वेलफेयर सोसायटी व श्रीराम शरणम् नेत्रदान सहायता समिति ने उल्लेखनीय कार्य किया। इस दौरान 41 लोगों के नेत्रदान करवाकर 82 नेत्रहीनों को रंगीन दुनिया देखने लायक बनाया है। सोशल वेलफेयर सोसायटी ने 26 लोगों व श्रीराम शरणम् नेत्रदान सहायता समिति ने 15 लोगों के मरणोपरांत नेत्रदान करवाए। कुछ नेत्रदान पहले से नेत्रदान की इच्छा जताने वाले लोगों के थे। अधिकांश नेत्रदान अपने प्रियजन की मौत के बाद उसके परिजनों ने उसकी याद दुनिया में जिंदा रखने के लिए करवाए।
सोसायटी के अध्यक्ष राजकिशोर कालड़ा, समिति के प्रवक्ता संतोष जुनेजा व दीनानाथ सचदेवा ने बताया कि पहले लोग इस बात का वहम् करते थे कि शरीर के सभी अंगों का अंतिम संस्कार होने तक जीव को मुक्ति नहीं मिलती लेकिन अब लोगों को इस बात की खुशी होती है कि उनके प्रियजन की आंखें दो नेत्रहीनों के काम आई। कालड़ा ने बताया कि सोसायटी तीन साल से चलाए नेत्रदान अभियान में कुल 120 लोगों के नेत्रदान करवा चुकी है। सचदेवा ने बताया कि समिति करीब 70 लोगों के नेत्रदान करवा चुकी है। इस प्रकार दोनों संस्थाएं 380 नेत्रहीनों की अंधेरी जिंदगी रोशन कर चुकी हैं। कालड़ा ने कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के बाशिंदों को पड़ोसी मुल्क श्रीलंका से सबक लेना चाहिए जहां हर दूसरे घर में मरणोपरांत नेत्रदान की परंपरा है। कालड़ा व सचदेवा ने बताया कि 75 वर्ष से कम उम्र में बच्चे -बूढ़े हर किसी का नेत्रदान हो सकता है। सिर्फ आंखों का आपरेशन नहीं हुआ होना चाहिए या फिर कोई लाइलाज बीमारी नहीं होनी चाहिए।
फाजिल्का की समाजसेवी संस्थाओं ने नेत्रदान की दिशा में वो कर दिखाया है जो महानगरों की संस्थाएं भी नहीं कर पाई। फाजिल्का में नेत्रदान के प्रति दो-तीन साल में इतनी जागरूकता फैली कि करीब चार सौ लोगों की अंधेरी जिंदगी रोशन हो गई।
2010 में भी नेत्रदान की अलख जगाने में जुटी सोशल वेलफेयर सोसायटी व श्रीराम शरणम् नेत्रदान सहायता समिति ने उल्लेखनीय कार्य किया। इस दौरान 41 लोगों के नेत्रदान करवाकर 82 नेत्रहीनों को रंगीन दुनिया देखने लायक बनाया है। सोशल वेलफेयर सोसायटी ने 26 लोगों व श्रीराम शरणम् नेत्रदान सहायता समिति ने 15 लोगों के मरणोपरांत नेत्रदान करवाए। कुछ नेत्रदान पहले से नेत्रदान की इच्छा जताने वाले लोगों के थे। अधिकांश नेत्रदान अपने प्रियजन की मौत के बाद उसके परिजनों ने उसकी याद दुनिया में जिंदा रखने के लिए करवाए।
सोसायटी के अध्यक्ष राजकिशोर कालड़ा, समिति के प्रवक्ता संतोष जुनेजा व दीनानाथ सचदेवा ने बताया कि पहले लोग इस बात का वहम् करते थे कि शरीर के सभी अंगों का अंतिम संस्कार होने तक जीव को मुक्ति नहीं मिलती लेकिन अब लोगों को इस बात की खुशी होती है कि उनके प्रियजन की आंखें दो नेत्रहीनों के काम आई। कालड़ा ने बताया कि सोसायटी तीन साल से चलाए नेत्रदान अभियान में कुल 120 लोगों के नेत्रदान करवा चुकी है। सचदेवा ने बताया कि समिति करीब 70 लोगों के नेत्रदान करवा चुकी है। इस प्रकार दोनों संस्थाएं 380 नेत्रहीनों की अंधेरी जिंदगी रोशन कर चुकी हैं। कालड़ा ने कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के बाशिंदों को पड़ोसी मुल्क श्रीलंका से सबक लेना चाहिए जहां हर दूसरे घर में मरणोपरांत नेत्रदान की परंपरा है। कालड़ा व सचदेवा ने बताया कि 75 वर्ष से कम उम्र में बच्चे -बूढ़े हर किसी का नेत्रदान हो सकता है। सिर्फ आंखों का आपरेशन नहीं हुआ होना चाहिए या फिर कोई लाइलाज बीमारी नहीं होनी चाहिए।
Thursday, December 30, 2010
Warmest Greetings - Happy New Year 2011
Pray for a next year of progress for the
God-fearing and hopeful people of Fazilka
with peace and goodwill
May God's light
enter the hearts
of all humans and
convey truth,
understanding,
mercy and love.
May we all join
hearts and hands
so that we can
live together,
grow together,
and build a
better world
as brothers and sisters,
united under God
Salute to the Spirit of being Fazilite
Happy New year 2011
Regards,
Navdeep Asija
Tuesday, December 28, 2010
Protecting black bucks:: Govt plans community reserves in Abohar
The formalities in connection with the setting up of two community reserves were being completed and it was expected that the Punjab government would issue a notification shortly, the DFO said
Chander Parkash
Tribune News Service
Abohar, December 27
Taking a major initiative, the Punjab government has decided to set up two community reserves in this sub-division for the protection and conservation of blackbucks, blue bulls and sambar, who roam in those villages, which are located outside the open sanctuary area spread over 13 villages.
Official sources said necessary formalities in connection with the setting up of two community reserves were being completed and it was expected that the Punjab government would issue a notification in this connection shortly.
This sub-division is known for its open blackbuck sanctuary in the world as it is the first of its kind, which has come up on private land. The sanctuary, which is spread over an area of 180.5 square kilometres and comprising 13 villages, is housing thousands of blackbucks, blue bulls (Neel Gai) and sambar. The members of the Bishnoi community, whose population dominated these 13 villages, take keen interest in protection of the wild animals.
Official sources said one community reserve would be set up in Gumjal and Panniwala villages and the second reserve would be set up in Haripura and Diwan Khera villages. The area of the first community reserve would be around 7,758 acres and that of the second community reserve would be around 9,103 acres.
Divisional Forest Officer (Wildlife), Ferozepur, Sanjeev Tiwari said the consent of panchayats of these villages in connection with the setting up of the community reserve had been taken. The paper work was being completed and hence the notification by the Punjab government in connection with it could take place anytime.
He said the land, where the community reserve would be set up, would remain in the ownership of respective owners. The wildlife department would deploy its employees in these community reserves for the protection and conservation of blackbuck, blue bull and sambar. The help of residents of these villages would also be taken in conservation of these protected animals.
He said these villages could not be included in the sanctuary area as these were located far away from it. Tiwari said a corridor between the sanctuary and these community reserves could be developed after a few years.
http://www.tribuneindia.com/2010/20101228/bathinda.htm#1
विनोद ज्याणी को आर्गेनिक मैन आफ द ईयर अवार्ड
जागरण संवाददाता, फाजिल्का
फाजिल्का के गांव कटैहड़ा निवासी एवं आर्गेनिक फूड के लिए लहर चला रहे विनोद ज्याणी को हरियाणा में आयोजित राष्ट्र स्तरीय कार्यक्रम में मुख्यातिथि अभिनेता धर्मेद्र ने आर्गेनिक मैन आफ द ईयर पुरस्कार से सम्मानित किया। श्री ज्याणी पिछले 16 साल से सफलतापूर्वक अपने 140 एकड़ फार्म में आर्गेनिक खेती कर रहे हैं।
हरियाणा के जिला रोहतक के गांव अजब में 23 दिसंबर को वर्ल्ड आर्गेनिक डे पर आयोजित कार्यक्रम में सिने अभिनेता धर्मेद्र व बाबा रामदेव के साथी आचार्य बालकृष्ण ने उक्त अवार्ड से उन्हें नवाजा। दोनों मेहमानों ने सभी किसानों को ज्याणी से प्रेरणा लेकर केमिकल आधारित खेती की बजाए आर्गेनिक खेती करने के लिए प्रेरित किया। क्योंकि अधिकांश बीमारिया केमिकल खेती के कारण जहरीले होते जा रहे भोजन के कारण पैदा हो रही हैं। उन्होंने किसानों को आर्गेनिक खेती का महत्व जानने के लिए कम से कम एक एकड़ रकबे में आर्गेनिक खेती करने का तजुर्बा करने की सलाह भी दी। कार्यक्रम के मुख्य आयोजक स्वामी संपूर्णानंद जी थे। श्री ज्याणी के साथ उनकी पत्नी इंदू ज्याणी को भी सम्मानित किया गया जो आर्गेनिक फूड के प्रति लहर चलाने में अपने पति की हमसफर बनी हुई हैं। इस कार्यक्रम में करीब 25 हजार लोग शामिल हुए।
फाजिल्का के गांव कटैहड़ा निवासी एवं आर्गेनिक फूड के लिए लहर चला रहे विनोद ज्याणी को हरियाणा में आयोजित राष्ट्र स्तरीय कार्यक्रम में मुख्यातिथि अभिनेता धर्मेद्र ने आर्गेनिक मैन आफ द ईयर पुरस्कार से सम्मानित किया। श्री ज्याणी पिछले 16 साल से सफलतापूर्वक अपने 140 एकड़ फार्म में आर्गेनिक खेती कर रहे हैं।
हरियाणा के जिला रोहतक के गांव अजब में 23 दिसंबर को वर्ल्ड आर्गेनिक डे पर आयोजित कार्यक्रम में सिने अभिनेता धर्मेद्र व बाबा रामदेव के साथी आचार्य बालकृष्ण ने उक्त अवार्ड से उन्हें नवाजा। दोनों मेहमानों ने सभी किसानों को ज्याणी से प्रेरणा लेकर केमिकल आधारित खेती की बजाए आर्गेनिक खेती करने के लिए प्रेरित किया। क्योंकि अधिकांश बीमारिया केमिकल खेती के कारण जहरीले होते जा रहे भोजन के कारण पैदा हो रही हैं। उन्होंने किसानों को आर्गेनिक खेती का महत्व जानने के लिए कम से कम एक एकड़ रकबे में आर्गेनिक खेती करने का तजुर्बा करने की सलाह भी दी। कार्यक्रम के मुख्य आयोजक स्वामी संपूर्णानंद जी थे। श्री ज्याणी के साथ उनकी पत्नी इंदू ज्याणी को भी सम्मानित किया गया जो आर्गेनिक फूड के प्रति लहर चलाने में अपने पति की हमसफर बनी हुई हैं। इस कार्यक्रम में करीब 25 हजार लोग शामिल हुए।
झेल रहे हैं अपनों की दुत्कार, अफरशाही की बेरुखी
वृद्धाश्रम एक ऐसी जगह जिसका नाम आते ही आखों के सामने उपेक्षा के शिकार चेहरे कौंधने लग जाते हैं वो चाहे अपनों की दुत्कार का शिकार हों या फिर अफसरशाही की बेरुखी का। इन्हीं दोनों तरह की मार से पीडि़त तीन चेहरे संत कौर, अजीत सिंह और प्रकाश सिंह कई साल से फाजिल्का के वृद्धाश्रम में जिंदगी के बचे-खुचे दिन तोड़ रहे हैं।
फौजी की विधवा ने लिखे कई निवेदन
गांव सैनिया की संत कौर का पति सुचेत ङ्क्षसह भारतीय सेना में तैनात था। 1965 के भारत-पाक युद्ध में सुचेत ङ्क्षसह ने बहादुरी के साथ दुश्मनों का मुकाबला किया, लेकिन अचानक एक गोली उसके सीने से पार हो गई और वह शहीद हो गया।
संत कौर ने भीगे नैनों से बताया कि इसके बाद सरकार ने उनके परिवार की थोड़ी-बहुत ही सहायता की। जब भी वह अधिकारियों के पास फरियाद लेकर पहुंची तभी उन्हें एक और प्रार्थना पत्र लिखकर देने की बात कहकर टाल दिया जाता रहा है। उसे तो याद भी नहीं कि वह कितनी बार और कितने अधिकारियों को निवेदन पत्र लिख चुकी है। करीब 4 माह पहले उसे मात्र 1200 रुपए ही पेंशन मिली है। फिर यह भी बंद हो गई। इससे पहले 4-5 बार ही उन्हें पेंशन मिली थी। अब वह 6 साल से यहां बची-खुची जिंदगी बसर कर रही है।
विभाजन के समय खोए फौजी के कागज
ब्रिटिश साम्राज्य में अजीत सिंह 10/8 पंजाब रेजीमेंट के सैनिक थे। उनकी ड्यूटी लाहौर में थी। बात भारत-पाक विभाजन के समय की है। एक रात तेज बारिश से उनका मकान गिर गया और सरकारी कागजात का कोई पता नहीं चला। जो कागजात उनके पास थे, वे विभाजन दौरान गुम हो गए। वह परिवार सहित फाजिल्का आए और बाद में अनेक बार सरकारी कार्यालयों में जाकर आर्थिक सहायता पाने की गुहार लगाते रहे, लेकिन हर बार कागजात लाओ का बहाना बनाकर टाल दिया जाता रहा। अंत में हारकर वह बैठ गया। करीब 4 साल पहले परिवार ने भी उसे दुत्कार दिया और वृद्धाश्रम को अपना घर बना लिया।
प्रकाश सिंह ने शादी ही नहीं करवाई
जिंदगी के 70 बसंत देख चुके प्रकाश सिंह एमएससी एग्रीकल्चर पास हैं और वह राज्य के अधिकांश नेताओं को उनके सियासी भविष्य के बारे में बताते हैं। देश विदेश के इतिहास के बारे में भी उन्हें काफी जानकारी है। उसने शादी नहीं करवाई और अब उन्होंने वृद्ध आश्रम को अपना आशियाना बना लिया।
यहां रहने वाले बुजुर्ग ही उनका परिवार है। बुजुर्गों का कहना है कि भले ही सरकार ने उनकी कभी नहीं सुनी, लेकिन वृद्धाश्रम के कारण वे चैन की जिंदगी बसर कर रहे हैं।
27 फाजिल्का 2 फाजिल्का के वृद्ध आश्रम को अपना आशियाना बनाने वाले बुजुर्ग।
'ए होम अवे फ्रॉम होम का स्थापना दिवस मनाया
फाजिल्का & मानव कल्याण सभा की ओर से संचालित वृद्धाश्रम का स्थापना दिवस मनाया गया। इस अवसर पर धार्मिक समारोह का आयोजन किया गया। इसमें बाला जी धाम महिला मंडल द्वारा श्री सुंदर कांड के पाठ का संगीतमयी उच्चारण किया गया। समाजसेवी सतीश कुमार सचदेवा ने पूजा अर्चणा के पश्चात पवित्र ज्योति प्रज्ज्वलित की गई। इस मौके पर बाबा अविनाश चन्द अनेजा विशेष रूप से उपस्थित हुए। मौके पर सुशील गुंबर ने सभा के प्रोजेक्ट की जानकारी दी। इस मौके पर अध्यक्ष सुरेन्द्र सचदेवा व अन्य पदाधिकारी मौजूद थे|
फौजी की विधवा ने लिखे कई निवेदन
गांव सैनिया की संत कौर का पति सुचेत ङ्क्षसह भारतीय सेना में तैनात था। 1965 के भारत-पाक युद्ध में सुचेत ङ्क्षसह ने बहादुरी के साथ दुश्मनों का मुकाबला किया, लेकिन अचानक एक गोली उसके सीने से पार हो गई और वह शहीद हो गया।
संत कौर ने भीगे नैनों से बताया कि इसके बाद सरकार ने उनके परिवार की थोड़ी-बहुत ही सहायता की। जब भी वह अधिकारियों के पास फरियाद लेकर पहुंची तभी उन्हें एक और प्रार्थना पत्र लिखकर देने की बात कहकर टाल दिया जाता रहा है। उसे तो याद भी नहीं कि वह कितनी बार और कितने अधिकारियों को निवेदन पत्र लिख चुकी है। करीब 4 माह पहले उसे मात्र 1200 रुपए ही पेंशन मिली है। फिर यह भी बंद हो गई। इससे पहले 4-5 बार ही उन्हें पेंशन मिली थी। अब वह 6 साल से यहां बची-खुची जिंदगी बसर कर रही है।
विभाजन के समय खोए फौजी के कागज
ब्रिटिश साम्राज्य में अजीत सिंह 10/8 पंजाब रेजीमेंट के सैनिक थे। उनकी ड्यूटी लाहौर में थी। बात भारत-पाक विभाजन के समय की है। एक रात तेज बारिश से उनका मकान गिर गया और सरकारी कागजात का कोई पता नहीं चला। जो कागजात उनके पास थे, वे विभाजन दौरान गुम हो गए। वह परिवार सहित फाजिल्का आए और बाद में अनेक बार सरकारी कार्यालयों में जाकर आर्थिक सहायता पाने की गुहार लगाते रहे, लेकिन हर बार कागजात लाओ का बहाना बनाकर टाल दिया जाता रहा। अंत में हारकर वह बैठ गया। करीब 4 साल पहले परिवार ने भी उसे दुत्कार दिया और वृद्धाश्रम को अपना घर बना लिया।
प्रकाश सिंह ने शादी ही नहीं करवाई
जिंदगी के 70 बसंत देख चुके प्रकाश सिंह एमएससी एग्रीकल्चर पास हैं और वह राज्य के अधिकांश नेताओं को उनके सियासी भविष्य के बारे में बताते हैं। देश विदेश के इतिहास के बारे में भी उन्हें काफी जानकारी है। उसने शादी नहीं करवाई और अब उन्होंने वृद्ध आश्रम को अपना आशियाना बना लिया।
यहां रहने वाले बुजुर्ग ही उनका परिवार है। बुजुर्गों का कहना है कि भले ही सरकार ने उनकी कभी नहीं सुनी, लेकिन वृद्धाश्रम के कारण वे चैन की जिंदगी बसर कर रहे हैं।
27 फाजिल्का 2 फाजिल्का के वृद्ध आश्रम को अपना आशियाना बनाने वाले बुजुर्ग।
'ए होम अवे फ्रॉम होम का स्थापना दिवस मनाया
फाजिल्का & मानव कल्याण सभा की ओर से संचालित वृद्धाश्रम का स्थापना दिवस मनाया गया। इस अवसर पर धार्मिक समारोह का आयोजन किया गया। इसमें बाला जी धाम महिला मंडल द्वारा श्री सुंदर कांड के पाठ का संगीतमयी उच्चारण किया गया। समाजसेवी सतीश कुमार सचदेवा ने पूजा अर्चणा के पश्चात पवित्र ज्योति प्रज्ज्वलित की गई। इस मौके पर बाबा अविनाश चन्द अनेजा विशेष रूप से उपस्थित हुए। मौके पर सुशील गुंबर ने सभा के प्रोजेक्ट की जानकारी दी। इस मौके पर अध्यक्ष सुरेन्द्र सचदेवा व अन्य पदाधिकारी मौजूद थे|
Monday, December 27, 2010
Fazilite Vinod Jyani got Organic Man of the Year Award
Fazilite Vinod Jyani got Organic Man of the Year Award. Vinod Jyani owns 140 acre organic farm at his native village Kathera, near Abohar- Fazilka. He is successfully doing organic farming from last 6 years. Vinod Jyani's farm is 1st farm tourist destination declared by tourism department of Punjab Government.
He was honored as Organic Man of the Year At village Aajab Dist Rothak Haryana , on the 23 December where World Organic Day was celebrated. The chief guest were film star Dharmendar ,Acharya Balkrishan ji Patanjali Yog Peeth. Dharmendar in his speech spoke about his love for agriculture and advised all farmers to start chemical free farming at least in one acre. Acharya Balkrishan ji said that most of the disease in today's world were to the use of chemical in the food that we grow.He futher said that Pathanjali yogpeth were helping farmers to grow food crops organically and helping them to market their produce. Swami Sampurananandji the main Organiser of the event, talked about that food in itself, was medicine. He than told the audience about the Jyani Natural Farm and their role in going for organic farming in one go in 130 acre and how they process and sell the produce directely to the consumer. Then the organic man of the year award was given to Mr Vinod and Mrs Indu Jyani. The Confrence was attended by about 25 thousand people.
Tuesday, December 21, 2010
After a decade, census to be held in black buck sanctuary
Chander Parkash/TNS
Abohar, December 20
The much awaited census of black buck, blue bull and sambar is likely to start in a week or so in the Abohar black buck sanctuary, spread over 13 villages of this sub-division, dominated by the members of the Bishnoi community, known for its exemplary passion to protect environment and animals.
The Abohar open black buck sanctuary, which covers an area 180.5 square kilometres and only one of its kind in the world, is also considered as the only place in the country where the black buck is found in large numbers.
The last census in this Asia's largest open black buck sanctuary was held in 1998. Though next census was supposed to be conducted in 2003 and then in 2008, it could not be carried out by the authorities concerned due to paucity of funds with the state wildlife department coupled with acute shortage of staff manning it.
"We have engaged volunteers of the National Service Scheme (NSS) from different schools and colleges of the region to assist employees of the wildlife department in conducting the census (survey) of black bucks, blue bull (Neel Gai) and sambar in the sanctuary within a time period of about ten days," said Sanjeev Tiwari, Divisional Forest Officer (Wildlife), Ferozepur.
About 30 staff members of the wildlife department out of a total of 60, who had been deployed at the Hari Ke wetland bird sanctuary, would be pressed into service to carry out the census.
These employees would participate in the exercise during the day time and at night, they would ensure the protection of Hari Ke sanctuary, Tiwari added.
Information gathered by TNS revealed that during the last census, it was found that the number of black bucks in this open sanctuary, which came into existence in 1975, was around 3000.
Though incidents of hunting of black bucks and blue bulls by hunters had come down significantly, these protected animals were being killed by stray dogs frequently.
The menace of stray dogs and reduction of barren land for their habitat, the migration of black buck, blue bull and Sambar to neighbouring Rajasthan had also started taking place in the past two years or so.
Meanwhile, Sanjeev Godara, Member, Punjab State Wildlife Board, demanded that the Central Government must give enough funds to erect fencing alongside the roads criss-crossing the sanctuary to save the animals from being killed in road accidents.
Abohar, December 20
The much awaited census of black buck, blue bull and sambar is likely to start in a week or so in the Abohar black buck sanctuary, spread over 13 villages of this sub-division, dominated by the members of the Bishnoi community, known for its exemplary passion to protect environment and animals.
The Abohar open black buck sanctuary, which covers an area 180.5 square kilometres and only one of its kind in the world, is also considered as the only place in the country where the black buck is found in large numbers.
The last census in this Asia's largest open black buck sanctuary was held in 1998. Though next census was supposed to be conducted in 2003 and then in 2008, it could not be carried out by the authorities concerned due to paucity of funds with the state wildlife department coupled with acute shortage of staff manning it.
"We have engaged volunteers of the National Service Scheme (NSS) from different schools and colleges of the region to assist employees of the wildlife department in conducting the census (survey) of black bucks, blue bull (Neel Gai) and sambar in the sanctuary within a time period of about ten days," said Sanjeev Tiwari, Divisional Forest Officer (Wildlife), Ferozepur.
About 30 staff members of the wildlife department out of a total of 60, who had been deployed at the Hari Ke wetland bird sanctuary, would be pressed into service to carry out the census.
These employees would participate in the exercise during the day time and at night, they would ensure the protection of Hari Ke sanctuary, Tiwari added.
Information gathered by TNS revealed that during the last census, it was found that the number of black bucks in this open sanctuary, which came into existence in 1975, was around 3000.
Though incidents of hunting of black bucks and blue bulls by hunters had come down significantly, these protected animals were being killed by stray dogs frequently.
The menace of stray dogs and reduction of barren land for their habitat, the migration of black buck, blue bull and Sambar to neighbouring Rajasthan had also started taking place in the past two years or so.
Meanwhile, Sanjeev Godara, Member, Punjab State Wildlife Board, demanded that the Central Government must give enough funds to erect fencing alongside the roads criss-crossing the sanctuary to save the animals from being killed in road accidents.
Monday, December 20, 2010
पर्यावरण के दुश्मनों ने बाधा झील को निगला
20th December 2010, Dainik Bhaskar, Laxman Dost
भारत विभाजन से पूर्व जिस प्राकृतिक झील के सौंदर्य से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने फाजिल्का नगर की स्थापना की थी, उस झील का अस्तित्व आज खत्म हो गया है। पर्यावरण के दुश्मनों ने बाधा झील को निगल लिया। अब यहां कंक्रीट का जंगल बनाये जाने योजना पर भी काम किया जा रहा है। वैटलेंड में शुमार बाधा झील कभी प्रवासी पक्षियों की चहलकदमी से गुंजायामान रहता था। इस प्राकृतिक झील को पुरानी अवस्था में लाने के लिए सरकार कोई रूचि नहीं दिखा रही है। भूमाफिया इस भूमि के आसपास रिहायसी कालोनियां बनाने की योजनाएं बना रहे हैं। गौर हो कि फाजिल्का सब डिवीजन में कुल 3 प्राकृतिक झीलें थीं। भैनी झंगड़ और गंजबक्श (अब सदकी की चैक पोस्ट) की झीलों का थोड़ा बहुत अस्तित्व अब भी हैं, किंत तीसरी झील का अस्तित्व खम्त्म हो चुका है। जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के फारमर डायरेक्टर वीके जोशी ने बाधा लेक के खत्म होने की वजह से ही इस पूरे क्षेत्र को रेड अलर्ट जोन में रखा है। प्रदेश में ऐसी 32 वैटलैंड थीं जिनमें अधिकांश खत्म होने के कगार पर पहुंच गई है।
Sunday, December 19, 2010
पटरी पर कब पहुंचेगी फाजिल्का टू अबोहर ट्रेन
डा. अमर लाल बाघला/अमृत सचदेवा, फाजिल्का
वर्ष 2010 में फाजिल्का-अबोहर के बीच रेल सफर का लोगों का ख्वाब, ख्वाब बनकर ही रह गया है। कभी रेल लाइन बिछाने के लिए नहर पर बिछाया जा रहा पुल गिरने तो कभी अन्य काम ढीला होने से फाजिल्का-टू-अबोहर ट्रेन पटरी पर नहीं आ सकी।
उल्लेखनीय है कि पहली फरवरी 2004 में तत्कालीन रेलमंत्री नीतिश कुमार ने फाजिल्का-अबोहर रेल मार्ग का नींव पत्थर रखा था। तब तीन वर्ष के भीतर काम पूरा होने की बात कही गई थी। इसका बजट भी 67 करोड़ से बढ़कर एक अरब से अधिक हो गया है।
उल्लेखनीय है कि फाजिल्का-अबोहर रेल लाइन की मांग दोनों नगरों के बाशिंदों द्वारा आजादी के बाद से की जा रही है। रेल मार्ग न होने के कारण दोनों शहरों व अन्य जगहों पर जाने वाले यात्रियों को बसों का महंगा सफर करना पड़ता था। यह मांग पूरी होने की दिशा में ऐतिहासिक दिन साल 2004 में आया जब पूर्व रेलमंत्री नीतिश कुमार ने फाजिल्का आकर इस रेल लाइन का नींव पत्थर रखा। सबसे पहले अबोहर के निकट कच्चा सीड फार्म में जगह एक्वायर करने, बाद में अदायगी को लेकर विवाद, रास्ते में आने वाले धार्मिक स्थलों की जगह एक्वायर करने के विवादों के चलते रेल लाइन लिंक पूरा होने में दिक्कतें आती रहीं। इसके अलावा गांव हीरांवाली के निकट जमीन धंसने से भी काम प्रभावित हुआ। इसके चलते 2007 में पूरा होने वाला काम 2010 तक खिंच गया। जब 2010 में रेलगाड़ी की यात्रा करने का ख्वाब देखा जाने लगा तो गांव आजमवाला के निकट गंग कैनाल पर बनाया जा रहा स्पैम वाले पुल का एक हिस्सा नहर में गिरने से काम बाधित हो गया। अब उम्मीद जताई जा रही है कि मार्च या अप्रैल में फाजिल्का-अबोहर रेल लाइन पर गाड़ी दौड़ने लगेगी। क्योंकि नार्दन रेलवे रीजन के जनरल मैनेजर ने इस योजना को 31 जनवरी तक पूरा करने का आदेश दिया है। साथ ही पूर्णतया का सर्टिफिकेट मांग लिया है। इसके बाद रेलवे की ओर से लाइनों का ट्राई लिया जाएगा। फाजिल्का से लेकर अबोहर के बीच पांच रेलवे स्टेशन, सिग्नल और फाटक बनाने का काम पूरा हो चुका है। इन पांच स्टेशनों में से चूहड़ीवाला धन्ना व खुईखेड़ा क्रासिंग स्टेशन बनाए गए हैं। 2010 में न सही अब लोगों को 2011 में फाजिल्का से अबोहर रेलगाड़ी का सफर नसीब हो जाएगा। इसके साथ ही गंगानगर से फाजिल्का होते हुए लंबे रूट की गाड़ियां भी चलने लगेंगी।
वर्ष 2010 में फाजिल्का-अबोहर के बीच रेल सफर का लोगों का ख्वाब, ख्वाब बनकर ही रह गया है। कभी रेल लाइन बिछाने के लिए नहर पर बिछाया जा रहा पुल गिरने तो कभी अन्य काम ढीला होने से फाजिल्का-टू-अबोहर ट्रेन पटरी पर नहीं आ सकी।
उल्लेखनीय है कि पहली फरवरी 2004 में तत्कालीन रेलमंत्री नीतिश कुमार ने फाजिल्का-अबोहर रेल मार्ग का नींव पत्थर रखा था। तब तीन वर्ष के भीतर काम पूरा होने की बात कही गई थी। इसका बजट भी 67 करोड़ से बढ़कर एक अरब से अधिक हो गया है।
उल्लेखनीय है कि फाजिल्का-अबोहर रेल लाइन की मांग दोनों नगरों के बाशिंदों द्वारा आजादी के बाद से की जा रही है। रेल मार्ग न होने के कारण दोनों शहरों व अन्य जगहों पर जाने वाले यात्रियों को बसों का महंगा सफर करना पड़ता था। यह मांग पूरी होने की दिशा में ऐतिहासिक दिन साल 2004 में आया जब पूर्व रेलमंत्री नीतिश कुमार ने फाजिल्का आकर इस रेल लाइन का नींव पत्थर रखा। सबसे पहले अबोहर के निकट कच्चा सीड फार्म में जगह एक्वायर करने, बाद में अदायगी को लेकर विवाद, रास्ते में आने वाले धार्मिक स्थलों की जगह एक्वायर करने के विवादों के चलते रेल लाइन लिंक पूरा होने में दिक्कतें आती रहीं। इसके अलावा गांव हीरांवाली के निकट जमीन धंसने से भी काम प्रभावित हुआ। इसके चलते 2007 में पूरा होने वाला काम 2010 तक खिंच गया। जब 2010 में रेलगाड़ी की यात्रा करने का ख्वाब देखा जाने लगा तो गांव आजमवाला के निकट गंग कैनाल पर बनाया जा रहा स्पैम वाले पुल का एक हिस्सा नहर में गिरने से काम बाधित हो गया। अब उम्मीद जताई जा रही है कि मार्च या अप्रैल में फाजिल्का-अबोहर रेल लाइन पर गाड़ी दौड़ने लगेगी। क्योंकि नार्दन रेलवे रीजन के जनरल मैनेजर ने इस योजना को 31 जनवरी तक पूरा करने का आदेश दिया है। साथ ही पूर्णतया का सर्टिफिकेट मांग लिया है। इसके बाद रेलवे की ओर से लाइनों का ट्राई लिया जाएगा। फाजिल्का से लेकर अबोहर के बीच पांच रेलवे स्टेशन, सिग्नल और फाटक बनाने का काम पूरा हो चुका है। इन पांच स्टेशनों में से चूहड़ीवाला धन्ना व खुईखेड़ा क्रासिंग स्टेशन बनाए गए हैं। 2010 में न सही अब लोगों को 2011 में फाजिल्का से अबोहर रेलगाड़ी का सफर नसीब हो जाएगा। इसके साथ ही गंगानगर से फाजिल्का होते हुए लंबे रूट की गाड़ियां भी चलने लगेंगी।
देश प्रेम का अनूठा संगम है शहीद स्मारक
17 दिसंबर की रात 8 बजे युद्धबंदी की घोषणा हुई। उसके बाद सेना के अधिकारियों ने शहीद सैनिकों के शवों को एकत्रित करवाने का काम शुरू करवाया। यह सिलसिला 18 दिसंबर सुबह सात बजे से लेकर सायं तीन बजे तक चलता रहा। इस दौरान शहीदों के शवों को गांव आसफवाला में एकत्रित किया गया और देश की रक्षा करने वाले इन शूरवीरों का 90 फुट लंबी तथा 18 फीट चौड़ी चिता बनाकर दाह संस्कार किया गया। उसके बाद आसफवाला एक ऐसा स्थान बन गया ,जहां सर्वधर्म के व्यक्ति श्रद्धा से शीश झुकाते हंै।
आसफवाला शहीदी स्मारक देश प्रेम और धार्मिक आस्था का प्रतीक है। सादकी सीमा पर रिट्रीट सेरेमनि देखने आने वाले लोग आते-जाते इन शहीदों को नमन् करते हैं। स्मारक में वार मेमोरियल बनाया गया है। जहां कुर्बान होने वाले जवानों के चित्र, दोनों युद्धों का हाल लिखा गया है। युद्ध दौरान के कुछ चित्रों व पेंटिंग भी सजाई गई है। ताकि इस पवित्र धरती पर आने वाले लोगों में इन्हें देखकर देशभक्ति का जज्बा और बढ़ सके। 1991 में यहां 67 इंफैट्री बिग्रेड के आठ युनिटों की स्मारक बनाए गए।
मैदान में जीत टेबल पर हारी लड़ाई: युद्ध विराम की घोषणा के बाद भारत के समक्ष 93 हजार युद्ध बंदियों को संभालने की समस्या थी और आखिरी करीब आठ माह बाद दोनों देशें के प्रधानमंत्री शिमला में एक टेबल पर एकत्रित हुए। जुलाई 1972 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी एवं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुलफ्कार अली भुट्टो के बीच हुए समझौते को शिमला समझौता नाम दिया गया। इस समझौते से आम आदमी सहमत नहीं था। कोई भी नहीं चाहता था कि पाक से कब्जे में लिया गया क्षेत्र उसे वापस दिया जाए। तब लोग आम कहते थे कि सैनिकों द्वारा मैदान में जीता युद्ध, नेताओं ने टेबल पर हार दिया।
आसफवाला शहीदी स्मारक देश प्रेम और धार्मिक आस्था का प्रतीक है। सादकी सीमा पर रिट्रीट सेरेमनि देखने आने वाले लोग आते-जाते इन शहीदों को नमन् करते हैं। स्मारक में वार मेमोरियल बनाया गया है। जहां कुर्बान होने वाले जवानों के चित्र, दोनों युद्धों का हाल लिखा गया है। युद्ध दौरान के कुछ चित्रों व पेंटिंग भी सजाई गई है। ताकि इस पवित्र धरती पर आने वाले लोगों में इन्हें देखकर देशभक्ति का जज्बा और बढ़ सके। 1991 में यहां 67 इंफैट्री बिग्रेड के आठ युनिटों की स्मारक बनाए गए।
मैदान में जीत टेबल पर हारी लड़ाई: युद्ध विराम की घोषणा के बाद भारत के समक्ष 93 हजार युद्ध बंदियों को संभालने की समस्या थी और आखिरी करीब आठ माह बाद दोनों देशें के प्रधानमंत्री शिमला में एक टेबल पर एकत्रित हुए। जुलाई 1972 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी एवं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुलफ्कार अली भुट्टो के बीच हुए समझौते को शिमला समझौता नाम दिया गया। इस समझौते से आम आदमी सहमत नहीं था। कोई भी नहीं चाहता था कि पाक से कब्जे में लिया गया क्षेत्र उसे वापस दिया जाए। तब लोग आम कहते थे कि सैनिकों द्वारा मैदान में जीता युद्ध, नेताओं ने टेबल पर हार दिया।
कलाओं की रक्षा के लिए बनेंगे कलस्टर
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनो के भारत के निर्माण के लिए और पुरातन कलाकृति को जिंदा रखने के लिए देश के प्रत्येक जिले में कलस्टर स्थापित किए जाएंगे। यह बात शुक्रवार को खादी और ग्रामोद्योग आयोग की अध्यक्षा कुमुद जोशी ने कही। वह फाजिल्का के गांव रामपूरा में परंपरागत कारीगरों के कौशल सवंर्धन और विपणन के लिए पंजाबी देसी जूती कलस्टर सामुदायिक सुविधा केन्द्र का शिलान्यास करने आईं थी। इस मौके पर पंजाब खादी ग्रमीण बोर्ड के चेयरमैन विजय सापला, केवीआईसी के स्टेट डायरेक्टर डा. एनएस तोमर, एसडीएम अजय सूद, तहसीलदार वरिन्द्र वालिया, नायब तहसीलदार जगमेल ङ्क्षसह, नगर सुधार ट्रस्ट के चेयरमैन महिन्द्र प्रताप धींगड़ा, नगर कौंसिल के पूर्व सीनीयर उपाध्यक्ष कंचन शर्मा, पार्षद नीना राम, ज्योति बीएड कालेज की प्रिंसिपल अनीता अरोड़ा आदि मौजूद थे।
इस मौके पर सुश्री जोशी ने बताया कि बीते 4 वर्षों में देश भर में 95 कलस्टर स्थापित किए गए हैं। इसमें से 4 कलस्टर पंजाब में स्थापित किए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि पटियाला में फुलकारी, होशियारपुर में वुडन हैंडी और अमृतसर में ऊनी कपड़े का कलस्टर स्थापित किया जा रहा है। सुश्री जोशी ने बताया कि कलेस्टरों में कारीगरों को उचित दामों में सामान खरीदने, कारीगरी में माहिर बनाने और तैयार माल की मार्केटिंग की सिखलाई दी जाएगी। उन्होंने सब्सिडी की राशि 3 करोड़ से बढ़ाकर 6 करोड़ रुपए करने की घोषणा की। विजय सापला द्वारा जालंधर में स्पोट्र्स कलस्टर खोलने की मांग को सुश्री जोशी ने मान लिया। इस अवसर पर ज्योति बीएड कालेज की छात्राओं ने उनका स्वागत किया। मंच का संचालन परमजीत सिंह ने किया।
इस मौके पर सुश्री जोशी ने बताया कि बीते 4 वर्षों में देश भर में 95 कलस्टर स्थापित किए गए हैं। इसमें से 4 कलस्टर पंजाब में स्थापित किए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि पटियाला में फुलकारी, होशियारपुर में वुडन हैंडी और अमृतसर में ऊनी कपड़े का कलस्टर स्थापित किया जा रहा है। सुश्री जोशी ने बताया कि कलेस्टरों में कारीगरों को उचित दामों में सामान खरीदने, कारीगरी में माहिर बनाने और तैयार माल की मार्केटिंग की सिखलाई दी जाएगी। उन्होंने सब्सिडी की राशि 3 करोड़ से बढ़ाकर 6 करोड़ रुपए करने की घोषणा की। विजय सापला द्वारा जालंधर में स्पोट्र्स कलस्टर खोलने की मांग को सुश्री जोशी ने मान लिया। इस अवसर पर ज्योति बीएड कालेज की छात्राओं ने उनका स्वागत किया। मंच का संचालन परमजीत सिंह ने किया।
Friday, December 17, 2010
INDO-PAK WARS OF 1965 &1971: 17 martyrs’ graves in state of neglect-Fazilka
Chander Parkash
Tribune News Service
Fazilka, December 16
Will anyone honour about 17 soldiers of the Indian Army, who made the supreme sacrifice in the 1965 and 1971 Indo-Pak wars? Their graves are situated in the graveyard of Sainia village, near this border town, unattended and uncared for for the past many years?
Though on the occasion of Vijay Divas today, which also marks the 39th anniversary of the greatest victory India has made over Pakistan and the subsequent creation of Bangladesh, memorial functions are being held across the nation, the graves of these brave soldiers are lying in utter neglect.
A visit to the graveyard shows that though the nation is celebrating its 64th year of Independence, the memories of the men in olive green, who braved bullets and shells of enemies and attained martyrdom, are lost in oblivion. Most of the soldiers, who were made to rest here as their final abode, were members of the Muslim and Christian communities. No one can tell the exact number of soldiers who have been buried here.
The long grass and weeds, cow dung and other garbage littered over the place adds insult to injury of the families of these martyrs.
Local people and other sources say that the soldiers, whose graves are situated here, were from the North-East and southern Indian states.
The Army personnel belonging to 4 Jat 15, Rajput and 3 Assam regiments suffered a large number of causalties in the 1965 and 1971 conflicts.
It is learnt that the graves of some of these soldiers were situated in the graveyard being run by the Methodist church.
These brave soldiers were also among those martyrs, who stopped the Pakistan army's advance into this area and prevented it from capturing Fazilka town. The aim of the enemy was to capture Bathinda and Ludhiana in the 1971 Indo-Pak war.
Navdeep Asija, Secretary, Administration, Graduates Welfare Association, Fazilka, said the association was in the process of working out modalities so that all martyrs could be honoured.
Meanwhile, a senior officer of the Army, while pleading anonymity, said that as of today the Army did not have any plan to take care of this graveyard.
Tribune News Service
Fazilka, December 16
Will anyone honour about 17 soldiers of the Indian Army, who made the supreme sacrifice in the 1965 and 1971 Indo-Pak wars? Their graves are situated in the graveyard of Sainia village, near this border town, unattended and uncared for for the past many years?
Though on the occasion of Vijay Divas today, which also marks the 39th anniversary of the greatest victory India has made over Pakistan and the subsequent creation of Bangladesh, memorial functions are being held across the nation, the graves of these brave soldiers are lying in utter neglect.
A visit to the graveyard shows that though the nation is celebrating its 64th year of Independence, the memories of the men in olive green, who braved bullets and shells of enemies and attained martyrdom, are lost in oblivion. Most of the soldiers, who were made to rest here as their final abode, were members of the Muslim and Christian communities. No one can tell the exact number of soldiers who have been buried here.
The long grass and weeds, cow dung and other garbage littered over the place adds insult to injury of the families of these martyrs.
Local people and other sources say that the soldiers, whose graves are situated here, were from the North-East and southern Indian states.
The Army personnel belonging to 4 Jat 15, Rajput and 3 Assam regiments suffered a large number of causalties in the 1965 and 1971 conflicts.
It is learnt that the graves of some of these soldiers were situated in the graveyard being run by the Methodist church.
These brave soldiers were also among those martyrs, who stopped the Pakistan army's advance into this area and prevented it from capturing Fazilka town. The aim of the enemy was to capture Bathinda and Ludhiana in the 1971 Indo-Pak war.
Navdeep Asija, Secretary, Administration, Graduates Welfare Association, Fazilka, said the association was in the process of working out modalities so that all martyrs could be honoured.
Meanwhile, a senior officer of the Army, while pleading anonymity, said that as of today the Army did not have any plan to take care of this graveyard.
Thursday, December 16, 2010
ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਸਮੇਂ ਜਦੋਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਦਾ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਲਵਾਰਿਸ ਹੋਇਆ : India Pakistan Partition 1947: Journey from Malika Hans to Fazilka
'ਦੋਆਬਾ ਹੈਡਲਾਈਨਜ਼' ਦੇ 15 ਅਗਸਤ 2009 ਦੇ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦਿਵਸ ਮੌਕੇ ਛਪੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਐਡੀਸ਼ਨ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਜਨਮ ਭੂਮੀ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤਹਿਸੀਲ ਪਾਕਪਟਨ, ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਮਿੰਟਗੁਮਰੀ (ਪਾਕਿਸਤਾਨ) ਨੂੰ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਸਮੇਂ ਕਿਵੇਂ ਛੱਡਿਆ, ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਸਬੰਧੀ ਕੁਝ ਯਾਦਾਂ ਪਾਠਕਾਂ ਨਾਲ ਸਾਂਝੀਆਂ ਕੀਤੀਆਂ ਸਨ।
ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਲੇਖਕ ਡਾ. ਜਗਤਾਰ ਦਾ ਜਲੰਧਰ ਤੋਂ ਫੋਨ ਆਇਆ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੇ ਸਫਰਨਾਮੇ ਸਬੰਧੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਲੈਣ ਲਈ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਗਏ ਸਨ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਸੱਯਦ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਜੀ ਦੀ ਉਹ ਮਸੀਤ ਵੇਖੀ ਸੀ, ਜਿਥੇ ਸਾਲ 1180 ਹਿੱਜਰੀ ਵਿੱਚ ਹੀਰ ਦੇ ਕਿੱਸੇ ਦੀ ਰਚਨਾ ਕੀਤੀ ਗਈ ਸੀ।
ਉਨ੍ਹਾਂ (ਡਾਕਟਰ ਜਗਤਾਰ ਨੇ) ਆਪਣੀ ਪਾਕਪਟਨ ਤੇ ਹੜੱਪਾ ਫੇਰੀ ਬਾਰੇ ਵੀ ਦੱਸਿਆ ਤੇ ਮੈਨੂੰ ਮਿਲਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ ਅਨੇਕਾਂ ਹੋਰ ਆਏ ਟੈਲੀਫੋਨਾਂ 'ਚ ਸ. ਗੁਰਪ੍ਰੀਤ ਸਿੰਘ ਤੂਰ ਐ¤ਸ. ਪੀ. ਸਿਟੀ ਜਲੰਧਰ ਨੇ ਵੀ ਮੇਰੇ ਛੱਪੇ ਲੇਖ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਮਿਲਣ ਲਈ ਕਿਹਾ ਤੇ ਮੈਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਮਿਲ ਕੇ ਬੜੀ ਤਸੱਲੀ ਹੋਈ ਕਿ ਸਾਹਿਤਕ ਰੂਚੀ ਰੱਖਣ ਵਾਲੇ ਪੁਲਿਸ ਵਿਭਾਗ ਵਿੱਚ ਵੀ ਮੌਜੂਦ ਹਨ। ਪੱਤਰਕਾਰ ਭਾਈਚਾਰੇ ਵਿੱਚੋਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਸਥਿਤ ਬੇਦੀ ਵੰਸ਼ 'ਚੋਂ ਬਾਬਾ ਮਿਲਾਪ ਦਾਸ ਜੀ ਦੀ ਅੰਸ ਤੇ ਅਜੀਤ ਦੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਸਥਿਤ ਪੱਤਰ ਪ੍ਰੇਰਕ ਸ. ਗੁਰਸ਼ਰਨ ਸਿੰਘ ਬੇਦੀ ਨੇ ਵੀ ਹੋਰ ਯਾਦਾਂ ਲਿਖਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਇਸ ਲਈ ਯਾਦਾਂ ਦੀ ਪਿਟਾਰੀ 'ਚੋਂ ਕੁਝ ਹੋਰ ਪਾਠਕਾਂ ਦੀ ਭੇਂਟ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ।
ਮੇਰੇ ਬਜ਼ੁਰਗ ਦੱਸਦੇ ਸਨ ਕਿ ਜਦੋਂ ਬਾਰਾਂ ਅਬਾਦ ਹੋਈਆਂ ਤਾਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਵਿੱਚ ਸਾਨੂੰ 90 ਰੁਪਏ ਵਿੱਚ 90 ਏਕੜ ਜ਼ਮੀਨ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਸੀ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਦੋ ਖੂਹ (ਤਰਖਾਣਾਂ ਵਾਲਾ ਤੇ ਕਾਲ ਵਾਲਾ) ਸਨ ਅਤੇ ਕੁਝ ਹਿੱਸੇ ਨੂੰ ਨਹਿਰੀ ਪਾਣੀ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਸੀ। ਇਹ ਹਿੱਸਾ ਨਗਰ ਦਾ ਸਾਡੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਅਰਾਈਂ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੇ ਨਿਵਾਸੀ ਖੇਤੀ ਵਿੱਚ ਸਹਿਯੋਗ ਦਿੰਦੇ ਸਨ। ਇਸ ਅਸਥਾਨ ਨੂੰ ਜਦੋਂ 1947 ਵਿੱਚ 14 ਅਗਸਤ ਨੂੰ ਛੱਡਣਾ ਪਿਆ ਤਾਂ ਕਣਕ ਢਾਈ ਰੁਪਏ ਮਣ ਸੀ, ਦੁੱਧ 5 ਪੈਸੇ ਦਾ ਸੇਰ ਤੇ ਖੰਡ ਇੱਕ ਰੁਪਏ ਦੀ 5 ਕਿੱਲੋ ਅਤੇ ਢਾਈ ਆਨੇ ਗਜ ਕੱਪੜੇ ਵਾਲੀਆਂ ਦੁਕਾਨਾਂ ਵੀ ਬਜ਼ਾਰ ਵਿੱਚ ਸਨ। ਸਰਕਾਰੀ ਡਿਸਪੈਂਸਰੀ ਵਿੱਚ ਇੱਕੋ ਇੱਕ ਡਾਕਟਰ ਹਰ ਮਰਜ਼ ਦੀ ਦਵਾਈ ਦਿੰਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਵਿੱਚ ਬਾਬਾ ਸੰਪੂਰਨ ਸਿੰਘ ਤੇ ਕੁਟੀਆ ਵਿੱਚ ਸੰਤ ਲਾਲ ਸਿੰਘ 5 ਪਤਾਸਿਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ ਵਿੱਚ ਅੰਮ੍ਰਿਤਧਾਰੇ ਦੀਆਂ ਬੂੰਦਾਂ ਮਿਲਾ ਕੇ ਖਾਣ ਨੂੰ ਦਿੰਦੇ ਸੀ, ਜਦੋਂਕਿ ਚੀਰ-ਫਾੜ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਫੋੜੇ ਨਾਈ ਠੀਕ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਸੀ। ਬਾਬਾ ਮਿਲਾਪ ਦਾਸ ਬੇਦੀ ਦੀ ਸਮਾਧ ਤੇ ਵਿਸਾਖੀ ਬੜੀ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਮਨਾਈ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਸਾਈਂ ਮਿਹਰ ਸ਼ਾਹ ਦੇ ਦਰਬਾਰ 'ਚੋਂ ਹਰ ਵੀਰਵਾਰ ਨੂੰ 5 ਕਲੰਦਰ (ਮਲੰਗ) ਪੈਰਾਂ ਵਿੱਚ ਘੁੰਗਰੂ ਬੰਨ੍ਹ ਕੇ 'ਦਮਾ ਦਮ ਮਸਤ ਕਲੰਦਰ' ਕਹਿੰਦੇ ਨਗਰ ਵਿੱਚ ਘੁੰਮਦੇ ਸਨ ਤੇ ਮਾਵਾਂ ਛੋਟੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਘਰ 'ਚ ਹੀ ਰਹਿਣ ਲਈ ਕਹਿੰਦੀਆਂ ਸਨ ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਡਰ ਨਾ ਜਾਣ।
ਮੈਨੂੰ ਯਾਦ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ 13 ਅਗਸਤ ਨੂੰ ਮੇਰੀ ਮਾਤਾ ਜੀ ਨੇ ਇੱਕ ਵਾਰੀ ਘਰ ਜਾਣ ਦੀ ਜਿੱਦ ਕੀਤੀ, ਤਾਂ ਲਾਲਾ ਭਗਵਾਨ ਦਾਸ ਦੇ ਡੇਰੇ ਤੋਂ ਜਿੱਥੇ ਸਾਰਾ ਸਿੱਖ ਭਾਈਚਾਰਾ ਤੇ ਕਾਫੀ ਹਿੰਦੂ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੇ ਲੋਕ ਇਕੱਠੇ ਸਨ, ਮੈਂ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਦੀ ਆਗਿਆਂ ਨਾਲ ਹਥਿਆਰ ਫੜੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਘਰ ਲੈ ਗਿਆ। ਇਸ ਬਾਰੇ ਜਦੋਂ ਚਰਚਾ ਹੋਈ ਤਾਂ ਸਾਡੀ ਜ਼ਮੀਨ 'ਤੇ ਖੇਤੀ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਕੁਝ ਅਰਾਈ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੀਆਂ ਇਸਤਰੀਆਂ ਵੀ ਸਾਨੂੰ ਮਿਲਣ ਆਈਆਂ ਤੇ ਸਾਡੀ ਮਾਤਾ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਘਰ ਦੀਆਂ ਚਾਬੀਆਂ ਫੜਾਂਦਿਆਂ ਕਿਹਾ, 'ਜੀਂਦੇ ਰਹੇ ਤਾਂ ਲੈ ਲਵਾਂਗੇ, ਹੁਣ ਇਹ ਸਭ ਕੁਝ ਤੁਹਾਡਾ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਡੇਰੇ 'ਚੋਂ ਪਸ਼ੂ ਖੋਲ੍ਹ ਲੈਣੇ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਦੇਖ ਭਾਲ ਕਰਨੀ।'' ਉਸ ਮੌਕੇ ਅਸੀਂ ਸਭ ਰੋਣ ਹੱਕੇ ਸੀ ਤੇ 5 ਮਿੰਟ ਪਿੱਛੋਂ ਹੀ ਅਸੀਂ ਮਾਂ-ਪੁੱਤਰ ਘਰ 'ਚੋਂ ਫਿਰ ਆਪਣੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਕੋਲ ਆ ਗਏ। ਸਾਰਾ ਬਜ਼ਾਰ ਬੰਦ ਪਿਆ ਸੀ ਤੇ ਰਾਹ ਵਿੱਚ ਟਾਵਾਂ-ਟਾਵਾਂ ਹੀ ਕੋਈ ਸਾਨੂੰ ਦਿਸਿਆ।
ਕਾਫੀ ਟੈਲੀਫੋਨ ਕਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਜਦੋਂ ਭਾਗਭਰੀ ਬਾਰੇ ਪੁੱਛਿਆ ਕਿ ਉਹ ਕੌਣ ਸੀ? ਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਕਿੱਥੇ ਦਫਨਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ?
ਤਾਂ ਆਪਣੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਮੁਤਾਬਕ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਜਦੋਂ ਸੱਯਦ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪੀਰੋ-ਮੁਰਸ਼ਦ ਬਾਬਾ ਮਖਦੂਮ ਨੇ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਇਹ ਕਹਿ ਕੇ ਭੇਜਿਆ ਕਿ ਉਥੇ ਗਾਇਕੀ ਦੇ ਕਦਰਦਾਨ ਮੌਜੂਦ ਹਨ, ਤਾਂ ਉਸ ਵੇਲੇ ਦੇ ਚੌਧਰੀ ਮਾਲਿਕ ਦੀ ਧੀ ਭਾਗਭਰੀ ਦੇ ਜਿੰਮੇ (ਹੁਣ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਦੀ ਮਸੀਤ ਵਜੋਂ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਹੋਈ ਮਸੀਤ) ਵਿਖੇ ਰੋਟੀ ਪਾਣੀ ਪਹੁੰਚਾਉਣ ਦੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਲੱਗੀ ਸੀ। ਜਿਸ ਦੌਰਾਨ ਹੋਏ ਪਿਆਰ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਹੀਰ ਦੀ ਰਚਨਾ ਹੋਈ ਤੇ ਉਹ ਰਾਂਝੇ ਤੋਂ ਵਾਰਿਸ ਦੀ ਹੋ ਗਈ -
ਕਤਰਾ ਮਿਲਾ ਸਮੁੰਦਰ ਸੇ, ਸਮੁੰਦਰ ਹੋ ਗਿਆ।
ਆਸ਼ਿਕ ਮਿਲਾ ਖੁਦਾ ਸੇ, ਤੋ ਕਲੰਦਰ ਹੋ ਗਿਆ।
ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਵਿਖੇ ਪਰਨਾਮੀਆਂ ਦੀ ਸਰ੍ਹਾਂ ਜਿੱਥੇ ਮੇਲੇ ਦੌਰਾਨ ਯਾਤਰੀ ਠਹਿਰਦੇ ਸਨ, ਵੰਡ ਤੋਂ ਕੁਝ ਸਮਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਰਾਧਾ ਸੁਆਮੀ ਸਤਿਸੰਗ ਹੋਇਆ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਕਈ ਦਿਨ ਸ੍ਰੀ ਬਾਬਾ ਸਾਵਣ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗੰ੍ਰਥ ਸਾਹਿਬ ਤੋਂ ਕਥਾ ਕੀਤੀ, ਜਿਸ ਪਿੱਛੋਂ ਨਗਰ ਦੇ ਡਾ. ਤੀਰਥ ਰਾਮ ਤੇ ਕਈ ਹੋਰਾਂ ਨੇ ਇਹ ਸਤਿਸੰਗ ਵਿਧੀ ਅਪਣਾਈ ਰੱਖੀ।
ਕੁਝ ਸੱਜਣਾਂ ਨੇ ਮੈਥੋਂ ਪੁੱਛ ਕੀਤੀ ਸੀ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤੋਂ ਕੀ ਲੈ ਕੇ ਆਏ ਸੀ ਤੇ ਬਾਕੀ ਜੋ ਉਥੇ ਰਹਿ ਗਏ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕੀ ਬਣਿਆ? ਤੇ ਮੇਰਾ ਉ¤ਤਰ ਸੀ ਕਿ ਅਸੀਂ ਆਪਣਾ ਧਰਮ ਬਚਾ ਕੇ ਲੈ ਆਏ ਤੇ ਜੋ ਰਹਿ ਗਏ (ਪਿੱਛੋਂ ਮਿਲੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਅਨੁਸਾਰ), ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਧਰਮ ਪਰਿਵਰਤਨ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ।
ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤੋਂ ਪੈਦਲ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਆਉਣ ਦੌਰਾਨ ਮੇਰੀ ਨਾਨੀ ਜੀ ਦੀ ਇੱਕ ਪੜਾਅ 'ਤੇ ਪੁੱਜ ਕੇ ਸਿਹਤ ਖਰਾਬ ਹੋ ਗਈ ਸੀ ਤਾਂ ਸਾਡੇ ਨਾਨਾਂ ਬਾਬਾ ਗੁਰਦਿੱਤ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਇੱਕ ਨਹਿਰ ਵਿੱਚ ਸੁੱਟ ਦੇਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਪਰ ਸਾਡੀ ਮਾਤਾ ਜੀ ਨਹੀਂ ਮੰਨੇ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਨਾਨੀ ਜੀ ਤੇ ਇੱਕ ਕੱਪੜਾ ਪਾ ਕੇ ਦਰੱਖਤਾਂ ਦੀ ਛਾਵੇਂ ਲਿਟਾ ਦਿੱਤਾ ਤੇ ਆਪ ਅਗਲੇ ਪੜਾਅ ਵੱਲ ਕਾਫਲੇ ਨਾਲ ਚੱਲ ਪਏ। ਉਸ ਰਾਤ ਅਸੀਂ ਫੌਜੀਆਂ ਨੂੰ ਮਿੰਨਤ ਕੀਤੀ ਕਿ ਟਰੱਕ ਵਿੱਚ ਜਾ ਕੇ ਨਾਨੀ ਜੀ ਨੂੰ ਲੈ ਆਓ, ਪਰ ਉਹ ਨਹੀਂ ਮੰਨੇ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਜਦੋਂ 15 ਅਗਸਤ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਫਿਰੋਜ਼ਪੁਰ ਪਹੁੰਚੇ ਤਾਂ ਉਥੇ ਲੱਗੇ ਕੈਂਪ ਵਿੱਚ ਸਾਡੇ ਨਾਨੀ ਜੀ ਬੈਠੇ ਮਿਲੇ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਕਾਫਲੇ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਇੱਕ ਗੱਡੇ ਵਾਲੇ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਚੁੱਕ ਕੇ ਗੱਡੇ ਵਿੱਚ ਪਾ ਲਿਆ ਤੇ ਇੱਥੇ ਲੈ ਆਏ। ਸਾਡੇ ਨਾਨੀ ਜੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਤੋਂ 2 ਦਹਾਕੇ ਪਿੱਛੋਂ ਜਲੰਧਰ ਵਿੱਚ ਸਵਰਗਵਾਸ ਹੋ ਗਏ ਸਨ।
ਨਕੋਦਰ ਦੇ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਨੈਸ਼ਨਲ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਦੋ ਸਾਲ ਪਹਿਲਾਂ ਭਾਰਤ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਕਬੱਡੀ ਟੀਮਾਂ ਦਾ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਮੈਚ ਹੋਇਆ। ਉਸ ਮੌਕੇ 'ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤੋਂ ਆਏ ਇੱਕ ਖਿਡਾਰੀ ਨੇ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਹੁਣ ਇਹ ਨਗਰ ਸਬ ਤਹਿਸੀਲ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ ਤੇ ਪਾਕਪਟਨ ਨੂੰ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ। ਹੁਣ ਉਥੇ ਬਿਜਲੀ ਵੀ ਹੈ ਤੇ ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਵੀ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਹੋਰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਭਾਰਤ ਤੋਂ ਗਈ ਕਬੱਡੀ ਟੀਮ ਵਿੱਚ ਜਿਸ ਨਕੋਦਰ ਦੇ ਡੀ. ਪੀ. ਈ. ਸ਼੍ਰੀ ਬਲਕਾਰ ਸਿੰਘ ਵੀ ਸਨ, ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਦੀ ਯਾਤਰਾ ਕਰਵਾਈ ਸੀ ਅਤੇ ਬਲਕਾਰ ਸਿੰਘ ਕੋਲ ਤਸਵੀਰਾਂ ਵੇਖ ਕੇ ਕਈ ਯਾਦਾਂ ਤਾਜ਼ਾ ਹੋ ਗਈਆਂ।
-ਗੁਰਦੀਪ ਸਿੰਘ ਪਾਪੀ
98144-20723
http://doabaheadlines.co.in/story/2332
ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਲੇਖਕ ਡਾ. ਜਗਤਾਰ ਦਾ ਜਲੰਧਰ ਤੋਂ ਫੋਨ ਆਇਆ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੇ ਸਫਰਨਾਮੇ ਸਬੰਧੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਲੈਣ ਲਈ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਗਏ ਸਨ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਸੱਯਦ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਜੀ ਦੀ ਉਹ ਮਸੀਤ ਵੇਖੀ ਸੀ, ਜਿਥੇ ਸਾਲ 1180 ਹਿੱਜਰੀ ਵਿੱਚ ਹੀਰ ਦੇ ਕਿੱਸੇ ਦੀ ਰਚਨਾ ਕੀਤੀ ਗਈ ਸੀ।
ਉਨ੍ਹਾਂ (ਡਾਕਟਰ ਜਗਤਾਰ ਨੇ) ਆਪਣੀ ਪਾਕਪਟਨ ਤੇ ਹੜੱਪਾ ਫੇਰੀ ਬਾਰੇ ਵੀ ਦੱਸਿਆ ਤੇ ਮੈਨੂੰ ਮਿਲਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ ਅਨੇਕਾਂ ਹੋਰ ਆਏ ਟੈਲੀਫੋਨਾਂ 'ਚ ਸ. ਗੁਰਪ੍ਰੀਤ ਸਿੰਘ ਤੂਰ ਐ¤ਸ. ਪੀ. ਸਿਟੀ ਜਲੰਧਰ ਨੇ ਵੀ ਮੇਰੇ ਛੱਪੇ ਲੇਖ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਮਿਲਣ ਲਈ ਕਿਹਾ ਤੇ ਮੈਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਮਿਲ ਕੇ ਬੜੀ ਤਸੱਲੀ ਹੋਈ ਕਿ ਸਾਹਿਤਕ ਰੂਚੀ ਰੱਖਣ ਵਾਲੇ ਪੁਲਿਸ ਵਿਭਾਗ ਵਿੱਚ ਵੀ ਮੌਜੂਦ ਹਨ। ਪੱਤਰਕਾਰ ਭਾਈਚਾਰੇ ਵਿੱਚੋਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਸਥਿਤ ਬੇਦੀ ਵੰਸ਼ 'ਚੋਂ ਬਾਬਾ ਮਿਲਾਪ ਦਾਸ ਜੀ ਦੀ ਅੰਸ ਤੇ ਅਜੀਤ ਦੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਸਥਿਤ ਪੱਤਰ ਪ੍ਰੇਰਕ ਸ. ਗੁਰਸ਼ਰਨ ਸਿੰਘ ਬੇਦੀ ਨੇ ਵੀ ਹੋਰ ਯਾਦਾਂ ਲਿਖਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਇਸ ਲਈ ਯਾਦਾਂ ਦੀ ਪਿਟਾਰੀ 'ਚੋਂ ਕੁਝ ਹੋਰ ਪਾਠਕਾਂ ਦੀ ਭੇਂਟ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ।
ਮੇਰੇ ਬਜ਼ੁਰਗ ਦੱਸਦੇ ਸਨ ਕਿ ਜਦੋਂ ਬਾਰਾਂ ਅਬਾਦ ਹੋਈਆਂ ਤਾਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਵਿੱਚ ਸਾਨੂੰ 90 ਰੁਪਏ ਵਿੱਚ 90 ਏਕੜ ਜ਼ਮੀਨ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਸੀ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਦੋ ਖੂਹ (ਤਰਖਾਣਾਂ ਵਾਲਾ ਤੇ ਕਾਲ ਵਾਲਾ) ਸਨ ਅਤੇ ਕੁਝ ਹਿੱਸੇ ਨੂੰ ਨਹਿਰੀ ਪਾਣੀ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਸੀ। ਇਹ ਹਿੱਸਾ ਨਗਰ ਦਾ ਸਾਡੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਅਰਾਈਂ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੇ ਨਿਵਾਸੀ ਖੇਤੀ ਵਿੱਚ ਸਹਿਯੋਗ ਦਿੰਦੇ ਸਨ। ਇਸ ਅਸਥਾਨ ਨੂੰ ਜਦੋਂ 1947 ਵਿੱਚ 14 ਅਗਸਤ ਨੂੰ ਛੱਡਣਾ ਪਿਆ ਤਾਂ ਕਣਕ ਢਾਈ ਰੁਪਏ ਮਣ ਸੀ, ਦੁੱਧ 5 ਪੈਸੇ ਦਾ ਸੇਰ ਤੇ ਖੰਡ ਇੱਕ ਰੁਪਏ ਦੀ 5 ਕਿੱਲੋ ਅਤੇ ਢਾਈ ਆਨੇ ਗਜ ਕੱਪੜੇ ਵਾਲੀਆਂ ਦੁਕਾਨਾਂ ਵੀ ਬਜ਼ਾਰ ਵਿੱਚ ਸਨ। ਸਰਕਾਰੀ ਡਿਸਪੈਂਸਰੀ ਵਿੱਚ ਇੱਕੋ ਇੱਕ ਡਾਕਟਰ ਹਰ ਮਰਜ਼ ਦੀ ਦਵਾਈ ਦਿੰਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਵਿੱਚ ਬਾਬਾ ਸੰਪੂਰਨ ਸਿੰਘ ਤੇ ਕੁਟੀਆ ਵਿੱਚ ਸੰਤ ਲਾਲ ਸਿੰਘ 5 ਪਤਾਸਿਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ ਵਿੱਚ ਅੰਮ੍ਰਿਤਧਾਰੇ ਦੀਆਂ ਬੂੰਦਾਂ ਮਿਲਾ ਕੇ ਖਾਣ ਨੂੰ ਦਿੰਦੇ ਸੀ, ਜਦੋਂਕਿ ਚੀਰ-ਫਾੜ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਫੋੜੇ ਨਾਈ ਠੀਕ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਸੀ। ਬਾਬਾ ਮਿਲਾਪ ਦਾਸ ਬੇਦੀ ਦੀ ਸਮਾਧ ਤੇ ਵਿਸਾਖੀ ਬੜੀ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਮਨਾਈ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਸਾਈਂ ਮਿਹਰ ਸ਼ਾਹ ਦੇ ਦਰਬਾਰ 'ਚੋਂ ਹਰ ਵੀਰਵਾਰ ਨੂੰ 5 ਕਲੰਦਰ (ਮਲੰਗ) ਪੈਰਾਂ ਵਿੱਚ ਘੁੰਗਰੂ ਬੰਨ੍ਹ ਕੇ 'ਦਮਾ ਦਮ ਮਸਤ ਕਲੰਦਰ' ਕਹਿੰਦੇ ਨਗਰ ਵਿੱਚ ਘੁੰਮਦੇ ਸਨ ਤੇ ਮਾਵਾਂ ਛੋਟੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਘਰ 'ਚ ਹੀ ਰਹਿਣ ਲਈ ਕਹਿੰਦੀਆਂ ਸਨ ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਡਰ ਨਾ ਜਾਣ।
ਮੈਨੂੰ ਯਾਦ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ 13 ਅਗਸਤ ਨੂੰ ਮੇਰੀ ਮਾਤਾ ਜੀ ਨੇ ਇੱਕ ਵਾਰੀ ਘਰ ਜਾਣ ਦੀ ਜਿੱਦ ਕੀਤੀ, ਤਾਂ ਲਾਲਾ ਭਗਵਾਨ ਦਾਸ ਦੇ ਡੇਰੇ ਤੋਂ ਜਿੱਥੇ ਸਾਰਾ ਸਿੱਖ ਭਾਈਚਾਰਾ ਤੇ ਕਾਫੀ ਹਿੰਦੂ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੇ ਲੋਕ ਇਕੱਠੇ ਸਨ, ਮੈਂ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਦੀ ਆਗਿਆਂ ਨਾਲ ਹਥਿਆਰ ਫੜੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਘਰ ਲੈ ਗਿਆ। ਇਸ ਬਾਰੇ ਜਦੋਂ ਚਰਚਾ ਹੋਈ ਤਾਂ ਸਾਡੀ ਜ਼ਮੀਨ 'ਤੇ ਖੇਤੀ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਕੁਝ ਅਰਾਈ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੀਆਂ ਇਸਤਰੀਆਂ ਵੀ ਸਾਨੂੰ ਮਿਲਣ ਆਈਆਂ ਤੇ ਸਾਡੀ ਮਾਤਾ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਘਰ ਦੀਆਂ ਚਾਬੀਆਂ ਫੜਾਂਦਿਆਂ ਕਿਹਾ, 'ਜੀਂਦੇ ਰਹੇ ਤਾਂ ਲੈ ਲਵਾਂਗੇ, ਹੁਣ ਇਹ ਸਭ ਕੁਝ ਤੁਹਾਡਾ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਡੇਰੇ 'ਚੋਂ ਪਸ਼ੂ ਖੋਲ੍ਹ ਲੈਣੇ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਦੇਖ ਭਾਲ ਕਰਨੀ।'' ਉਸ ਮੌਕੇ ਅਸੀਂ ਸਭ ਰੋਣ ਹੱਕੇ ਸੀ ਤੇ 5 ਮਿੰਟ ਪਿੱਛੋਂ ਹੀ ਅਸੀਂ ਮਾਂ-ਪੁੱਤਰ ਘਰ 'ਚੋਂ ਫਿਰ ਆਪਣੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਕੋਲ ਆ ਗਏ। ਸਾਰਾ ਬਜ਼ਾਰ ਬੰਦ ਪਿਆ ਸੀ ਤੇ ਰਾਹ ਵਿੱਚ ਟਾਵਾਂ-ਟਾਵਾਂ ਹੀ ਕੋਈ ਸਾਨੂੰ ਦਿਸਿਆ।
ਕਾਫੀ ਟੈਲੀਫੋਨ ਕਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਜਦੋਂ ਭਾਗਭਰੀ ਬਾਰੇ ਪੁੱਛਿਆ ਕਿ ਉਹ ਕੌਣ ਸੀ? ਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਕਿੱਥੇ ਦਫਨਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ?
ਤਾਂ ਆਪਣੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਮੁਤਾਬਕ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਜਦੋਂ ਸੱਯਦ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪੀਰੋ-ਮੁਰਸ਼ਦ ਬਾਬਾ ਮਖਦੂਮ ਨੇ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਇਹ ਕਹਿ ਕੇ ਭੇਜਿਆ ਕਿ ਉਥੇ ਗਾਇਕੀ ਦੇ ਕਦਰਦਾਨ ਮੌਜੂਦ ਹਨ, ਤਾਂ ਉਸ ਵੇਲੇ ਦੇ ਚੌਧਰੀ ਮਾਲਿਕ ਦੀ ਧੀ ਭਾਗਭਰੀ ਦੇ ਜਿੰਮੇ (ਹੁਣ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਦੀ ਮਸੀਤ ਵਜੋਂ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਹੋਈ ਮਸੀਤ) ਵਿਖੇ ਰੋਟੀ ਪਾਣੀ ਪਹੁੰਚਾਉਣ ਦੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਲੱਗੀ ਸੀ। ਜਿਸ ਦੌਰਾਨ ਹੋਏ ਪਿਆਰ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਹੀਰ ਦੀ ਰਚਨਾ ਹੋਈ ਤੇ ਉਹ ਰਾਂਝੇ ਤੋਂ ਵਾਰਿਸ ਦੀ ਹੋ ਗਈ -
ਕਤਰਾ ਮਿਲਾ ਸਮੁੰਦਰ ਸੇ, ਸਮੁੰਦਰ ਹੋ ਗਿਆ।
ਆਸ਼ਿਕ ਮਿਲਾ ਖੁਦਾ ਸੇ, ਤੋ ਕਲੰਦਰ ਹੋ ਗਿਆ।
ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਵਿਖੇ ਪਰਨਾਮੀਆਂ ਦੀ ਸਰ੍ਹਾਂ ਜਿੱਥੇ ਮੇਲੇ ਦੌਰਾਨ ਯਾਤਰੀ ਠਹਿਰਦੇ ਸਨ, ਵੰਡ ਤੋਂ ਕੁਝ ਸਮਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਰਾਧਾ ਸੁਆਮੀ ਸਤਿਸੰਗ ਹੋਇਆ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਕਈ ਦਿਨ ਸ੍ਰੀ ਬਾਬਾ ਸਾਵਣ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗੰ੍ਰਥ ਸਾਹਿਬ ਤੋਂ ਕਥਾ ਕੀਤੀ, ਜਿਸ ਪਿੱਛੋਂ ਨਗਰ ਦੇ ਡਾ. ਤੀਰਥ ਰਾਮ ਤੇ ਕਈ ਹੋਰਾਂ ਨੇ ਇਹ ਸਤਿਸੰਗ ਵਿਧੀ ਅਪਣਾਈ ਰੱਖੀ।
ਕੁਝ ਸੱਜਣਾਂ ਨੇ ਮੈਥੋਂ ਪੁੱਛ ਕੀਤੀ ਸੀ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤੋਂ ਕੀ ਲੈ ਕੇ ਆਏ ਸੀ ਤੇ ਬਾਕੀ ਜੋ ਉਥੇ ਰਹਿ ਗਏ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕੀ ਬਣਿਆ? ਤੇ ਮੇਰਾ ਉ¤ਤਰ ਸੀ ਕਿ ਅਸੀਂ ਆਪਣਾ ਧਰਮ ਬਚਾ ਕੇ ਲੈ ਆਏ ਤੇ ਜੋ ਰਹਿ ਗਏ (ਪਿੱਛੋਂ ਮਿਲੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਅਨੁਸਾਰ), ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਧਰਮ ਪਰਿਵਰਤਨ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ।
ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤੋਂ ਪੈਦਲ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਆਉਣ ਦੌਰਾਨ ਮੇਰੀ ਨਾਨੀ ਜੀ ਦੀ ਇੱਕ ਪੜਾਅ 'ਤੇ ਪੁੱਜ ਕੇ ਸਿਹਤ ਖਰਾਬ ਹੋ ਗਈ ਸੀ ਤਾਂ ਸਾਡੇ ਨਾਨਾਂ ਬਾਬਾ ਗੁਰਦਿੱਤ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਇੱਕ ਨਹਿਰ ਵਿੱਚ ਸੁੱਟ ਦੇਣ ਲਈ ਕਿਹਾ। ਪਰ ਸਾਡੀ ਮਾਤਾ ਜੀ ਨਹੀਂ ਮੰਨੇ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਨਾਨੀ ਜੀ ਤੇ ਇੱਕ ਕੱਪੜਾ ਪਾ ਕੇ ਦਰੱਖਤਾਂ ਦੀ ਛਾਵੇਂ ਲਿਟਾ ਦਿੱਤਾ ਤੇ ਆਪ ਅਗਲੇ ਪੜਾਅ ਵੱਲ ਕਾਫਲੇ ਨਾਲ ਚੱਲ ਪਏ। ਉਸ ਰਾਤ ਅਸੀਂ ਫੌਜੀਆਂ ਨੂੰ ਮਿੰਨਤ ਕੀਤੀ ਕਿ ਟਰੱਕ ਵਿੱਚ ਜਾ ਕੇ ਨਾਨੀ ਜੀ ਨੂੰ ਲੈ ਆਓ, ਪਰ ਉਹ ਨਹੀਂ ਮੰਨੇ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਜਦੋਂ 15 ਅਗਸਤ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਫਿਰੋਜ਼ਪੁਰ ਪਹੁੰਚੇ ਤਾਂ ਉਥੇ ਲੱਗੇ ਕੈਂਪ ਵਿੱਚ ਸਾਡੇ ਨਾਨੀ ਜੀ ਬੈਠੇ ਮਿਲੇ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਕਾਫਲੇ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਇੱਕ ਗੱਡੇ ਵਾਲੇ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਚੁੱਕ ਕੇ ਗੱਡੇ ਵਿੱਚ ਪਾ ਲਿਆ ਤੇ ਇੱਥੇ ਲੈ ਆਏ। ਸਾਡੇ ਨਾਨੀ ਜੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਤੋਂ 2 ਦਹਾਕੇ ਪਿੱਛੋਂ ਜਲੰਧਰ ਵਿੱਚ ਸਵਰਗਵਾਸ ਹੋ ਗਏ ਸਨ।
ਨਕੋਦਰ ਦੇ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਨੈਸ਼ਨਲ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਦੋ ਸਾਲ ਪਹਿਲਾਂ ਭਾਰਤ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਕਬੱਡੀ ਟੀਮਾਂ ਦਾ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਮੈਚ ਹੋਇਆ। ਉਸ ਮੌਕੇ 'ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਤੋਂ ਆਏ ਇੱਕ ਖਿਡਾਰੀ ਨੇ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਹੁਣ ਇਹ ਨਗਰ ਸਬ ਤਹਿਸੀਲ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ ਤੇ ਪਾਕਪਟਨ ਨੂੰ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ। ਹੁਣ ਉਥੇ ਬਿਜਲੀ ਵੀ ਹੈ ਤੇ ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਵੀ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਹੋਰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਭਾਰਤ ਤੋਂ ਗਈ ਕਬੱਡੀ ਟੀਮ ਵਿੱਚ ਜਿਸ ਨਕੋਦਰ ਦੇ ਡੀ. ਪੀ. ਈ. ਸ਼੍ਰੀ ਬਲਕਾਰ ਸਿੰਘ ਵੀ ਸਨ, ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਮਲਕਾ ਹਾਂਸ ਦੀ ਯਾਤਰਾ ਕਰਵਾਈ ਸੀ ਅਤੇ ਬਲਕਾਰ ਸਿੰਘ ਕੋਲ ਤਸਵੀਰਾਂ ਵੇਖ ਕੇ ਕਈ ਯਾਦਾਂ ਤਾਜ਼ਾ ਹੋ ਗਈਆਂ।
-ਗੁਰਦੀਪ ਸਿੰਘ ਪਾਪੀ
98144-20723
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D.A.V. School Fazilka :: Principal Sarwan Singh Autobiography || 08 :: ਹਸੰਦਿਆਂ ਖੇਲੰਦਿਆਂ - ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ ਦੀ ਸਵੈ-ਜੀਵਨੀ :: ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ
08 :: ਹਸੰਦਿਆਂ ਖੇਲੰਦਿਆਂ - ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ ਦੀ ਸਵੈ-ਜੀਵਨੀ :: ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ
ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ `ਚੋਂ ਹਟ ਕੇ ਸੱਤਵੀਂ `ਚ ਮੈਂ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਨ ਜਾ ਲੱਗਾ। ਮੇਰੀ ਭੂਆ ਸੁਜਾਨ ਕੌਰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਕੋਲ ਪਿੰਡ ਕੋਠੇ ਵਿਆਹੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਨਾ ਉਹਦੇ ਸੱਸ ਸਹੁਰਾ ਸਨ ਤੇ ਨਾ ਕੋਈ ਦਰਾਣੀ ਜਠਾਣੀ ਸੀ। ਵੱਡੇ ਘਰ `ਚ ਉਹਦਾ `ਕੱਲੀ ਦਾ ਜੀਅ ਨਹੀਂ ਸੀ ਲੱਗਦਾ ਤੇ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੋਲ ਪੜ੍ਹਨ ਲਈ ਕਹਿੰਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ। ਕਹਿੰਦੀ ਸੀ ਕਿ ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਪੜ੍ਹਾਈ ਪਿੰਡਾਂ ਨਾਲੋਂ ਚੰਗੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਬੱਤੇ ਪੀਣ ਦਾ ਵੀ ਲਾਲਚ ਦਿੰਦੀ ਸੀ। ਫੁੱਫੜ ਹੀਰਾ ਸਿੰਘ ਵੀ ਕਹਿ ਚੁੱਕਾ ਸੀ ਕਿ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਤਾਂ ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬੀ.ਏ.ਤਕ ਪੜ੍ਹੀ ਚੱਲਾਂ। ਘਰ ਤੋਂ ਕਾਲਜ ਮਸਾਂ ਤਿੰਨ ਮੀਲ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਮਾਮੀਆਂ, ਮਾਸੀਆਂ ਤੇ ਭੂਆਂ ਕੋਲ ਰਹਿ ਕੇ ਪੜ੍ਹਨਾ ਆਮ ਗੱਲ ਸੀ।
ਛੇਵੀਂ ਪਾਸ ਕਰਨ ਪਿੱਛੋਂ ਮੈਂ ਮੱਲ੍ਹੇ ਤੋਂ ਸਰਟੀਫਿਕੇਟ ਕਟਾ ਲਿਆ। ਗਰਮੀ ਦੀ ਰੁੱਤ ਸੀ। ਬਾਬੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਵੱਡੇ ਤੜਕੇ ਜਗਾਇਆ ਤੇ ਅੱਖਾਂ ਮਲਦੇ ਨੂੰ ਬੇਬੇ ਨੇ ਨਵੇਂ ਕਪੜੇ ਪੁਆਏ। ਪਰਾਉਂਠਾ ਤਾਂ ਮੈਥੋਂ ਖਾਧਾ ਨਾ ਗਿਆ ਪਰ ਦਹੀਂ ਦੀ ਕੌਲੀ ਮੈਨੂੰ ਨਾਂਹ ਨਾਂਹ ਕਰਦੇ ਨੂੰ ਵੀ ਪਿਆ ਦਿੱਤੀ। ਕਹਿੰਦੇ ਸਫ਼ਰ `ਤੇ ਜਾਣ ਲੱਗਿਆਂ ਦਹੀਂ ਦਾ ਘੁੱਟ ਭਰਨਾ ਚੰਗਾ ਹੁੰਦੈ। ਪਰਾਉਂਠੇ ਮੇਰੇ ਲੜ ਬੰਨ੍ਹ ਦਿੱਤੇ। ਬੇਬੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਬੁਕਲ `ਚ ਲੈ ਕੇ ਪਿਆਰ ਦਿੱਤਾ। ਪੁੱਤਰ ਦੇ ਵਿਛੜਨ ਨਾਲ ਉਹਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਸਿੰਮ ਆਈਆਂ ਸਨ। ਮੈਂ ਸੌ ਮੀਲ ਦੂਰ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਬਾਰਡਰ ਕੋਲ ਚੱਲਿਆ ਸਾਂ। ਰਾਤ ਦੇ ਹਨ੍ਹੇਰੇ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਪੈਦਲ ਚੱਲਦੇ ਗਏ। ਅੰਬਰ `ਚ ਤਾਰੇ ਟਹਿਕ ਰਹੇ ਸਨ ਤੇ ਪੁਰੇ ਦੀ ਠੰਢੀ `ਵਾ ਵਗ ਰਹੀ ਸੀ। ਚੌਦਾਂ ਮੀਲ ਤੁਰ ਕੇ ਜਗਰਾਓਂ ਤੋਂ ਸੱਤ ਵਜੇ ਵਾਲੀ ਰੇਲ ਗੱਡੀ ਫੜਨੀ ਸੀ ਜਿਹੜੀ ਸਿੱਧੀ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਬਾਬਾ ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ਚੜ੍ਹਾਉਣ ਚੱਲਿਆ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ਚੜ੍ਹਾ ਕੇ ਉਹਨੇ ਤੁਰ ਕੇ ਈ ਵਾਪਸ ਆਉਣਾ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਬੰਦੇ ਜਗਰਾਓਂ ਤੁਰ ਕੇ ਈ ਜਾਂਦੇ ਸਨ। ਕਈ ਸਿਰ `ਤੇ ਦਾਣੇ ਜਾਂ ਕਪਾਹ ਦੀ ਗੱਠੜੀ ਵੀ ਰੱਖ ਕੇ ਲੈ ਜਾਂਦੇ। ਬਾਬਾ ਤਾਂ ਇੱਕ ਵਾਰ ਤੁਰ ਕੇ ਪੰਜਾਹ ਕੋਹ ਦੂਰ ਬਠਿੰਡੇ ਤੋਂ ਗੱਡੀ ਜਾ ਚੜ੍ਹਿਆ ਸੀ।
ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਮੂਹਰ ਦੀ ਲੰਘਣ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਸਕੂਲ ਦਾ ਮੋਹ ਆ ਗਿਆ ਤੇ ਮੇਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਦੀਆਂ ਕੋਰਾਂ ਭਰ ਆਈਆਂ। ਮੈਂ ਭਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਨਾਲ ਸਕੂਲ ਨੂੰ ਅਲਵਿਦਾ ਕਹੀ। ਮੈਨੂੰ ਮੇਰੇ ਆੜੀ ਯਾਦ ਆਉਣ ਲੱਗੇ। ਫਿਰ ਅਸੀਂ ਡੱਲੇ ਦੀ ਦੈੜ ਚੜ੍ਹੇ ਤੇ ਨਹਿਰ ਦਾ ਪੁਲ ਲੰਘੇ। ਨਹਿਰ ਦੀਆਂ ਧਾਰਾਂ ਸ਼ਾਂ ਸ਼ਾਂ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਪੰਛੀ ਚਹਿਕਣ ਲੱਗ ਪਏ ਸਨ। ਪੂਰਬ ਵਿੱਚ ਪਹੁ ਫੁੱਟ ਰਹੀ ਸੀ ਤੇ ਨਿੰਮ੍ਹਾ ਨਿੰਮ੍ਹਾ ਚਾਨਣ ਪਸਰ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਬਾਬਾ ਮੂਹਰੇ ਸੀ ਤੇ ਮੈਂ ਮਗਰ ਸਾਂ। ਜਦੋਂ ਵਿੱਥ ਪੈ ਜਾਂਦੀ ਤਾਂ ਬਾਬਾ `ਵਾਜ਼ ਮਾਰਦਾ ਤੇ ਮੈਂ ਭੱਜ ਕੇ ਨਾਲ ਜਾ ਰਲਦਾ।
ਜਗਰਾਓਂ ਵੜਦਿਆਂ ਨੂੰ ਇੱਕ ਹਲਟੀ ਆਉਂਦੀ ਸੀ ਜਿਥੇ ਅਸੀਂ ਪਾਣੀ ਪੀਤਾ ਤੇ ਪਰਾਉਂਠੇ ਖਾਧੇ। ਫਿਰ ਰੇਲਵੇ ਸਟੇਸ਼ਨ ਉਤੇ ਪਹੁੰਚ ਕੇ ਬਾਬੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੀ ਅੱਧੀ ਟਿਕਟ ਲੈ ਦਿੱਤੀ ਜੋ ਮੇਰੇ ਕੱਦ ਕਾਠ ਮੁਤਾਬਿਕ ਠੀਕ ਸੀ। ਗੱਡੀ ਆਈ ਤਾਂ ਬਾਬੇ ਨੇ ਮੇਰਾ ਸਿਰ ਪਲੋਸਿਆ ਤੇ 'ਤਕੜਾ ਹੋ ਕੇ ਪੜ੍ਹੀਂ' ਕਹਿੰਦਿਆਂ ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ਵਿੱਚ ਬਿਠਾ ਦਿੱਤਾ। ਇੱਕ ਵਾਰ ਪਹਿਲਾਂ ਵੀ ਮੈਂ ਭੂਆ ਨਾਲ ਗੱਡੀ ਉਤੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜਾ ਆਇਆ ਸਾਂ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਇਹ ਸਫ਼ਰ ਮੇਰੇ ਲਈ ਅਸਲੋਂ ਨਵਾਂ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਰਸਤੇ ਦੇ ਸਟੇਸ਼ਨਾਂ ਦਾ ਮਾੜਾ ਮੋਟਾ ਅੰਦਾਜ਼ਾ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ। ਨਾਲੇ ਗੱਡੀ ਨੇ ਫਿਰੋਜ਼ਪੁਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਬਦਲਣਾ ਤੇ ਸਿੱਧੀ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜਾ ਕੇ ਖੜ੍ਹਨਾ ਸੀ। ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਤੋਂ ਕੋਠੇ ਜਾਣ ਦਾ ਰਾਹ ਵੀ ਮੈਂ ਵੇਖਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਬੱਸ ਮਾਪਿਆਂ ਤੋਂ ਵਿਛੜਨ ਦੀ ਹੀ ਉਦਾਸੀ ਸੀ ਬਾਕੀ ਸਭ ਠੀਕ ਸੀ।
ਕੋਠਾ ਲੁਕਮਾਨਪੁਰ ਛੋਟਾ ਜਿਹਾ ਪਿੰਡ ਹੈ। ਉਦੋਂ ਸੱਤ ਅੱਠ ਘਰ ਜੱਟ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਸਨ, ਏਨੇ ਕੁ ਕੰਬੋਆਂ ਦੇ ਸਨ ਤੇ ਵੀਹ ਪੱਚੀ ਘਰ ਰਾਇ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਸਨ। ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਪੰਜ ਪਿੱਪਲ ਸਨ ਤੇ ਬਾਰਡਰ ਦਾ ਪਿੰਡ ਹੋਣ ਕਾਰਨ ਪੰਜ ਜਣਿਆਂ ਨੂੰ ਪੰਜ ਪੱਕੀਆਂ ਰਫਲਾਂ ਮਿਲੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਸਨ। ਗਿਆਰਾਂ ਗੋਲੀ ਦੀ ਰਫਲ ਮੇਰੇ ਫੁੱਫੜ ਨੂੰ ਵੀ ਮਿਲੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਜਦੋਂ ਉਸ ਨੇ ਕਿਤੇ ਲਾਂਭੇ ਜਾਣਾ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਭੂਆ ਮੈਨੂੰ ਰਫਲ ਨਾਲ ਕੋਠੇ `ਤੇ ਸੁਆਉਂਦੀ। ਮੈਂ ਭਾਵੇਂ ਉਦੋਂ ਰਫਲ ਕੁ ਜਿੱਡਾ ਹੀ ਸਾਂ ਪਰ ਪੱਕੀ ਬੰਦੂਕ ਚਲਾਉਣੀ ਸਿੱਖ ਗਿਆ ਸਾਂ। ਮੈਂ ਗਿਆਰਾਂ ਗੋਲੀਆਂ ਮੈਗਜ਼ੀਨ `ਚ ਪਾਉਂਦਾ, ਮੈਗਜ਼ੀਨ ਬੰਦੂਕ `ਚ ਫਿੱਟ ਕਰਦਾ ਤੇ ਲਾਕ ਕਰ ਕੇ ਦਰੀ ਦੇ ਹੇਠਾਂ ਮੰਜੇ ਦੀ ਬਾਹੀ ਨਾਲ ਪਾ ਲੈਂਦਾ। ਬਾਂਸ ਦੀ ਪੌੜੀ ਮੈਂ ਕੋਠੇ ਉਤੇ ਖਿੱਚ ਲੈਂਦਾ ਤਾਂ ਕਿ ਕੋਈ ਬੰਦੂਕ ਨੂੰ ਨਾ ਆ ਪਏ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਕੜੇ ਵਿੱਚ ਦੀ ਬੰਦੂਕ ਦੀ ਬੈਲਟ ਲੰਘਾ ਲੈਂਦਾ ਬਈ ਜਦੋਂ ਕੋਈ ਬੰਦੂਕ ਖਿੱਚੇ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਜਾਗ ਆ ਜਾਵੇ!
ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦਾ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਤੇ ਐੱਮ.ਆਰ.ਕਾਲਜ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਛਿਪਦੇ ਪਾਸੇ ਹਨ। ਉਧਰ ਹੀ ਰਠੌਰਾਂ ਦਾ ਮਹੱਲਾ ਹੈ। ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਚੁੰਗੀ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਸਕੂਲ ਤਕ ਪੱਕੀ ਸੜਕ ਉਤੇ ਰਠੌੜ ਮੁੰਜ ਕੁੱਟਦੇ ਤੇ ਵਾਣ ਵੱਟਦੇ ਸਨ। ਹੁਣ ਵੀ ਜੇ ਮੈਂ ਬਾਲੋ ਮਾਹੀਆ ਸੁਣਾਂ-ਤੁਸੀਂ ਵਾਣ ਵਟੇਂਦੇ ਓ, ਓਨੇ ਤੁਸੀਂ ਸੋਹਣੇ ਨਹੀਂ ਜਿੰਨਾ ਮਾਣ ਕਰੇਂਦੇ ਓ … ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਕੋਲ ਵਾਣ ਵੱਟਦੇ ਰਠੌੜ ਦਿਸਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ ਹਨ।
ਕੋਠੇ ਤੋਂ ਸਕੂਲ ਆਉਣ ਲਈ ਮੇਰੇ ਦੋ ਰਾਹ ਸਨ। ਇੱਕ ਡੰਡੀ ਪੈ ਕੇ ਪਿੰਡ ਆਵੇ ਵਿੱਚ ਦੀ ਸਿੱਧਾ ਰਾਹ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜਾ ਕੁੱਝ ਵਿੰਗ ਪਾ ਕੇ ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਸੜਕ ਉਪਰ ਦੀ ਸੀ। ਉਸ ਸੜਕ ਦੇ ਵੱਡੇ ਸਫੈਦ ਮੀਲ ਪੱਥਰ ਉਤੇ ਮੁਲਤਾਨ, ਮਿੰਟਗੁਮਰੀ, ਪਾਕਪਟਨ ਤੇ ਹੈੱਡ ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਦੀ ਦੂਰੀ ਮੀਲਾਂ ਵਿੱਚ ਲਿਖੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਉਰਦੂ ਦੇ ਅੱਖਰ ਮੇਟੇ ਨਹੀਂ ਸਨ ਗਏ। ਪਾਕਪਟਨ ਪੱਚੀ ਮੀਲ ਸੀ ਤੇ ਮਿੰਟਗੁਮਰੀ ਸਤ੍ਹਾਟ ਮੀਲ। ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਹਿਸਾਰ ਤੇ ਦਿੱਲੀ ਦੀ ਦੂਰੀ ਲਿਖੀ ਹੋਈ ਸੀ।
ਮੈਂ ਬਾਰ੍ਹਵੇਂ ਤੋਂ ਪੰਦਰਵੇਂ ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਤਕ ਤਿੰਨ ਜਮਾਤਾਂ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਲਵੀ ਉਮਰ ਸੀ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ ਇਲਾਕੇ `ਚ ਬੋਲੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਪੰਜਾਬੀ ਦੀਆਂ ਉਪ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਦਾ ਮੇਰੇ ਉਤੇ ਕਾਫੀ ਪ੍ਰਭਾਵ ਪਿਆ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਪੰਜਾਬੀ ਦੇ ਲਫ਼ਜ਼ਾਂ ਤੇ ਲਹਿਜ਼ਿਆਂ ਦਾ ਅਧਿਐਨ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦਾ ਖੇਤਰ ਬੜਾ ਢੁੱਕਵਾਂ ਹੈ। ਉਥੇ ਆਰ ਪਾਰ ਦੇ ਰਾਏ ਸਿੱਖ, ਕੰਬੋਅ, ਰਾਠੌੜ, ਬਾਗੜੀਏ, ਧਾਣਕੇ, ਉੱਨ ਮੰਡੀ ਦੇ ਬਾਣੀਏਂ, ਬਹਾਵਲਪੁਰ ਤੇ ਮੁਲਤਾਨ ਦੇ ਰਫਿਊਜ਼ੀ, ਮਾਝੇ ਮਾਲਵੇ ਦੇ ਜੱਟ ਤੇ ਦੁਆਬੇ ਦੇ ਨੌਕਰੀ ਪੇਸ਼ਾ ਬੰਦੇ ਭਾਂਤ ਸੁਭਾਂਤੇ ਬੋਲ ਬੋਲਦੇ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਇਕੋ ਜਮਾਤ ਦੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਇਕੋ ਲਫ਼ਜ਼ ਵੱਖਰੇ ਲਹਿਜ਼ਿਆਂ `ਚ ਬੋਲਦੇ ਸਨ। ਮੇਰਾ ਠੇਠ ਮਲਵਈ ਲਹਿਜ਼ਾ ਕਈਆਂ ਦੇ ਹਾਸੇ ਦਾ ਕਾਰਨ ਬਣਦਾ ਸੀ। ਕਿਸੇ ਰਿਸਰਚ ਸਕਾਲਰ ਨੂੰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ 'ਲਿੰਗੂਆ ਫਰਾਂਕਾ' ਵਿਸ਼ੇ ਉਤੇ ਪੀ ਐੱਚ.ਡੀ.ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ।
ਸਾਡੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੀ ਦਾ ਬੋਲਬਾਲਾ ਸੀ। ਦੋ ਤਿੰਨ ਮਾਸਟਰ ਹੀ ਪੰਜਾਬੀ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਾਉਂਦੇ ਸਨ। ਕਦੇ ਕਦੇ ਹਵਨ ਵੀ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਖੇਡਾਂ ਤੇ ਕਸਰਤਾਂ ਕਰਾਉਣ ਦਾ ਮੱਲ੍ਹੇ ਵਰਗਾ ਮਾਹੌਲ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਸਿਰਫ ਵਾਲੀਬਾਲ ਦਾ ਨੈੱਟ ਲੱਗਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ਜਿਥੇ ਅਸੀਂ ਸਕੂਲ ਲੱਗਣ ਤੋਂ ਅੱਗੋਂ ਜਾਂ ਪਿੱਛੋਂ ਖੇਡਦੇ। ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਰੇਤਲਾ ਮੈਦਾਨ ਸੀ ਜਿਥੇ ਪੇਂਡੂ ਮੁੰਡੇ ਕਬੱਡੀ ਖੇਡਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਹਾਣੀਆਂ ਨਾਲ ਘੁਲ ਲੈਂਦਾ ਸਾਂ ਤੇ ਮਥਰਾ ਦਾਸ ਨਾਂ ਦਾ ਮੁੰਡਾ ਮੈਨੂੰ ਕਦੇ ਕਦੇ ਢਾਹ ਵੀ ਲੈਂਦਾ ਸੀ। ਲਾਲਿਆਂ ਦੇ ਮੁੰਡੇ ਤੋਂ ਢਹਿ ਜਾਣ ਕਾਰਨ ਮੈਨੂੰ ਜੱਟਾਂ ਦੇ ਮੁੰਡਿਆਂ ਕੋਲੋਂ ਮਖੌਲ ਸੁਣਨੇ ਪੈਂਦੇ। ਅਖ਼ੀਰ ਮੈਂ ਮਥਰਾ ਦਾਸ ਨੂੰ ਹਰ ਵਾਰ ਢਾਹ ਕੇ ਈ ਮਖੌਲਾਂ ਤੋਂ ਬਚਦਾ।
ਮੈਂ ਬੰਟੇ ਵੀ ਖੇਡਦਾ ਸਾਂ ਤੇ ਕੌਡੀਆਂ ਵੀ। ਮੇਰੀ ਖਾਕੀ ਨੀਕਰ ਦੀ ਜੇਬ ਬੰਟੇ ਤੇ ਕੌਡੀਆਂ ਨਾਲ ਭਰੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ। ਇੱਕ ਵਾਰ ਬਾਬਾ ਮੈਨੂੰ ਸਕੂਲ ਮਿਲਣ ਆਇਆ। ਉਹ ਦਫਤਰ ਕੋਲ ਖੜ੍ਹਾ ਮੈਨੂੰ ਜਮਾਤ `ਚੋਂ ਹੀ ਦਿੱਸ ਗਿਆ। ਮੇਰੀ ਜੇਬ ਬੰਟਿਆਂ ਨਾਲ ਭਰੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਬਾਬੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗ ਜਾਂਦਾ ਤਾਂ ਮੇਰੀ ਸ਼ਾਮਤ ਆ ਜਾਣੀ ਸੀ। ਮੈਂ ਚੁੱਪ ਚਾਪ ਜਮਾਤ `ਚੋਂ ਖਿਸਕਿਆ ਤੇ ਨਾਲ ਲੱਗਦੇ ਖੇਤ `ਚ ਬੰਟੇ ਲੁਕੋ ਆਇਆ। ਮੁੜ ਕੇ ਉਹ ਲੱਭੇ ਈ ਨਾ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਮੈਨੂੰ ਕਾਫੀ ਦੇਰ ਪਛਤਾਵਾ ਰਿਹਾ। ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਨਿਸ਼ਾਨੀ ਰੱਖਣੀ ਭੁੱਲ ਗਿਆ ਸਾਂ।
ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਜਮਾਤ ਚੜ੍ਹਦਾ ਤਾਂ ਘੰਟਾ ਘਰ ਨੇੜਲੀ ਦੁਕਾਨ ਤੋਂ ਨਵੀਆਂ ਕਿਤਾਬਾਂ ਖਰੀਦਦਾ। ਪੰਜਾਬੀ ਦੀ ਕਿਤਾਬ `ਚੋਂ ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮੈਂ ਕਵਿਤਾਵਾਂ ਪੜ੍ਹਦਾ ਤੇ ਜ਼ਬਾਨੀ ਯਾਦ ਕਰ ਲੈਂਦਾ। ਉਹੀ ਕਵਿਤਾਵਾਂ ਮੈਂ ਬਾਲ ਸਭਾ `ਚ ਸੁਣਾਉਂਦਾ। ਮੇਰਾ ਹੋਰਨਾਂ ਮੂਹਰੇ ਖੜ੍ਹ ਕੇ ਬੋਲਣ ਦਾ ਝਾਕਾ ਨਿੱਕੇ ਹੁੰਦੇ ਦਾ ਹੀ ਖੁੱਲ੍ਹ ਗਿਆ ਸੀ। ਮੈਂ ਚਕਰ ਦੇ ਜਲੂਸ ਯਾਨੀ ਨਗਰ ਕੀਰਤਨ ਦੇ ਪੜਾਵਾਂ ਉਤੇ ਕਵੀਸ਼ਰੀ ਸੁਣਾਉਣ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸਾਂ। ਇੱਕ ਕਵੀਸ਼ਰੀ ਦੇ ਹਰੇਕ ਬੰਦ ਦੀ ਅਖ਼ੀਰਲੀ ਸਤਰ ਹੁੰਦੀ ਸੀ-ਪਟਨੇ `ਚ ਚੜ੍ਹਿਆ ਸੱਚ ਦਾ ਚੰਦਰਮਾ ਆਸ਼ਕ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦਾ। ਮੈਂ ਭਾਨੀਮਾਰਾਂ ਦੀ ਕਰਤੂਤ ਵੀ ਸੁਣਾਉਂਦਾ ਸਾਂ ਅਤੇ ਚਾਹ ਤੇ ਲੱਸੀ ਦਾ ਝਗੜਾ ਵੀ ਛੇੜ ਲੈਦਾ ਸਾਂ।
ਉਦੋਂ ਮੈਂ ਚੌਥੀ `ਚ ਪੜ੍ਹਦਾ ਸਾਂ ਜਦੋਂ ਬਾਬੇ ਨਾਲ ਰਾਏਕੋਟ ਵੰਨੀ ਜੰਨ ਗਿਆ ਸਾਂ। ਪਿੰਡ ਦਾ ਨਾਂ ਗੋਂਦਵਾਲ ਸੀ। ਉਥੇ ਕੁੜੀਆਂ ਨੇ ਜੰਨ ਬੰਨ੍ਹ ਦਿੱਤੀ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਮੂਹਰੇ ਥਾਲੀਆਂ ਵਿੱਚ ਲੱਡੂ ਪਏ ਸਨ ਪਰ ਬਾਬਾ ਮੈਨੂੰ ਖਾਣ ਨਹੀਂ ਸੀ ਦਿੰਦਾ। ਕਹਿੰਦਾ ਸੀ, "ਜੰਨ ਬੰਨ੍ਹੀ ਹੋਈ ਐ। ਪਹਿਲਾਂ ਕੋਈ ਜੰਨ ਛੁਡਾਊ ਫੇਰ ਖਾਵਾਂਗੇ।" ਪਰ ਜੰਨ ਛੁਡਾਉਣ ਵਾਲਾ ਕੋਈ ਜਾਨੀ ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਅਖ਼ੀਰ ਜਾਨੀਆਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਈ ਖੜ੍ਹਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ।
ਮੈਂ ਉਪਰ ਵੇਖਿਆ, ਬਨੇਰਾ ਕੁੜੀਆਂ ਬੁੜ੍ਹੀਆਂ ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਉਹ ਸਾਰੀਆਂ ਮੇਰੇ ਵੰਨੀ ਝਾਕ ਰਹੀਆਂ ਸਨ ਜਿਵੇਂ ਕਹਿ ਰਹੀਆਂ ਹੋਣ, "ਅੜੀਏ ਦੇਖੋ ਜੁਆਕ ਜਿਆ ਜੰਨ ਕਿਵੇਂ ਛੁਡਾਉਂਦੈ?" ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਜੰਨ ਛੁਡਾਉਣ ਦਾ ਕੀ ਪਤਾ ਸੀ? ਮੈਂ ਤਾਂ ਉਹੀ ਸਕੂਲ ਵਾਲਾ ਸ਼ਬਦ ਸੁਣਾ ਕੇ ਸਲੋਕ ਸੁਣਾਉਣ ਲੱਗ ਪਿਆ-ਪਵਨ ਗੁਰੂ ਪਾਣੀ ਪਿਤਾ …।
ਜੰਨ ਦੇ ਉਤਾਰੇ `ਚ ਇੱਕ ਸ਼ਰਾਬੀ ਨੇ ਮੰਜੇ `ਤੇ ਲੇਟਿਆਂ ਥੰਮ੍ਹਲੇ ਨੂੰ ਲੱਤ ਲਾ ਲਈ ਤੇ ਬਾਬੇ ਨੂੰ ਪੁੱਛਣ ਲੱਗਾ, "ਚਾਚਾ, ਸਿੱਟ ਦਿਆਂ ਥੰਮ੍ਹਲਾ?" ਮੈਂ ਬਾਬੇ ਨੂੰ ਕਿਹਾ, "ਬਾਬਾ ਰੋਕੋ ਇਹਨੂੰ, ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਸਾਰੀ ਜੰਨ ਥੱਲੇ ਆ-ਜੂ!" ਮੈਨੂੰ ਕੀ ਪਤਾ ਸੀ ਬਈ ਸ਼ਰਾਬੀਆਂ ਦੇ ਤਾਂ ਐਵੇਂ ਫੈਂਟਰ ਈ ਹੁੰਦੇ ਨੇ। ਉਥੇ ਮੈਂ ਵੀ ਬੋਤਲ ਸੁੰਘ ਕੇ ਗੋਡੀ ਲਾ ਲਈ ਸੀ ਤੇ ਤੁਰਨ ਲੱਗਾ ਡਿੱਗਣ ਦਾ ਡਰਾਮਾ ਕਰਨ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸਾਂ। ਜਾਨੀ ਉਦੋਂ ਚੁਆਨੀਆਂ ਅਠਿਆਨੀਆਂ ਪਾ ਕੇ ਸਾਂਝੀ ਬੋਤਲ ਖਰੀਦਦੇ ਸਨ। ਉਹ ਪੀਂਦੇ ਘੱਟ ਸਨ ਪਰ ਖੇੜਦੇ ਵੱਧ ਸਨ। ਕੁੜੀਆਂ ਗੀਤ ਗਾਉਂਦੀਆਂ-ਪ੍ਰਾਹੁਣਿਆਂ ਰੋਟੀ ਖਾਂਦਿਆ ਤੂੰ ਬੋਤਲ ਕਿਉਂ ਨਾ ਰੱਖੀ, ਕਰੀਰ ਦਾ ਵੇਲਣਾ ਮੈਂ ਵੇਲ ਵੇਲ ਥੱਕੀ …।
ਪਿੰਡ ਕੋਠੇ ਦੇ ਵਗਦੇ ਖੂਹ ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿੱਚ ਅਜੇ ਵੀ ਤਰੋਤਾਜ਼ਾ ਨੇ। ਪਿੰਡ ਦੇ ਮੁੱਢ `ਚ ਪੁਆਹੇ ਵਾਲਾ ਖੂਹ ਹਰ ਵੇਲੇ ਵਗਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਪਾਣੀ ਭਰਨ ਤੇ ਕਪੜੇ ਧੋਣ ਵਾਲੀਆਂ ਔਰਤਾਂ ਦੀਆਂ ਰੌਣਕਾਂ ਲੱਗੀਆਂ ਰਹਿੰਦੀਆਂ ਸਨ। ਰਾਵਣੀਆਂ ਮੈਨੂੰ 'ਸਰਮਲ' ਕਹਿੰਦੀਆਂ ਤੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਮਖੌਲ ਕਰਦੀਆਂ। ਉਹ ਤਿੰਨ ਤਿੰਨ ਘੜੇ ਚੁੱਕ ਖੜ੍ਹਦੀਆਂ। ਕਈਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਨਿਆਣੇ ਵੀ ਚੁੱਕੇ ਹੁੰਦੇ। ਚੰਨ ਚਾਨਣੀਆਂ ਰਾਤਾਂ ਵਿੱਚ ਪਿੰਡ ਦੇ ਮੁੰਡੇ ਨਿਆਈਂ ਵਾਲੇ ਖੇਤਾਂ `ਚ ਖੇਡਦੇ। ਇੱਕ ਖੇਡ 'ਵੰਝ ਵੜਿੱਕਾ' ਹੁੰਦੀ ਸੀ ਤੇ ਤੇਜ਼ਤਰਾਰ ਮੁੰਡੇ ਵਾਂਝੀ ਬਣਦੇ ਸਨ। ਉਸ ਖੇਡ ਵਿੱਚ ਲੋਨੇ ਹੁੰਦੇ ਸਨ। ਇੱਕ ਪੁਰਾਣਾ ਪਹਿਲਵਾਨ ਕੁਸ਼ਤੀ ਦੇ ਦਾਅ ਪੇਚ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਅੱਧੀ ਅੱਧੀ ਰਾਤ ਤਕ ਖੇਡਦੇ ਤੇ ਫੇਰ ਲਿਬੜੇ ਤਿਬੜੇ ਈ ਮੰਜਿਆਂ `ਤੇ ਜਾ ਸੌਂਦੇ। ਸਵੇਰੇ ਮੈਂ ਕੱਚਾ ਦੁੱਧ ਪੀਂਦਾ ਤੇ ਚੂਰੀ ਲੈ ਕੇ ਸਕੂਲ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ। ਕੋਠੇ `ਚੋਂ ਉਦੋਂ ਮੈਂ ਹੀ `ਕੱਲਾ ਹਾਈ ਸਕੂਲ `ਚ ਪੜ੍ਹਦਾ ਸਾਂ। ਭੂਆ ਦੇ ਘਰ ਖਾਣ ਪੀਣ ਖੁੱਲ੍ਹਾ ਡੁੱਲ੍ਹਾ ਸੀ ਪਰ ਕਦੇ ਕਦੇ ਆਪਣਾ ਪਿੰਡ ਤੇ ਬਚਪਨ ਦੇ ਆੜੀ ਯਾਦ ਆ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ਤੇ ਮੈਂ ਉਦਾਸ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਸਾਂ। ਸਾਲ `ਚ ਮੈਂ ਦੋ ਤਿੰਨ ਵਾਰ ਹੀ ਮਾਪਿਆਂ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਜਾਂਦਾ ਸਾਂ। ਇੱਕ ਦੋ ਵਾਰ ਉਹ ਆ ਕੇ ਮੈਨੂੰ ਮਿਲ ਜਾਂਦੇ ਸਨ।
ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਦਸਵੀਂ `ਚ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਮੇਰਾ ਮਨ ਫਿਰ ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਲੱਗਣ ਲਈ ਤਾਂਘ ਉਠਿਆ। ਮੈਂ ਭੂਆ ਤੇ ਫੁੱਫੜ ਨੂੰ ਆਖਿਆ ਕਿ ਦਸਵੀਂ ਮੈਨੂੰ ਮੱਲ੍ਹੇ ਤੋਂ ਕਰ ਲੈਣ ਦਿਓ, ਗਿਆਰਵੀਂ ਤੋਂ ਫੇਰ ਏਥੇ ਆ ਜਾਵਾਂਗਾ। ਫੇਰ ਚਾਰ ਸਾਲ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ ਈ ਰਹਿਣੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਆਗਿਆ ਦੇ ਦਿੱਤੀ। ਮੈਂ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਤੋਂ ਸਰਟੀਫਿਕੇਟ ਕਟਾਇਆ, ਕੋਠੇ ਦੇ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਮੱਥਾ ਟੇਕਿਆ ਤੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਤੋਂ ਰੇਲ ਗੱਡੀ ਆ ਚੜ੍ਹਿਆ। ਗਾਰਡ ਨੇ ਝੰਡੀ ਹਿਲਾਈ, ਇੰਜਣ ਨੇ ਚੀਕ ਮਾਰੀ ਤੇ ਰੇਲ ਗੱਡੀ ਛੱਕ ਛੱਕ ਕਰਦੀ ਤੁਰ ਪਈ। ਪਹਿਲਾਂ ਲਾਧੂਕਾ ਆਇਆ, ਫਿਰ ਬਾਹਮਣੀ ਵਾਲਾ, ਜਲਾਲਾਬਾਦ, ਜੀਵਾ ਅਰਾਈਂ, ਗੁਰੂ ਹਰਸਹਾਏ, ਝੋਕ ਟਹਿਲ ਸਿੰਘ ਤੇ ਖਾਈ ਫੇਮੇ ਕੀ ਸਟੇਸ਼ਨ ਆਉਂਦੇ ਗਏ। ਸਵਾਰੀਆਂ ਗੱਠੜੀਆਂ ਚੁੱਕੀ ਚੜ੍ਹਦੀਆਂ ਤੇ ਉਤਰਦੀਆਂ ਗਈਆਂ। ਮੈਂ ਮੋਗੇ ਜਾ ਕੇ ਉਤਰਿਆ ਤੇ ਸੇਵਕ ਕੰਪਨੀ ਦੀ ਬੱਸ ਉਤੇ ਚੜ੍ਹ ਕੇ ਬੱਧਨੀ ਪਹੁੰਚ ਗਿਆ। ਪਿੰਡ ਜਾਣ ਦਾ ਚਾਅ ਈ ਏਨਾ ਸੀ ਕਿ ਬੱਧਨੀ ਤੋਂ ਸੱਤ ਮੀਲ ਦੂਰ ਚਕਰ ਮੈਨੂੰ ਇਓਂ ਲੱਗਾ ਜਿਵੇਂ ਮੈਂ ਉੱਡ ਕੇ ਪਹੁੰਚ ਗਿਆ ਹੋਵਾਂ!
* * *
ਅਪਰੈਲ 1955 ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਮੁੜ ਕੇ ਮੱਲ੍ਹੇ ਪੜ੍ਹਨ ਲੱਗ ਪਿਆ। ਉਦੋਂ ਤਕ ਚਕਰ, ਮੀਨੀਆਂ, ਕੁੱਸੇ ਤੇ ਰਾਮੇ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਇੱਕ ਹੋਰ ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਬਣ ਗਿਆ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕੁਲ ਚੌਦਾਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਦਸਵੀਂ ਜਮਾਤ ਵਿੱਚ ਸਨ। ਨੌਂ ਰਾਮੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਦੇ ਸਨ ਤੇ ਅਸੀਂ ਪੰਜ ਜਣੇ ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਸਾਂ। ਸਾਡੇ ਪੰਜਾਂ `ਚੋਂ ਕਾਹਨੇ ਕੇ ਅਵਤਾਰ ਕੋਲ ਈ ਸਾਈਕਲ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ਜਿਸ ਉਤੇ ਅਸੀਂ ਵਾਰੋ ਵਾਰੀ ਝੂਟੇ ਲੈਂਦੇ। ਅਵਤਾਰ ਦਾ ਬੋਲਣ ਵਾਲਾ ਨਾਂ 'ਤਾਰੋ' ਸੀ, ਮਜ਼੍ਹਬੀਆਂ ਦੇ ਸੁਰਜੀਤ ਦਾ 'ਮਸਤ' , ਤਰਖਾਣਾਂ ਦੇ ਬਲਦੇਵ ਦਾ 'ਹਰਨੀ' , ਮੇਰਾ ਨਾਂ 'ਗੁੱਲ' ਤੇ ਚਰਨ ਦਾ ਚਰਨ ਈ ਸੀ। ਤਾਰੋ, ਮਸਤ ਤੇ ਹਰਨੀ ਪਰਲੋਕ ਸਿਧਾਰ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਅਸੀਂ ਵੇਖਣ ਨੂੰ ਈ ਸਾਊ ਲੱਗਦੇ ਸਾਂ ਪਰ ਸੀਗੇ ਫਿਟਣੀਆਂ ਦੇ ਫੇਟ। ਹੁਣ ਤਾਂ ਕਈ ਗੱਲਾਂ ਦੱਸਦਿਆਂ ਵੀ ਸ਼ਰਮ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਪਰ ਉਹ ਸਵੈਜੀਵਨੀ ਹੀ ਕਾਹਦੀ ਜੇ ਸੱਚ ਨਾ ਦੱਸਿਆ ਜਾਵੇ।
ਇਹ ਕਹਿਣ ਦੀਆਂ ਹੀ ਗੱਲਾਂ ਹਨ ਕਿ ਪੁਰਾਣੇ ਵੇਲੇ ਚੰਗੇ ਸਨ ਤੇ ਹੁਣ ਮਾੜੇ ਹਨ। ਸਾਡੇ ਵੇਖਣ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਹਨ ਕਿ ਪਾੜ੍ਹੇ ਉਦੋਂ ਵੀ ਬੜੇ ਇਲਤੀ ਸਨ। ਅਸੀਂ ਖੁਦ ਇਲਤਾਂ ਤੋਂ ਬਾਜ ਨਹੀਂ ਸਾਂ ਆਉਂਦੇ। ਕਿਸੇ ਦੀ ਚੀਜ਼ ਵਸਤ ਚੁੱਕ ਚੁਰਾ ਲੈਣੀ ਮਾਮੂਲੀ ਗੱਲ ਸੀ। ਜਮਾਤ ਦੇ ਇਮਤਿਹਾਨ ਲਈ ਸਾਡਾ ਸਾਰਾ ਜ਼ੋਰ ਘੋਟੇ ਲਾਉਣ ਉਤੇ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਪਿੰਡੋਂ ਮੱਲ੍ਹੇ ਨੂੰ ਜਾਂਦਿਆਂ ਤੇ ਮੱਲ੍ਹਿਓਂ ਪਿੰਡ ਮੁੜਦਿਆਂ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦਾ ਇੱਕ ਐੱਸੇ ਤੇ ਇੱਕ ਲੈਟਰ ਜ਼ੁਬਾਨੀ ਯਾਦ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਸਾਂ। ਦਸਵੀਂ ਦੇ ਸਾਲਾਨਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਤਕ ਪੰਜਾਹ ਲੇਖ ਤੇ ਪੰਜਾਹ ਲੈਟਰ ਸਾਡੇ ਰੱਟੇ ਪਏ ਸਨ। ਤਿੰਨ ਚਾਰ ਸੌ ਈਡੀਅਮਜ਼ ਤੇ ਪ੍ਰੋਬਰਬਜ਼ ਅਤੇ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦੇ ਔਖੇ ਲਫ਼ਜ਼ ਫਿਕਰਿਆਂ `ਚ ਵਰਤੇ ਹੋਏ ਯਾਦ ਸਨ। ਇੱਕ ਦੂਜੇ ਨੂੰ ਕਾਪੀ ਫੜਾ ਕੇ ਟੈੱਸਟ ਵੀ ਲੈਂਦੇ ਸਾਂ।
ਉਦੋਂ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਤੇ ਹਿਸਾਬ ਲਾਜ਼ਮੀ ਮਜ਼ਮੂਨ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚੋਂ ਪਾਸ ਹੋਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਸੀ। ਇੱਕ ਜਨਰਲ ਨੌਲਿਜ ਦਾ ਮਜ਼ਮੂਨ ਸੀ ਜਿਸ ਨੂੰ ਜੀ.ਕੇ.ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ ਤੇ ਉਹ ਵੀ ਪੜ੍ਹਨਾ ਲਾਜ਼ਮੀ ਸੀ। ਦੋ ਮਜ਼ਮੂਨ ਚੋਣਵੇਂ ਸਨ। ਉਹ ਮੈਂ ਪੰਜਾਬੀ ਤੇ ਡਰਾਇੰਗ ਲੈ ਰੱਖੇ ਸਨ। ਵਧੇਰੇ ਹੁਸ਼ਿਆਰ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਸਾਇੰਸ ਤੇ ਡਰਾਇੰਗ ਲੈਂਦੇ ਸਨ। ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਤੇ ਹਿਸਾਬ ਦੇ ਦੋ ਦੋ ਸੌ ਨੰਬਰ ਸਨ ਤੇ ਬਾਕੀ ਤਿੰਨ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਦੇ ਡੇਢ ਡੇਢ ਸੌ ਸਨ। ਅਸੀਂ ਰੱਟੇ ਵੀ ਲਾਉਂਦੇ ਤੇ ਖੇਡ ਮੱਲ੍ਹ ਵੀ ਲੈਂਦੇ। ਜਿਦ ਜਿਦ ਕੇ ਡੰਡ ਬੈਠਕਾਂ ਕੱਢਦੇ ਤੇ ਦੌੜਾਂ ਲਾਉਂਦੇ। ਕਿਸੇ ਵਾਹੇ ਸੁਹਾਗੇ ਵਾਹਣ `ਚ ਕਬੱਡੀ ਖੇਡਣ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ। ਉਹਨੀਂ ਦਿਨੀਂ ਸਾਡੇ ਪਿੰਡਾਂ ਵੱਲ ਹਠੂਰ ਦਾ ਛਾਂਗਾ, ਮਾਛੀ ਕਿਆਂ ਦਾ ਜਗਰਾਜ, ਮਧੇਅ ਦਾ ਅੜਿੱਕਾ, ਪੱਤੋ ਦਾ ਬਲਦੇਵ, ਰਾਜੇਆਣੇ ਦਾ ਬਿੱਲੂ, ਮੱਦੋਕਿਆਂ ਦਾ ਮੱਲ, ਬੁੱਟਰ ਦਾ ਆਤਮਾ ਤੇ ਮੱਲੇਆਣੇ ਦਾ ਗੈਸ ਕਬੱਡੀ ਦੇ ਮਸ਼ਹੂਰ ਖਿਡਾਰੀ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਹੀ ਚੜ੍ਹਦੇ ਤੇ ਲਹਿੰਦੇ ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਕਬੱਡੀ ਮੈਚ ਹੋਏ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਅਜੀਤ ਮਾਲੜੀ, ਕਿਰਪਾਲ ਸਾਧ, ਸੰਤੋਖ ਐਟਮ ਤੇ ਤੋਖੀ ਟਾਈਗਰ ਹੋਰੀਂ ਖੇਡੇ ਸਨ।
1955 ਵਿੱਚ ਏਨਾ ਮੀਂਹ ਪਿਆ ਕਿ ਰਹੇ ਰੱਬ ਦਾ ਨਾਂ। ਝੜੀ ਭਾਦੋਂ `ਚ ਲੱਗੀ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਜਿੰਨੇ ਹੜ੍ਹ ਮੈਂ ਮੁੜ ਕੇ ਨਹੀਂ ਵੇਖੇ। ਸਾਡਾ ਸਾਰਾ ਪਿੰਡ ਢਹਿ ਗਿਆ ਸੀ ਤੇ ਸੂਏ ਤੋਂ ਪਿੰਡ ਦਾ ਦੂਜਾ ਪਾਸਾ ਦਿੱਸਣ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸੀ। ਮੱਲ੍ਹੇ ਵਾਲਾ ਨਾਲਾ ਏਨਾ ਚੜ੍ਹ ਗਿਆ ਸੀ ਕਿ ਪੰਦਰਾਂ ਵੀਹ ਦਿਨ ਅਸੀਂ ਸਕੂਲ ਨਹੀਂ ਸੀ ਜਾ ਸਕੇ। ਮੈਨੂੰ ਯਾਦ ਹੈ ਕਈ ਰਾਤਾਂ ਅਸੀਂ ਬਾਹਰ ਟਿੱਬਿਆਂ `ਤੇ ਜਾ ਕੇ ਕੱਟੀਆਂ ਸਨ। ਕਦੇ ਕਦੇ ਅਸੀਂ ਸੂਏ ਦੀ ਉੱਚੀ ਪਟੜੀ `ਤੇ ਆ ਸੌਂਦੇ। ਕੋਲ ਹੀ ਪਸ਼ੂ ਬੰਨ੍ਹੇ ਹੁੰਦੇ। ਚੰਨ ਦੀ ਚਾਨਣੀ ਖੇਤਾਂ ਦੀ ਸਿੱਲ੍ਹ ਕਾਰਨ ਭਿੱਜੀ ਭਿੱਜੀ ਲੱਗਦੀ ਸੀ। ਪਾਣੀ `ਚ ਗਲ ਰਹੀਆਂ ਫਸਲਾਂ `ਚੋਂ ਹਵ੍ਹਾੜ ਉੱਠ ਰਹੀ ਸੀ। ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਸੇਮ ਹੋ ਗਈ ਸੀ ਤੇ ਚਰਦੇ ਹੋਏ ਪਸ਼ੂ ਗਾਰੇ `ਚ ਖੁੱਭ ਜਾਂਦੇ ਸਨ। ਧਰਤੀ `ਚੋਂ ਨਿੱਕਾ ਜਿਹਾ ਟੋਆ ਪੁੱਟ ਕੇ ਪਾਣੀ ਕੱਢਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਸੀ।
ਉਸ ਸਾਲ ਸਾਰੇ ਖੇਤ ਵੱਤਰ ਨਹੀਂ ਸਨ ਆਏ ਤੇ ਪੂਰੀ ਹਾੜ੍ਹੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਬੀਜੀ ਗਈ। ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਫਸਲਾਂ ਦਾ ਨੁਕਸਾਨ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਢਹੇ ਹੋਏ ਘਰ ਮੁੜ ਉਸਾਰਨੇ ਪਏ ਸਨ। ਉਹਨੀਂ ਦਿਨੀਂ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਵੱਡੀ ਸਮੱਸਿਆ ਸੇਮ ਦੀ ਸੀ ਜਦ ਕਿ ਹੁਣ ਧਰਤੀ ਦਾ ਪਾਣੀ ਬਹੁਤ ਡੂੰਘਾ ਚਲੇ ਜਾਣ ਦੀ ਹੈ। ਉਸ ਸਮੇਂ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਵੀ ਚਿੱਤ ਚੇਤਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਪੰਜਾਬ ਵਿੱਚ ਵੀ ਕਦੇ ਪਾਣੀ ਦੀ ਟੋਟ ਆ ਜਾਵੇਗੀ। ਸ਼ਾਇਦ ਇਹ ਵੀ ਇੱਕ ਕਾਰਨ ਹੋਵੇ ਕਿ ਪੰਜਾਬ ਨੇ ਆਪਣੇ ਦਰਿਆਵਾਂ ਦਾ ਪਾਣੀ ਰਾਜਸਥਾਨ ਨੂੰ ਮੁਫ਼ਤ ਵਿੱਚ ਈ ਲੁਟਾ ਦਿੱਤਾ। ਪੰਜਾਬੀਆਂ ਬਾਰੇ ਆਮ ਹੀ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦੈ ਕਿ ਉਹ ਬਹੁਤੀ ਦੂਰ ਦੀ ਨਹੀਂ ਸੋਚਦੇ। ਜਦੋਂ ਸਿਰ ਆ ਪਵੇ ਓਦੋਂ ਈ ਸਿਰ ਚੁੱਕਦੇ ਹਨ।
ਸਿਆਲ ਚੜ੍ਹਿਆ ਤਾਂ ਚਰਨ, ਮਸਤ ਤੇ ਮੈਂ, ਤਾਰੋ ਹੋਰਾਂ ਦੇ ਚੁਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਰਾਤਾਂ ਨੂੰ `ਕੱਠੇ ਪੜ੍ਹਨ ਲੱਗੇ। ਕਦੇ ਕਦੇ ਕਮਾਦਾਂ ਦੇ ਗੰਨੇ ਭੰਨਣ ਚਲੇ ਜਾਂਦੇ ਪਰ ਘਰ ਦਿਆਂ ਨੂੰ ਪਤਾ ਨਾ ਲੱਗਣ ਦਿੰਦੇ। ਹੱਟੀ ਭੱਠੀ ਦੀ ਹਾਜ਼ਰੀ ਵੀ ਭਰ ਆਉਂਦੇ। ਸਾਡੇ ਕੋਲ ਮਿੱਟੀ ਦੇ ਤੇਲ ਵਾਲਾ ਲੈਂਪ ਸੀ ਜਿਸ ਦਾ ਚਾਨਣ ਚੌਹਾਂ ਦੇ ਪੜ੍ਹਨ ਲਈ ਕਾਫੀ ਸੀ। ਤੇਲ ਅਸੀਂ ਸਾਂਝਾ ਪਾਉਂਦੇ ਤੇ ਚਿਮਨੀ ਵਾਰੀ ਨਾਲ ਸਾਫ ਕਰਦੇ। ਵਿਚੇ ਪੜ੍ਹੀ ਜਾਂਦੇ ਤੇ ਵਿਚੇ ਖ਼ਰਮਸਤੀਆਂ ਕਰੀ ਜਾਂਦੇ। ਇੱਕ ਦੋ ਕਾਰੇ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਵੀ ਕਰ ਬੈਠੇ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰ ਕੇ ਮਨ ਅੱਜ ਵੀ ਲਾਅਣਤਾਂ ਪਾ ਰਿਹੈ। ਦਿਲ ਕਰਦਾ ਹੈ ਦੱਸ ਦੇਵਾਂ ਪਰ ਦਿਮਾਗ ਕਹਿੰਦੈ ਨਾ ਦੱਸਾਂ। ਚਲੋ ਦੱਸ ਈ ਦਿੰਨਾਂ, ਹੁਣ ਕਿਹੜਾ ਸਜ਼ਾ ਮਿਲਣੀ ਐਂ?
ਸਾਡੇ ਦਸਵੀਂ ਦੇ ਕਮਰੇ ਵਿੱਚ ਕੰਧ ਵਾਲੀ ਅਲਮਾਰੀ ਸੀ। ਇੱਕ ਦਿਨ ਅਸੀਂ `ਕੱਲੇ ਚਕਰ ਵਾਲੇ ਈ ਕਮਰੇ ਵਿੱਚ ਸਾਂ। ਅਸੀਂ ਅਲਮਾਰੀ ਦੀ ਜਿੰਦੀ ਖੋਲ੍ਹ ਲਈ। ਵਿੱਚ ਮਾਰਕ ਹੋਏ ਪਰਚਿਆਂ ਦੇ ਬੰਡਲ ਪਏ ਸਨ। ਛਿਮਾਹੀ ਇਮਤਿਹਾਨਾਂ ਦੇ ਪਰਚੇ ਤਾਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਮਿਲ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ਪਰ ਸਾਲਾਨਾ ਇਮਤਿਹਾਨਾਂ ਦੇ ਨਹੀਂ ਸਨ ਮਿਲਦੇ। ਚਰਨ ਹੋਰਾਂ ਨੂੰ ਲੱਗਿਆ ਕਿ ਅਲਮਾਰੀ ਵਾਲੇ ਬੰਡਲਾਂ `ਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਨੌਵੀਂ ਦੇ ਪਰਚੇ ਵੀ ਹੋਣਗੇ। ਟਾਈਮ ਥੋੜ੍ਹਾ ਸੀ ਇਸ ਲਈ ਵੇਖ ਤਾਂ ਨਾ ਸਕੇ ਪਰ ਸਕੀਮ ਬਣਾ ਲਈ ਕਿ ਸਾਰੀ ਛੁੱਟੀ ਵੇਲੇ ਕੁੱਝ ਬੰਡਲ ਕੱਢ ਕੇ ਲੈ ਚੱਲਾਂਗੇ ਤੇ ਵੇਖ ਵੂਖ ਕੇ ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਮੋੜ ਕੇ ਅਲਮਾਰੀ `ਚ ਰੱਖ ਦੇਵਾਂਗੇ।
ਅਸੀਂ ਦਸ ਕੁ ਬੰਡਲ ਕੱਢੇ ਤੇ ਝੋਲਿਆਂ `ਚ ਲੁਕੋ ਕੇ ਤਾਰੋ ਕੇ ਚੁਬਾਰੇ `ਚ ਲੈ ਆਏ। ਫੋਲ ਫਾਲ ਕੇ ਵੇਖੇ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਆਪਣਾ ਕੋਈ ਪਰਚਾ ਨਾ ਲੱਭਾ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਉਹ ਬੰਡਲ ਮੋੜ ਕੇ ਰੱਖਣ ਦੀ ਥਾਂ ਹੋਰ ਦਸ ਬਾਰਾਂ ਬੰਡਲ ਲੈ ਆਂਦੇ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਆਪਦਾ ਕੋਈ ਪਰਚਾ ਨਾ ਨਿਕਲਿਆ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਹੋਰ ਲਿਆਂਦੇ। ਬੰਡਲ ਮੋੜ ਕੇ ਰੱਖਣ ਵਾਲਾ ਕੰਮ ਕੁੱਝ ਔਖਾ ਲੱਗਣ ਲੱਗਾ। ਫੜੇ ਜਾਣ ਦਾ ਡਰ ਸੀ। ਕੋਈ ਮਾਸਟਰ ਸਾਡੇ ਝੋਲਿਆਂ `ਚ ਬੰਡਲ ਵੇਖ ਲੈਂਦਾ ਤਾਂ ਸ਼ਾਮਤ ਆ ਜਾਂਦੀ। ਬੰਡਲ ਕੱਢਣ ਦੀ ਚੋਰੀ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਛੁੱਟੀ ਮਿਲਣ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਕਰਦੇ ਸਾਂ ਜਦੋਂ ਉਥੇ ਕੋਈ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਹੁੰਦਾ। ਘਰੋਂ ਝੋਲਿਆਂ `ਚ ਬੰਡਲ ਲਿਜਾ ਕੇ ਅਲਮਾਰੀ `ਚ ਰੱਖਣ ਦਾ ਪੂਰਾ ਰਿਸਕ ਸੀ। ਬੰਡਲ ਵਧੀ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਚੋਰੀ ਫੜੀ ਜਾਣ ਦਾ ਡਰ ਵੀ ਵਧੀ ਜਾਂਦਾ ਸੀ।
ਇਕ ਦਿਨ ਮਸਤ ਨੂੰ ਸੁੱਝ ਗਈ ਕਿ ਬੰਡਲ ਰੱਦੀ `ਚ ਵੇਚੇ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਦੋ ਬੰਡਲ ਲੈ ਗਿਆ ਤੇ ਅਮਰੀ ਦੁਕਾਨਦਾਰ ਦੀ ਦੁਕਾਨ ਤੋਂ ਪਕੌੜੀਆਂ ਲੈ ਆਇਆ। ਨਾਲ ਕਹਿ ਆਇਆ ਕਿ ਕੱਲ੍ਹ ਨੂੰ ਹੋਰ ਲਿਆਊਂ। ਦੂਜੇ ਦਿਨ ਚਾਰ ਬੰਡਲ ਲੈ ਗਿਆ ਤੇ ਬਰਫੀ ਲੈ ਆਇਆ। ਤੀਜੇ ਦਿਨ ਅਸੀਂ ਬਰਫੀ ਦੇ ਨਾਲ ਗਜਰੇਲਾ ਵੀ ਖਾਧਾ। ਫੇਰ ਤਾਂ ਸਾਡਾ ਮੂੰਹ ਹੀ ਪੈ ਗਿਆ। ਅਲਮਾਰੀ `ਚੋਂ ਬੰਡਲ ਤੁਰੇ ਆਉਂਦੇ ਤੇ ਅਮਰੀ ਦੀ ਤੱਕੜੀ `ਤੇ ਤੁਲੀ ਜਾਂਦੇ। ਬਰਫੀ ਸਾਡੇ ਢਿੱਡਾਂ ਵਿੱਚ ਪਈ ਜਾਂਦੀ। ਉਤੋਂ ਤਖਤੂਪੁਰੇ ਦਾ ਮੇਲਾ ਆ ਗਿਆ। ਅਸੀਂ ਉਹਦੇ ਲਈ ਵੀ ਪੈਸੇ ਜੋੜਨੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਲਏ। ਪੰਦਰਾਂ ਵੀਹਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਅਸੀਂ ਬੰਡਲਾਂ ਨਾਲ ਤੂੜੀ ਸਾਰੀ ਅਲਮਾਰੀ ਬੰਨੇ ਲਾ ਦਿੱਤੀ। ਸਕੂਲ ਦੀ ਜਿੰਦੀ ਦੀ ਥਾਂ ਅਸੀਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਆਪਣੀ ਜਿੰਦੀ ਠੋਕ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਜਿਵੇਂ ਅਸੀਂ ਓ ਅਲਮਾਰੀ ਦੇ ਅਸਲੀ ਮਾਲਕ ਹੋਈਏ। ਉਹ ਜਿੰਦੀ ਵੀ ਅਮਰੀ ਦੀ ਹੱਟੀ ਤੋਂ ਈ ਖਰੀਦੀ ਸੀ ਜੀਹਦੀ ਚਾਬੀ ਸਾਡੀ ਜੇਬ `ਚ ਹੁੰਦੀ ਸੀ।।
ਰੱਦੀ ਨੂੰ ਸਾਡਾ ਅਜਿਹਾ ਮੂੰਹ ਪਿਆ ਕਿ ਸਕੂਲ ਦੀਆਂ ਅਸੀਂ ਸਾਰੀਆਂ ਅਲਮਾਰੀਆਂ ਛਾਣ ਮਾਰੀਆਂ। ਡਰਾਇੰਗ ਰੂਮ ਦੀ ਇੱਕ ਪੇਟੀ ਵਿੱਚ ਅਖ਼ਬਾਰ ਪਏ ਲੱਭ ਗਏ। ਫਿਰ ਅਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵਾਢਾ ਧਰ ਲਿਆ। ਅਲਮਾਰੀ ਦੇ ਬੰਡਲਾਂ ਵਾਂਗ ਕਰਨ ਤਾਂ ਸਫਾਇਆ ਈ ਲੱਗੇ ਸੀ ਪਰ ਦੂਰ ਦੀ ਸੋਚ ਕੇ ਚਾਲੂ ਮਹੀਨੇ ਦੇ ਅਖ਼ਬਾਰ ਪੇਟੀ `ਚ ਪਏ ਰਹਿਣ ਦਿੱਤੇ। ਮਸਤ ਇੱਕ ਸ਼ਤੀਰੀ ਚੁੱਕਣ ਨੂੰ ਫਿਰਦਾ ਸੀ ਜੋ ਉਹਦੇ ਚਾਚੇ ਗੋਖੇ ਨੇ ਕੋਠਾ ਛੱਤਣ ਵੇਲੇ ਚਾੜ੍ਹ ਲੈਣੀ ਸੀ ਪਰ ਏਡੀ ਵੱਡੀ ਚੋਰੀ ਕਰਨ ਦਾ ਉਹਦਾ ਹੀਆਂ ਨਾ ਪਿਆ। ਇੱਕ ਦਿਨ ਅਮਰੀ ਨੇ ਮਸਤ ਨੂੰ ਪੁੱਛਿਆ, "ਜੇ ਮਾਮਲਾ ਗੜਬੜ ਐ ਤਾਂ ਰੱਦੀ ਮੈਂ ਪਿੰਡ `ਚ ਨੀ ਲਾਉਂਦਾ, ਅੱਗੇ ਸ਼ਹਿਰ `ਚ ਵੇਚ ਆਊਂ।" ਮਸਤ ਨੇ ਵੀ ਸਾਫ ਈ ਦੱਸ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਹੈ ਤਾਂ ਗੜਬੜ, ਅੱਗੋਂ ਤੇਰੀ ਮਰਜ਼ੀ। ਰੱਬ ਜਾਣੇ ਸਾਡੀ ਇਸ ਚੋਰੀ ਦਾ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਜਾਂ ਨਹੀਂ? ਪਰ ਏਨਾ ਜ਼ਰੂਰ ਪਤਾ ਲੱਗ ਗਿਆ ਪਈ ਪਤਾ ਨੀ ਲੱਗਦਾ ਬੰਦਾ ਕਦੋਂ ਚੋਰ ਬਣ ਜਾਂਦੈ!
ਮਾਘ ਫੱਗਣ `ਚ ਘੁਲਾੜੀਆਂ ਚੱਲ ਪਈਆਂ ਸਨ। ਅਸੀਂ ਲੈਂਪ ਦੇ ਚਾਨਣ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਸਾਂ ਕਿ ਕਿਸੇ ਨੇ ਕੁੰਡਾ ਆ ਖੜਕਾਇਆ। ਬਾਹਰ ਨਿਕਲ ਕੇ ਵੇਖਿਆ ਤਾਂ ਮਿਲਖਾ ਸਿਓਂ ਕਾ ਧੀਰਾ ਗੱਟੇ `ਚ ਗੁੜ ਲਈ ਖੜ੍ਹਾ ਸੀ। ਉਹ ਅੰਦਰ ਆਇਆ ਤੇ ਆਖਣ ਲੱਗਾ, "ਲਓ ਤੱਤਾ ਤੱਤਾ ਖਾ-ਲੋ, ਨਾਲੇ ਦੋ ਤੌੜੇ ਵੀ ਪਾ-ਲੋ। ਆਖੋਂ ਤਾਂ ਮੈਂ ਥੋਨੂੰ ਸ਼ਰਾਬ ਕੱਢਣ ਆਲਾ ਸਮਾਨ ਵੀ ਲਿਆ-ਦੂੰ।" ਗੱਟਾ ਰੱਖ ਕੇ ਉਹ ਆਪ ਤਾਂ ਚਲਾ ਗਿਆ ਪਰ ਸਾਨੂੰ ਪੜ੍ਹਨ ਦੀ ਥਾਂ ਪੁੱਠੇ ਕੰਮ ਲਾ ਗਿਆ। ਹਿਸਾਬ ਦੇ ਸੁਆਲ ਕੱਢਦੇ ਕੱਢਦੇ ਅਸੀਂ ਸ਼ਰਾਬ ਕੱਢਣ ਦੀਆਂ ਸਕੀਮਾਂ ਲਾਉਣ ਲੱਗ ਪਏ। ਘੰਟੇ ਅੱਧੇ ਘੰਟੇ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਡਿਊਟੀਆਂ ਵੀ ਵੰਡ ਲਈਆਂ।
ਮਸਤ ਦੀ ਡਿਊਟੀ ਲੱਗੀ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੇ ਵਿਹੜੇ `ਚੋਂ ਦੋ ਘੜੇ ਚੁੱਕ ਕੇ ਲਿਆਵੇਗਾ। ਉਸ ਮਾਂ ਦੇ ਪੁੱਤ ਨੇ ਓਦੋਂ ਈ ਖੇਸ ਦੀ ਬੁੱਕਲ ਮਾਰੀ ਤੇ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲ ਗਿਆ। ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਵਿਹੜਾ ਬੂਹੇ ਬੰਦ ਕਰੀ ਅੰਦਰੀਂ ਸੁੱਤਾ ਪਿਆ ਸੀ। ਘੜੇ ਬਾਹਰ ਘੜਵੰਜੀਆਂ `ਤੇ ਪਏ ਸਨ। ਇੱਕ ਉਹਨੇ ਆਪਣੇ ਚਾਚੇ ਗੋਖੇ ਦਿਓਂ ਘੜਾ ਚੁੱਕ ਲਿਆ ਤੇ ਦੂਜਾ ਆਪਣੇ ਤਾਏ ਆਰੇ ਕਿਓਂ। ਦੋਹੇਂ ਘੜੇ ਲੈ ਕੇ ਉਹ ਮਿੰਟਾਂ `ਚ ਮੁੜ ਆਇਆ। ਅਸੀਂ ਦੋਹਾਂ ਘੜਿਆਂ `ਚ ਗੁੜ ਪਾਇਆ ਤੇ ਖੂਹੀ `ਚੋਂ ਪਾਣੀ ਕੱਢ ਕੇ ਘੜੇ ਗਲਗੱਸੇ ਕਰ ਲਏ। ਤਰਖਾਣਾਂ ਦੇ ਚਰਨ ਦੀ ਡਿਊਟੀ ਲੱਗੀ ਕਿ ਉਹ ਤੇਸਾ ਲੈ ਕੇ ਕਿੱਕਰ ਦਾ ਸੱਕ ਲਿਆਵੇ। ਮੇਰੀ ਡਿਊਟੀ ਸੀ ਕਿ ਰਾਤ ਨੂੰ ਚਰਨ ਦੇ ਨਾਲ ਜਾਵਾਂ ਤੇ ਆਸੇ ਪਾਸੇ ਨਜ਼ਰ ਰੱਖਾਂ। ਤਾਰੋ ਦੀ ਡਿਊਟੀ ਸੀ ਘੜਿਆਂ ਦੀ ਨਿਗਰਾਨੀ ਰੱਖਣੀ ਕਿ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਨਾ ਲੱਗੇ। ਸੱਕ ਪਾ ਕੇ, ਘੜਿਆਂ ਦਾ ਮੂੰਹ ਬੰਨ੍ਹ ਕੇ ਤੇ ਤਾਰੋ ਕੇ ਬਾਹਰਲੇ ਘਰ ਤੂੜੀ `ਚ ਨੱਪ ਕੇ ਅਸੀਂ ਅੱਧੀ ਰਾਤ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਵਿਹਲੇ ਹੋਏ।
ਅਸੀਂ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਘੜੇ ਪਾਏ ਸੀ ਜਿਹੜੇ ਕਈ ਦਿਨ ਤੂੜੀ `ਚ ਦੱਬੇ ਰਹਿਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਨਾ ਚੱਲੇ। ਹਾਰ ਕੇ ਧੀਰੇ ਦੀ ਮਦਦ ਲਈ। ਉਸ ਨੇ ਨੁਸ਼ਾਦਰ ਦੀਆਂ ਗੋਲੀਆਂ ਪਾ ਕੇ ਘੜੇ ਰੂੜੀ `ਚ ਦੱਬਾਏ ਜੋ ਤੀਜੇ ਦਿਨ ਚੱਲ ਪਏ ਤੇ ਹਫ਼ਤੇ ਕੁ ਬਾਅਦ ਦਾਰੂ ਕੱਢਣ ਵਾਲੀ ਹੋ ਗਈ। ਤਾਰੋ ਕਾ ਬਾਹਰਲਾ ਘਰ ਸੁੰਨਾ ਪਿਆ ਸੀ ਜਿਥੇ ਸਾਥੋਂ ਅਣਜਾਣਾਂ ਤੋਂ ਚਾਰ ਪੰਜ ਬੋਤਲਾਂ ਈ ਨਿਕਲੀਆਂ ਹਾਲਾਂ ਕਿ ਗੁੜ ਦਸਾਂ ਬਾਰਾਂ ਬੋਤਲਾਂ ਦਾ ਸੀ। ਜਿੱਦਣ ਨੌਵੀਂ ਜਮਾਤ ਨੇ ਦਸਵੀਂ ਜਮਾਤ ਨੂੰ ਵਿਦਾਇਗੀ ਪਾਰਟੀ ਦਿੱਤੀ ਉੱਦਣ ਉਹ ਬੋਤਲਾਂ ਲੇਖੇ ਲੱਗੀਆਂ। ਜਦੋਂ ਦਸਵੀਂ ਜਮਾਤ ਦੀ ਗਰੁੱਪ ਫੋਟੋ ਲੱਥਣ ਲੱਗੀ ਤਾਂ ਤਾਰੋ ਸ਼ਰਾਬੀ ਹੋ ਗਿਆ ਤੇ ਫੋਟੋ ਵਿੱਚ ਈ ਨਾ ਆਇਆ। ਪਰ ਮੈਂ ਕੁੱਝ ਹੋਰਨਾਂ ਸ਼ੁਕੀਨਾਂ ਵਾਂਗ ਰੌਸ਼ਨੀ ਦੇ ਮੇਲੇ `ਚੋਂ ਖਰੀਦੀ ਇੱਕ ਆਨੇ ਦੀ ਘੜੀ ਗੁੱਟ `ਤੇ ਸਜਾ ਲਈ। ਗਰੁੱਪ ਫੋਟੋ ਵਿੱਚ ਉਹ ਨਕਲੀ ਘੜੀ ਅਸਲੀ ਘੜੀਆਂ ਵਾਂਗ ਦਿਸਦੀ ਰਹੀ।
ਸਾਡਾ ਦਸਵੀਂ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਜਗਰਾਓਂ ਹੋਣਾ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਰੇਲਵੇ ਰੋਡ `ਤੇ ਇੱਕ ਚੁਬਾਰਾ ਕਿਰਾਏ `ਤੇ ਲੈ ਲਿਆ ਤੇ ਇੱਕ ਸਟੋਵ ਖਰੀਦ ਲਿਆ। ਖੋਆ ਤੇ ਘਿਉ ਸਾਡੀਆਂ ਪੀਪੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸੀ। ਰੋਟੀਆਂ ਅਸੀਂ ਹੋਟਲ ਤੋਂ ਮੁੱਲ ਲੈ ਆਉਂਦੇ ਤੇ ਦਾਲ ਸਬਜ਼ੀ ਆਪ ਬਣਾ ਲੈਂਦੇ। ਚੁਬਾਰਾ ਦੇਸੀ ਘਿਓ ਦੇ ਤੜਕੇ ਨਾਲ ਮਹਿਕ ਉੱਠਦਾ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਅਫ਼ਵਾਹ ਉਡਾ ਦਿੱਤੀ ਕਿ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦਾ ਪਰਚਾ ਆਊਟ ਹੋ ਗਿਐ, ਜੀਹਦੀ ਪਹੁੰਚ ਹੈ ਉਹ ਲੈ ਸਕਦੈ। ਮੈਨੂੰ ਰੋਟੀ ਟੁੱਕ ਲਈ ਛੱਡ ਕੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਮੁਹਿੰਮ ਉਤੇ ਚੜ੍ਹ ਗਏ।
ਤਾਰੋ ਦਾ ਇੱਕ ਮਾਮਾ ਮਾਸਟਰ ਸੀ ਜੋ ਦੌਧਰ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ। ਪਹਿਲਾਂ ਉਹ ਉਹਦੇ ਕੋਲ ਗਏ ਤੇ ਉਹਨੂੰ ਨਾਲ ਲੈ ਕੇ ਸਾਰੀ ਰਾਤ ਸਾਈਕਲ ਭਜਾਈ ਫਿਰੇ। ਕਦੇ ਕਿਸੇ ਕੋਲ, ਕਦੇ ਕਿਸੇ ਕੋਲ। ਮੈਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਉਡੀਕਦਾ ਰਿਹਾ ਤੇ ਦੂਜੇ ਦਿਨ ਦੇ ਪਰਚੇ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਵੀ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾ। ਦੂਜੇ ਦਿਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਰਚੇ ਮਾੜੇ ਹੋਏ ਤੇ ਮੇਰਾ ਕੁੱਝ ਠੀਕ ਹੋ ਗਿਆ। ਦੋ ਮਹੀਨੇ ਪਿੱਛੋਂ ਨਤੀਜਾ ਆਇਆ ਤਾਂ ਮੈਂ ਪਾਸ ਸਾਂ ਤੇ ਉਹ ਸਾਰੇ ਫੇਲ੍ਹ ਸਨ। ਡੀ.ਬੀ.ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਛੱਤੀ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ `ਚੋਂ ਛੇ ਜਣੇ ਈ ਪਾਸ ਹੋਏ ਸਨ। ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕੁਲ ਚੌਦਾਂ ਮੁੰਡਿਆਂ ਨੇ ਦਸਵੀਂ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ਪਰ ਪਾਸ ਮੈਂ `ਕੱਲਾ ਈ ਹੋ ਸਕਿਆ। ਜੇ ਫੇਲ੍ਹ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਤਾਂ ਸੰਭਵ ਸੀ ਮੈਂ ਖੇਤੀ ਦੇ ਕੰਮ `ਚ ਪੈ ਜਾਂਦਾ ਜਿਵੇਂ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਦੇ ਕਈ ਜਮਾਤੀ ਪਏ। ਤੇ ਇਹ ਵੀ ਸੰਭਵ ਸੀ ਕਿ ਕੱਦ ਕੱਢ ਕੇ ਮੈਂ ਵੀ ਤਾਰੋ ਵਾਂਗ ਫੌਜ `ਚ ਭਰਤੀ ਹੋ ਜਾਂਦਾ।
ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ `ਚੋਂ ਹਟ ਕੇ ਸੱਤਵੀਂ `ਚ ਮੈਂ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਨ ਜਾ ਲੱਗਾ। ਮੇਰੀ ਭੂਆ ਸੁਜਾਨ ਕੌਰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਕੋਲ ਪਿੰਡ ਕੋਠੇ ਵਿਆਹੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਨਾ ਉਹਦੇ ਸੱਸ ਸਹੁਰਾ ਸਨ ਤੇ ਨਾ ਕੋਈ ਦਰਾਣੀ ਜਠਾਣੀ ਸੀ। ਵੱਡੇ ਘਰ `ਚ ਉਹਦਾ `ਕੱਲੀ ਦਾ ਜੀਅ ਨਹੀਂ ਸੀ ਲੱਗਦਾ ਤੇ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੋਲ ਪੜ੍ਹਨ ਲਈ ਕਹਿੰਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ। ਕਹਿੰਦੀ ਸੀ ਕਿ ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਪੜ੍ਹਾਈ ਪਿੰਡਾਂ ਨਾਲੋਂ ਚੰਗੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਬੱਤੇ ਪੀਣ ਦਾ ਵੀ ਲਾਲਚ ਦਿੰਦੀ ਸੀ। ਫੁੱਫੜ ਹੀਰਾ ਸਿੰਘ ਵੀ ਕਹਿ ਚੁੱਕਾ ਸੀ ਕਿ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਤਾਂ ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬੀ.ਏ.ਤਕ ਪੜ੍ਹੀ ਚੱਲਾਂ। ਘਰ ਤੋਂ ਕਾਲਜ ਮਸਾਂ ਤਿੰਨ ਮੀਲ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਮਾਮੀਆਂ, ਮਾਸੀਆਂ ਤੇ ਭੂਆਂ ਕੋਲ ਰਹਿ ਕੇ ਪੜ੍ਹਨਾ ਆਮ ਗੱਲ ਸੀ।
ਛੇਵੀਂ ਪਾਸ ਕਰਨ ਪਿੱਛੋਂ ਮੈਂ ਮੱਲ੍ਹੇ ਤੋਂ ਸਰਟੀਫਿਕੇਟ ਕਟਾ ਲਿਆ। ਗਰਮੀ ਦੀ ਰੁੱਤ ਸੀ। ਬਾਬੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਵੱਡੇ ਤੜਕੇ ਜਗਾਇਆ ਤੇ ਅੱਖਾਂ ਮਲਦੇ ਨੂੰ ਬੇਬੇ ਨੇ ਨਵੇਂ ਕਪੜੇ ਪੁਆਏ। ਪਰਾਉਂਠਾ ਤਾਂ ਮੈਥੋਂ ਖਾਧਾ ਨਾ ਗਿਆ ਪਰ ਦਹੀਂ ਦੀ ਕੌਲੀ ਮੈਨੂੰ ਨਾਂਹ ਨਾਂਹ ਕਰਦੇ ਨੂੰ ਵੀ ਪਿਆ ਦਿੱਤੀ। ਕਹਿੰਦੇ ਸਫ਼ਰ `ਤੇ ਜਾਣ ਲੱਗਿਆਂ ਦਹੀਂ ਦਾ ਘੁੱਟ ਭਰਨਾ ਚੰਗਾ ਹੁੰਦੈ। ਪਰਾਉਂਠੇ ਮੇਰੇ ਲੜ ਬੰਨ੍ਹ ਦਿੱਤੇ। ਬੇਬੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਬੁਕਲ `ਚ ਲੈ ਕੇ ਪਿਆਰ ਦਿੱਤਾ। ਪੁੱਤਰ ਦੇ ਵਿਛੜਨ ਨਾਲ ਉਹਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਸਿੰਮ ਆਈਆਂ ਸਨ। ਮੈਂ ਸੌ ਮੀਲ ਦੂਰ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਬਾਰਡਰ ਕੋਲ ਚੱਲਿਆ ਸਾਂ। ਰਾਤ ਦੇ ਹਨ੍ਹੇਰੇ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਪੈਦਲ ਚੱਲਦੇ ਗਏ। ਅੰਬਰ `ਚ ਤਾਰੇ ਟਹਿਕ ਰਹੇ ਸਨ ਤੇ ਪੁਰੇ ਦੀ ਠੰਢੀ `ਵਾ ਵਗ ਰਹੀ ਸੀ। ਚੌਦਾਂ ਮੀਲ ਤੁਰ ਕੇ ਜਗਰਾਓਂ ਤੋਂ ਸੱਤ ਵਜੇ ਵਾਲੀ ਰੇਲ ਗੱਡੀ ਫੜਨੀ ਸੀ ਜਿਹੜੀ ਸਿੱਧੀ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਬਾਬਾ ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ਚੜ੍ਹਾਉਣ ਚੱਲਿਆ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ਚੜ੍ਹਾ ਕੇ ਉਹਨੇ ਤੁਰ ਕੇ ਈ ਵਾਪਸ ਆਉਣਾ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਬੰਦੇ ਜਗਰਾਓਂ ਤੁਰ ਕੇ ਈ ਜਾਂਦੇ ਸਨ। ਕਈ ਸਿਰ `ਤੇ ਦਾਣੇ ਜਾਂ ਕਪਾਹ ਦੀ ਗੱਠੜੀ ਵੀ ਰੱਖ ਕੇ ਲੈ ਜਾਂਦੇ। ਬਾਬਾ ਤਾਂ ਇੱਕ ਵਾਰ ਤੁਰ ਕੇ ਪੰਜਾਹ ਕੋਹ ਦੂਰ ਬਠਿੰਡੇ ਤੋਂ ਗੱਡੀ ਜਾ ਚੜ੍ਹਿਆ ਸੀ।
ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਮੂਹਰ ਦੀ ਲੰਘਣ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਸਕੂਲ ਦਾ ਮੋਹ ਆ ਗਿਆ ਤੇ ਮੇਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਦੀਆਂ ਕੋਰਾਂ ਭਰ ਆਈਆਂ। ਮੈਂ ਭਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਨਾਲ ਸਕੂਲ ਨੂੰ ਅਲਵਿਦਾ ਕਹੀ। ਮੈਨੂੰ ਮੇਰੇ ਆੜੀ ਯਾਦ ਆਉਣ ਲੱਗੇ। ਫਿਰ ਅਸੀਂ ਡੱਲੇ ਦੀ ਦੈੜ ਚੜ੍ਹੇ ਤੇ ਨਹਿਰ ਦਾ ਪੁਲ ਲੰਘੇ। ਨਹਿਰ ਦੀਆਂ ਧਾਰਾਂ ਸ਼ਾਂ ਸ਼ਾਂ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਪੰਛੀ ਚਹਿਕਣ ਲੱਗ ਪਏ ਸਨ। ਪੂਰਬ ਵਿੱਚ ਪਹੁ ਫੁੱਟ ਰਹੀ ਸੀ ਤੇ ਨਿੰਮ੍ਹਾ ਨਿੰਮ੍ਹਾ ਚਾਨਣ ਪਸਰ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਬਾਬਾ ਮੂਹਰੇ ਸੀ ਤੇ ਮੈਂ ਮਗਰ ਸਾਂ। ਜਦੋਂ ਵਿੱਥ ਪੈ ਜਾਂਦੀ ਤਾਂ ਬਾਬਾ `ਵਾਜ਼ ਮਾਰਦਾ ਤੇ ਮੈਂ ਭੱਜ ਕੇ ਨਾਲ ਜਾ ਰਲਦਾ।
ਜਗਰਾਓਂ ਵੜਦਿਆਂ ਨੂੰ ਇੱਕ ਹਲਟੀ ਆਉਂਦੀ ਸੀ ਜਿਥੇ ਅਸੀਂ ਪਾਣੀ ਪੀਤਾ ਤੇ ਪਰਾਉਂਠੇ ਖਾਧੇ। ਫਿਰ ਰੇਲਵੇ ਸਟੇਸ਼ਨ ਉਤੇ ਪਹੁੰਚ ਕੇ ਬਾਬੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੀ ਅੱਧੀ ਟਿਕਟ ਲੈ ਦਿੱਤੀ ਜੋ ਮੇਰੇ ਕੱਦ ਕਾਠ ਮੁਤਾਬਿਕ ਠੀਕ ਸੀ। ਗੱਡੀ ਆਈ ਤਾਂ ਬਾਬੇ ਨੇ ਮੇਰਾ ਸਿਰ ਪਲੋਸਿਆ ਤੇ 'ਤਕੜਾ ਹੋ ਕੇ ਪੜ੍ਹੀਂ' ਕਹਿੰਦਿਆਂ ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ਵਿੱਚ ਬਿਠਾ ਦਿੱਤਾ। ਇੱਕ ਵਾਰ ਪਹਿਲਾਂ ਵੀ ਮੈਂ ਭੂਆ ਨਾਲ ਗੱਡੀ ਉਤੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜਾ ਆਇਆ ਸਾਂ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਇਹ ਸਫ਼ਰ ਮੇਰੇ ਲਈ ਅਸਲੋਂ ਨਵਾਂ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਰਸਤੇ ਦੇ ਸਟੇਸ਼ਨਾਂ ਦਾ ਮਾੜਾ ਮੋਟਾ ਅੰਦਾਜ਼ਾ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ। ਨਾਲੇ ਗੱਡੀ ਨੇ ਫਿਰੋਜ਼ਪੁਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਬਦਲਣਾ ਤੇ ਸਿੱਧੀ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਜਾ ਕੇ ਖੜ੍ਹਨਾ ਸੀ। ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਤੋਂ ਕੋਠੇ ਜਾਣ ਦਾ ਰਾਹ ਵੀ ਮੈਂ ਵੇਖਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਬੱਸ ਮਾਪਿਆਂ ਤੋਂ ਵਿਛੜਨ ਦੀ ਹੀ ਉਦਾਸੀ ਸੀ ਬਾਕੀ ਸਭ ਠੀਕ ਸੀ।
ਕੋਠਾ ਲੁਕਮਾਨਪੁਰ ਛੋਟਾ ਜਿਹਾ ਪਿੰਡ ਹੈ। ਉਦੋਂ ਸੱਤ ਅੱਠ ਘਰ ਜੱਟ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਸਨ, ਏਨੇ ਕੁ ਕੰਬੋਆਂ ਦੇ ਸਨ ਤੇ ਵੀਹ ਪੱਚੀ ਘਰ ਰਾਇ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਸਨ। ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਪੰਜ ਪਿੱਪਲ ਸਨ ਤੇ ਬਾਰਡਰ ਦਾ ਪਿੰਡ ਹੋਣ ਕਾਰਨ ਪੰਜ ਜਣਿਆਂ ਨੂੰ ਪੰਜ ਪੱਕੀਆਂ ਰਫਲਾਂ ਮਿਲੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਸਨ। ਗਿਆਰਾਂ ਗੋਲੀ ਦੀ ਰਫਲ ਮੇਰੇ ਫੁੱਫੜ ਨੂੰ ਵੀ ਮਿਲੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਜਦੋਂ ਉਸ ਨੇ ਕਿਤੇ ਲਾਂਭੇ ਜਾਣਾ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਭੂਆ ਮੈਨੂੰ ਰਫਲ ਨਾਲ ਕੋਠੇ `ਤੇ ਸੁਆਉਂਦੀ। ਮੈਂ ਭਾਵੇਂ ਉਦੋਂ ਰਫਲ ਕੁ ਜਿੱਡਾ ਹੀ ਸਾਂ ਪਰ ਪੱਕੀ ਬੰਦੂਕ ਚਲਾਉਣੀ ਸਿੱਖ ਗਿਆ ਸਾਂ। ਮੈਂ ਗਿਆਰਾਂ ਗੋਲੀਆਂ ਮੈਗਜ਼ੀਨ `ਚ ਪਾਉਂਦਾ, ਮੈਗਜ਼ੀਨ ਬੰਦੂਕ `ਚ ਫਿੱਟ ਕਰਦਾ ਤੇ ਲਾਕ ਕਰ ਕੇ ਦਰੀ ਦੇ ਹੇਠਾਂ ਮੰਜੇ ਦੀ ਬਾਹੀ ਨਾਲ ਪਾ ਲੈਂਦਾ। ਬਾਂਸ ਦੀ ਪੌੜੀ ਮੈਂ ਕੋਠੇ ਉਤੇ ਖਿੱਚ ਲੈਂਦਾ ਤਾਂ ਕਿ ਕੋਈ ਬੰਦੂਕ ਨੂੰ ਨਾ ਆ ਪਏ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਕੜੇ ਵਿੱਚ ਦੀ ਬੰਦੂਕ ਦੀ ਬੈਲਟ ਲੰਘਾ ਲੈਂਦਾ ਬਈ ਜਦੋਂ ਕੋਈ ਬੰਦੂਕ ਖਿੱਚੇ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਜਾਗ ਆ ਜਾਵੇ!
ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦਾ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਤੇ ਐੱਮ.ਆਰ.ਕਾਲਜ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਛਿਪਦੇ ਪਾਸੇ ਹਨ। ਉਧਰ ਹੀ ਰਠੌਰਾਂ ਦਾ ਮਹੱਲਾ ਹੈ। ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਚੁੰਗੀ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਸਕੂਲ ਤਕ ਪੱਕੀ ਸੜਕ ਉਤੇ ਰਠੌੜ ਮੁੰਜ ਕੁੱਟਦੇ ਤੇ ਵਾਣ ਵੱਟਦੇ ਸਨ। ਹੁਣ ਵੀ ਜੇ ਮੈਂ ਬਾਲੋ ਮਾਹੀਆ ਸੁਣਾਂ-ਤੁਸੀਂ ਵਾਣ ਵਟੇਂਦੇ ਓ, ਓਨੇ ਤੁਸੀਂ ਸੋਹਣੇ ਨਹੀਂ ਜਿੰਨਾ ਮਾਣ ਕਰੇਂਦੇ ਓ … ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਕੋਲ ਵਾਣ ਵੱਟਦੇ ਰਠੌੜ ਦਿਸਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ ਹਨ।
ਕੋਠੇ ਤੋਂ ਸਕੂਲ ਆਉਣ ਲਈ ਮੇਰੇ ਦੋ ਰਾਹ ਸਨ। ਇੱਕ ਡੰਡੀ ਪੈ ਕੇ ਪਿੰਡ ਆਵੇ ਵਿੱਚ ਦੀ ਸਿੱਧਾ ਰਾਹ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜਾ ਕੁੱਝ ਵਿੰਗ ਪਾ ਕੇ ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਸੜਕ ਉਪਰ ਦੀ ਸੀ। ਉਸ ਸੜਕ ਦੇ ਵੱਡੇ ਸਫੈਦ ਮੀਲ ਪੱਥਰ ਉਤੇ ਮੁਲਤਾਨ, ਮਿੰਟਗੁਮਰੀ, ਪਾਕਪਟਨ ਤੇ ਹੈੱਡ ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਦੀ ਦੂਰੀ ਮੀਲਾਂ ਵਿੱਚ ਲਿਖੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਉਰਦੂ ਦੇ ਅੱਖਰ ਮੇਟੇ ਨਹੀਂ ਸਨ ਗਏ। ਪਾਕਪਟਨ ਪੱਚੀ ਮੀਲ ਸੀ ਤੇ ਮਿੰਟਗੁਮਰੀ ਸਤ੍ਹਾਟ ਮੀਲ। ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਹਿਸਾਰ ਤੇ ਦਿੱਲੀ ਦੀ ਦੂਰੀ ਲਿਖੀ ਹੋਈ ਸੀ।
ਮੈਂ ਬਾਰ੍ਹਵੇਂ ਤੋਂ ਪੰਦਰਵੇਂ ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਤਕ ਤਿੰਨ ਜਮਾਤਾਂ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਲਵੀ ਉਮਰ ਸੀ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ ਇਲਾਕੇ `ਚ ਬੋਲੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਪੰਜਾਬੀ ਦੀਆਂ ਉਪ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਦਾ ਮੇਰੇ ਉਤੇ ਕਾਫੀ ਪ੍ਰਭਾਵ ਪਿਆ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਪੰਜਾਬੀ ਦੇ ਲਫ਼ਜ਼ਾਂ ਤੇ ਲਹਿਜ਼ਿਆਂ ਦਾ ਅਧਿਐਨ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦਾ ਖੇਤਰ ਬੜਾ ਢੁੱਕਵਾਂ ਹੈ। ਉਥੇ ਆਰ ਪਾਰ ਦੇ ਰਾਏ ਸਿੱਖ, ਕੰਬੋਅ, ਰਾਠੌੜ, ਬਾਗੜੀਏ, ਧਾਣਕੇ, ਉੱਨ ਮੰਡੀ ਦੇ ਬਾਣੀਏਂ, ਬਹਾਵਲਪੁਰ ਤੇ ਮੁਲਤਾਨ ਦੇ ਰਫਿਊਜ਼ੀ, ਮਾਝੇ ਮਾਲਵੇ ਦੇ ਜੱਟ ਤੇ ਦੁਆਬੇ ਦੇ ਨੌਕਰੀ ਪੇਸ਼ਾ ਬੰਦੇ ਭਾਂਤ ਸੁਭਾਂਤੇ ਬੋਲ ਬੋਲਦੇ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਇਕੋ ਜਮਾਤ ਦੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਇਕੋ ਲਫ਼ਜ਼ ਵੱਖਰੇ ਲਹਿਜ਼ਿਆਂ `ਚ ਬੋਲਦੇ ਸਨ। ਮੇਰਾ ਠੇਠ ਮਲਵਈ ਲਹਿਜ਼ਾ ਕਈਆਂ ਦੇ ਹਾਸੇ ਦਾ ਕਾਰਨ ਬਣਦਾ ਸੀ। ਕਿਸੇ ਰਿਸਰਚ ਸਕਾਲਰ ਨੂੰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ 'ਲਿੰਗੂਆ ਫਰਾਂਕਾ' ਵਿਸ਼ੇ ਉਤੇ ਪੀ ਐੱਚ.ਡੀ.ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ।
ਸਾਡੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੀ ਦਾ ਬੋਲਬਾਲਾ ਸੀ। ਦੋ ਤਿੰਨ ਮਾਸਟਰ ਹੀ ਪੰਜਾਬੀ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਾਉਂਦੇ ਸਨ। ਕਦੇ ਕਦੇ ਹਵਨ ਵੀ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਖੇਡਾਂ ਤੇ ਕਸਰਤਾਂ ਕਰਾਉਣ ਦਾ ਮੱਲ੍ਹੇ ਵਰਗਾ ਮਾਹੌਲ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਸਿਰਫ ਵਾਲੀਬਾਲ ਦਾ ਨੈੱਟ ਲੱਗਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ਜਿਥੇ ਅਸੀਂ ਸਕੂਲ ਲੱਗਣ ਤੋਂ ਅੱਗੋਂ ਜਾਂ ਪਿੱਛੋਂ ਖੇਡਦੇ। ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਰੇਤਲਾ ਮੈਦਾਨ ਸੀ ਜਿਥੇ ਪੇਂਡੂ ਮੁੰਡੇ ਕਬੱਡੀ ਖੇਡਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਹਾਣੀਆਂ ਨਾਲ ਘੁਲ ਲੈਂਦਾ ਸਾਂ ਤੇ ਮਥਰਾ ਦਾਸ ਨਾਂ ਦਾ ਮੁੰਡਾ ਮੈਨੂੰ ਕਦੇ ਕਦੇ ਢਾਹ ਵੀ ਲੈਂਦਾ ਸੀ। ਲਾਲਿਆਂ ਦੇ ਮੁੰਡੇ ਤੋਂ ਢਹਿ ਜਾਣ ਕਾਰਨ ਮੈਨੂੰ ਜੱਟਾਂ ਦੇ ਮੁੰਡਿਆਂ ਕੋਲੋਂ ਮਖੌਲ ਸੁਣਨੇ ਪੈਂਦੇ। ਅਖ਼ੀਰ ਮੈਂ ਮਥਰਾ ਦਾਸ ਨੂੰ ਹਰ ਵਾਰ ਢਾਹ ਕੇ ਈ ਮਖੌਲਾਂ ਤੋਂ ਬਚਦਾ।
ਮੈਂ ਬੰਟੇ ਵੀ ਖੇਡਦਾ ਸਾਂ ਤੇ ਕੌਡੀਆਂ ਵੀ। ਮੇਰੀ ਖਾਕੀ ਨੀਕਰ ਦੀ ਜੇਬ ਬੰਟੇ ਤੇ ਕੌਡੀਆਂ ਨਾਲ ਭਰੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ। ਇੱਕ ਵਾਰ ਬਾਬਾ ਮੈਨੂੰ ਸਕੂਲ ਮਿਲਣ ਆਇਆ। ਉਹ ਦਫਤਰ ਕੋਲ ਖੜ੍ਹਾ ਮੈਨੂੰ ਜਮਾਤ `ਚੋਂ ਹੀ ਦਿੱਸ ਗਿਆ। ਮੇਰੀ ਜੇਬ ਬੰਟਿਆਂ ਨਾਲ ਭਰੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਬਾਬੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗ ਜਾਂਦਾ ਤਾਂ ਮੇਰੀ ਸ਼ਾਮਤ ਆ ਜਾਣੀ ਸੀ। ਮੈਂ ਚੁੱਪ ਚਾਪ ਜਮਾਤ `ਚੋਂ ਖਿਸਕਿਆ ਤੇ ਨਾਲ ਲੱਗਦੇ ਖੇਤ `ਚ ਬੰਟੇ ਲੁਕੋ ਆਇਆ। ਮੁੜ ਕੇ ਉਹ ਲੱਭੇ ਈ ਨਾ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਮੈਨੂੰ ਕਾਫੀ ਦੇਰ ਪਛਤਾਵਾ ਰਿਹਾ। ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਨਿਸ਼ਾਨੀ ਰੱਖਣੀ ਭੁੱਲ ਗਿਆ ਸਾਂ।
ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਜਮਾਤ ਚੜ੍ਹਦਾ ਤਾਂ ਘੰਟਾ ਘਰ ਨੇੜਲੀ ਦੁਕਾਨ ਤੋਂ ਨਵੀਆਂ ਕਿਤਾਬਾਂ ਖਰੀਦਦਾ। ਪੰਜਾਬੀ ਦੀ ਕਿਤਾਬ `ਚੋਂ ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮੈਂ ਕਵਿਤਾਵਾਂ ਪੜ੍ਹਦਾ ਤੇ ਜ਼ਬਾਨੀ ਯਾਦ ਕਰ ਲੈਂਦਾ। ਉਹੀ ਕਵਿਤਾਵਾਂ ਮੈਂ ਬਾਲ ਸਭਾ `ਚ ਸੁਣਾਉਂਦਾ। ਮੇਰਾ ਹੋਰਨਾਂ ਮੂਹਰੇ ਖੜ੍ਹ ਕੇ ਬੋਲਣ ਦਾ ਝਾਕਾ ਨਿੱਕੇ ਹੁੰਦੇ ਦਾ ਹੀ ਖੁੱਲ੍ਹ ਗਿਆ ਸੀ। ਮੈਂ ਚਕਰ ਦੇ ਜਲੂਸ ਯਾਨੀ ਨਗਰ ਕੀਰਤਨ ਦੇ ਪੜਾਵਾਂ ਉਤੇ ਕਵੀਸ਼ਰੀ ਸੁਣਾਉਣ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸਾਂ। ਇੱਕ ਕਵੀਸ਼ਰੀ ਦੇ ਹਰੇਕ ਬੰਦ ਦੀ ਅਖ਼ੀਰਲੀ ਸਤਰ ਹੁੰਦੀ ਸੀ-ਪਟਨੇ `ਚ ਚੜ੍ਹਿਆ ਸੱਚ ਦਾ ਚੰਦਰਮਾ ਆਸ਼ਕ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦਾ। ਮੈਂ ਭਾਨੀਮਾਰਾਂ ਦੀ ਕਰਤੂਤ ਵੀ ਸੁਣਾਉਂਦਾ ਸਾਂ ਅਤੇ ਚਾਹ ਤੇ ਲੱਸੀ ਦਾ ਝਗੜਾ ਵੀ ਛੇੜ ਲੈਦਾ ਸਾਂ।
ਉਦੋਂ ਮੈਂ ਚੌਥੀ `ਚ ਪੜ੍ਹਦਾ ਸਾਂ ਜਦੋਂ ਬਾਬੇ ਨਾਲ ਰਾਏਕੋਟ ਵੰਨੀ ਜੰਨ ਗਿਆ ਸਾਂ। ਪਿੰਡ ਦਾ ਨਾਂ ਗੋਂਦਵਾਲ ਸੀ। ਉਥੇ ਕੁੜੀਆਂ ਨੇ ਜੰਨ ਬੰਨ੍ਹ ਦਿੱਤੀ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਮੂਹਰੇ ਥਾਲੀਆਂ ਵਿੱਚ ਲੱਡੂ ਪਏ ਸਨ ਪਰ ਬਾਬਾ ਮੈਨੂੰ ਖਾਣ ਨਹੀਂ ਸੀ ਦਿੰਦਾ। ਕਹਿੰਦਾ ਸੀ, "ਜੰਨ ਬੰਨ੍ਹੀ ਹੋਈ ਐ। ਪਹਿਲਾਂ ਕੋਈ ਜੰਨ ਛੁਡਾਊ ਫੇਰ ਖਾਵਾਂਗੇ।" ਪਰ ਜੰਨ ਛੁਡਾਉਣ ਵਾਲਾ ਕੋਈ ਜਾਨੀ ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਅਖ਼ੀਰ ਜਾਨੀਆਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਈ ਖੜ੍ਹਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ।
ਮੈਂ ਉਪਰ ਵੇਖਿਆ, ਬਨੇਰਾ ਕੁੜੀਆਂ ਬੁੜ੍ਹੀਆਂ ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਉਹ ਸਾਰੀਆਂ ਮੇਰੇ ਵੰਨੀ ਝਾਕ ਰਹੀਆਂ ਸਨ ਜਿਵੇਂ ਕਹਿ ਰਹੀਆਂ ਹੋਣ, "ਅੜੀਏ ਦੇਖੋ ਜੁਆਕ ਜਿਆ ਜੰਨ ਕਿਵੇਂ ਛੁਡਾਉਂਦੈ?" ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਜੰਨ ਛੁਡਾਉਣ ਦਾ ਕੀ ਪਤਾ ਸੀ? ਮੈਂ ਤਾਂ ਉਹੀ ਸਕੂਲ ਵਾਲਾ ਸ਼ਬਦ ਸੁਣਾ ਕੇ ਸਲੋਕ ਸੁਣਾਉਣ ਲੱਗ ਪਿਆ-ਪਵਨ ਗੁਰੂ ਪਾਣੀ ਪਿਤਾ …।
ਜੰਨ ਦੇ ਉਤਾਰੇ `ਚ ਇੱਕ ਸ਼ਰਾਬੀ ਨੇ ਮੰਜੇ `ਤੇ ਲੇਟਿਆਂ ਥੰਮ੍ਹਲੇ ਨੂੰ ਲੱਤ ਲਾ ਲਈ ਤੇ ਬਾਬੇ ਨੂੰ ਪੁੱਛਣ ਲੱਗਾ, "ਚਾਚਾ, ਸਿੱਟ ਦਿਆਂ ਥੰਮ੍ਹਲਾ?" ਮੈਂ ਬਾਬੇ ਨੂੰ ਕਿਹਾ, "ਬਾਬਾ ਰੋਕੋ ਇਹਨੂੰ, ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਸਾਰੀ ਜੰਨ ਥੱਲੇ ਆ-ਜੂ!" ਮੈਨੂੰ ਕੀ ਪਤਾ ਸੀ ਬਈ ਸ਼ਰਾਬੀਆਂ ਦੇ ਤਾਂ ਐਵੇਂ ਫੈਂਟਰ ਈ ਹੁੰਦੇ ਨੇ। ਉਥੇ ਮੈਂ ਵੀ ਬੋਤਲ ਸੁੰਘ ਕੇ ਗੋਡੀ ਲਾ ਲਈ ਸੀ ਤੇ ਤੁਰਨ ਲੱਗਾ ਡਿੱਗਣ ਦਾ ਡਰਾਮਾ ਕਰਨ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸਾਂ। ਜਾਨੀ ਉਦੋਂ ਚੁਆਨੀਆਂ ਅਠਿਆਨੀਆਂ ਪਾ ਕੇ ਸਾਂਝੀ ਬੋਤਲ ਖਰੀਦਦੇ ਸਨ। ਉਹ ਪੀਂਦੇ ਘੱਟ ਸਨ ਪਰ ਖੇੜਦੇ ਵੱਧ ਸਨ। ਕੁੜੀਆਂ ਗੀਤ ਗਾਉਂਦੀਆਂ-ਪ੍ਰਾਹੁਣਿਆਂ ਰੋਟੀ ਖਾਂਦਿਆ ਤੂੰ ਬੋਤਲ ਕਿਉਂ ਨਾ ਰੱਖੀ, ਕਰੀਰ ਦਾ ਵੇਲਣਾ ਮੈਂ ਵੇਲ ਵੇਲ ਥੱਕੀ …।
ਪਿੰਡ ਕੋਠੇ ਦੇ ਵਗਦੇ ਖੂਹ ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿੱਚ ਅਜੇ ਵੀ ਤਰੋਤਾਜ਼ਾ ਨੇ। ਪਿੰਡ ਦੇ ਮੁੱਢ `ਚ ਪੁਆਹੇ ਵਾਲਾ ਖੂਹ ਹਰ ਵੇਲੇ ਵਗਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਪਾਣੀ ਭਰਨ ਤੇ ਕਪੜੇ ਧੋਣ ਵਾਲੀਆਂ ਔਰਤਾਂ ਦੀਆਂ ਰੌਣਕਾਂ ਲੱਗੀਆਂ ਰਹਿੰਦੀਆਂ ਸਨ। ਰਾਵਣੀਆਂ ਮੈਨੂੰ 'ਸਰਮਲ' ਕਹਿੰਦੀਆਂ ਤੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਮਖੌਲ ਕਰਦੀਆਂ। ਉਹ ਤਿੰਨ ਤਿੰਨ ਘੜੇ ਚੁੱਕ ਖੜ੍ਹਦੀਆਂ। ਕਈਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਨਿਆਣੇ ਵੀ ਚੁੱਕੇ ਹੁੰਦੇ। ਚੰਨ ਚਾਨਣੀਆਂ ਰਾਤਾਂ ਵਿੱਚ ਪਿੰਡ ਦੇ ਮੁੰਡੇ ਨਿਆਈਂ ਵਾਲੇ ਖੇਤਾਂ `ਚ ਖੇਡਦੇ। ਇੱਕ ਖੇਡ 'ਵੰਝ ਵੜਿੱਕਾ' ਹੁੰਦੀ ਸੀ ਤੇ ਤੇਜ਼ਤਰਾਰ ਮੁੰਡੇ ਵਾਂਝੀ ਬਣਦੇ ਸਨ। ਉਸ ਖੇਡ ਵਿੱਚ ਲੋਨੇ ਹੁੰਦੇ ਸਨ। ਇੱਕ ਪੁਰਾਣਾ ਪਹਿਲਵਾਨ ਕੁਸ਼ਤੀ ਦੇ ਦਾਅ ਪੇਚ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਅੱਧੀ ਅੱਧੀ ਰਾਤ ਤਕ ਖੇਡਦੇ ਤੇ ਫੇਰ ਲਿਬੜੇ ਤਿਬੜੇ ਈ ਮੰਜਿਆਂ `ਤੇ ਜਾ ਸੌਂਦੇ। ਸਵੇਰੇ ਮੈਂ ਕੱਚਾ ਦੁੱਧ ਪੀਂਦਾ ਤੇ ਚੂਰੀ ਲੈ ਕੇ ਸਕੂਲ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ। ਕੋਠੇ `ਚੋਂ ਉਦੋਂ ਮੈਂ ਹੀ `ਕੱਲਾ ਹਾਈ ਸਕੂਲ `ਚ ਪੜ੍ਹਦਾ ਸਾਂ। ਭੂਆ ਦੇ ਘਰ ਖਾਣ ਪੀਣ ਖੁੱਲ੍ਹਾ ਡੁੱਲ੍ਹਾ ਸੀ ਪਰ ਕਦੇ ਕਦੇ ਆਪਣਾ ਪਿੰਡ ਤੇ ਬਚਪਨ ਦੇ ਆੜੀ ਯਾਦ ਆ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ਤੇ ਮੈਂ ਉਦਾਸ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਸਾਂ। ਸਾਲ `ਚ ਮੈਂ ਦੋ ਤਿੰਨ ਵਾਰ ਹੀ ਮਾਪਿਆਂ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਜਾਂਦਾ ਸਾਂ। ਇੱਕ ਦੋ ਵਾਰ ਉਹ ਆ ਕੇ ਮੈਨੂੰ ਮਿਲ ਜਾਂਦੇ ਸਨ।
ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਦਸਵੀਂ `ਚ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਮੇਰਾ ਮਨ ਫਿਰ ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਲੱਗਣ ਲਈ ਤਾਂਘ ਉਠਿਆ। ਮੈਂ ਭੂਆ ਤੇ ਫੁੱਫੜ ਨੂੰ ਆਖਿਆ ਕਿ ਦਸਵੀਂ ਮੈਨੂੰ ਮੱਲ੍ਹੇ ਤੋਂ ਕਰ ਲੈਣ ਦਿਓ, ਗਿਆਰਵੀਂ ਤੋਂ ਫੇਰ ਏਥੇ ਆ ਜਾਵਾਂਗਾ। ਫੇਰ ਚਾਰ ਸਾਲ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ ਈ ਰਹਿਣੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਆਗਿਆ ਦੇ ਦਿੱਤੀ। ਮੈਂ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਤੋਂ ਸਰਟੀਫਿਕੇਟ ਕਟਾਇਆ, ਕੋਠੇ ਦੇ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਮੱਥਾ ਟੇਕਿਆ ਤੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਤੋਂ ਰੇਲ ਗੱਡੀ ਆ ਚੜ੍ਹਿਆ। ਗਾਰਡ ਨੇ ਝੰਡੀ ਹਿਲਾਈ, ਇੰਜਣ ਨੇ ਚੀਕ ਮਾਰੀ ਤੇ ਰੇਲ ਗੱਡੀ ਛੱਕ ਛੱਕ ਕਰਦੀ ਤੁਰ ਪਈ। ਪਹਿਲਾਂ ਲਾਧੂਕਾ ਆਇਆ, ਫਿਰ ਬਾਹਮਣੀ ਵਾਲਾ, ਜਲਾਲਾਬਾਦ, ਜੀਵਾ ਅਰਾਈਂ, ਗੁਰੂ ਹਰਸਹਾਏ, ਝੋਕ ਟਹਿਲ ਸਿੰਘ ਤੇ ਖਾਈ ਫੇਮੇ ਕੀ ਸਟੇਸ਼ਨ ਆਉਂਦੇ ਗਏ। ਸਵਾਰੀਆਂ ਗੱਠੜੀਆਂ ਚੁੱਕੀ ਚੜ੍ਹਦੀਆਂ ਤੇ ਉਤਰਦੀਆਂ ਗਈਆਂ। ਮੈਂ ਮੋਗੇ ਜਾ ਕੇ ਉਤਰਿਆ ਤੇ ਸੇਵਕ ਕੰਪਨੀ ਦੀ ਬੱਸ ਉਤੇ ਚੜ੍ਹ ਕੇ ਬੱਧਨੀ ਪਹੁੰਚ ਗਿਆ। ਪਿੰਡ ਜਾਣ ਦਾ ਚਾਅ ਈ ਏਨਾ ਸੀ ਕਿ ਬੱਧਨੀ ਤੋਂ ਸੱਤ ਮੀਲ ਦੂਰ ਚਕਰ ਮੈਨੂੰ ਇਓਂ ਲੱਗਾ ਜਿਵੇਂ ਮੈਂ ਉੱਡ ਕੇ ਪਹੁੰਚ ਗਿਆ ਹੋਵਾਂ!
* * *
ਅਪਰੈਲ 1955 ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਮੁੜ ਕੇ ਮੱਲ੍ਹੇ ਪੜ੍ਹਨ ਲੱਗ ਪਿਆ। ਉਦੋਂ ਤਕ ਚਕਰ, ਮੀਨੀਆਂ, ਕੁੱਸੇ ਤੇ ਰਾਮੇ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਇੱਕ ਹੋਰ ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਬਣ ਗਿਆ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕੁਲ ਚੌਦਾਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਦਸਵੀਂ ਜਮਾਤ ਵਿੱਚ ਸਨ। ਨੌਂ ਰਾਮੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਦੇ ਸਨ ਤੇ ਅਸੀਂ ਪੰਜ ਜਣੇ ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਸਾਂ। ਸਾਡੇ ਪੰਜਾਂ `ਚੋਂ ਕਾਹਨੇ ਕੇ ਅਵਤਾਰ ਕੋਲ ਈ ਸਾਈਕਲ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ਜਿਸ ਉਤੇ ਅਸੀਂ ਵਾਰੋ ਵਾਰੀ ਝੂਟੇ ਲੈਂਦੇ। ਅਵਤਾਰ ਦਾ ਬੋਲਣ ਵਾਲਾ ਨਾਂ 'ਤਾਰੋ' ਸੀ, ਮਜ਼੍ਹਬੀਆਂ ਦੇ ਸੁਰਜੀਤ ਦਾ 'ਮਸਤ' , ਤਰਖਾਣਾਂ ਦੇ ਬਲਦੇਵ ਦਾ 'ਹਰਨੀ' , ਮੇਰਾ ਨਾਂ 'ਗੁੱਲ' ਤੇ ਚਰਨ ਦਾ ਚਰਨ ਈ ਸੀ। ਤਾਰੋ, ਮਸਤ ਤੇ ਹਰਨੀ ਪਰਲੋਕ ਸਿਧਾਰ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਅਸੀਂ ਵੇਖਣ ਨੂੰ ਈ ਸਾਊ ਲੱਗਦੇ ਸਾਂ ਪਰ ਸੀਗੇ ਫਿਟਣੀਆਂ ਦੇ ਫੇਟ। ਹੁਣ ਤਾਂ ਕਈ ਗੱਲਾਂ ਦੱਸਦਿਆਂ ਵੀ ਸ਼ਰਮ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਪਰ ਉਹ ਸਵੈਜੀਵਨੀ ਹੀ ਕਾਹਦੀ ਜੇ ਸੱਚ ਨਾ ਦੱਸਿਆ ਜਾਵੇ।
ਇਹ ਕਹਿਣ ਦੀਆਂ ਹੀ ਗੱਲਾਂ ਹਨ ਕਿ ਪੁਰਾਣੇ ਵੇਲੇ ਚੰਗੇ ਸਨ ਤੇ ਹੁਣ ਮਾੜੇ ਹਨ। ਸਾਡੇ ਵੇਖਣ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਹਨ ਕਿ ਪਾੜ੍ਹੇ ਉਦੋਂ ਵੀ ਬੜੇ ਇਲਤੀ ਸਨ। ਅਸੀਂ ਖੁਦ ਇਲਤਾਂ ਤੋਂ ਬਾਜ ਨਹੀਂ ਸਾਂ ਆਉਂਦੇ। ਕਿਸੇ ਦੀ ਚੀਜ਼ ਵਸਤ ਚੁੱਕ ਚੁਰਾ ਲੈਣੀ ਮਾਮੂਲੀ ਗੱਲ ਸੀ। ਜਮਾਤ ਦੇ ਇਮਤਿਹਾਨ ਲਈ ਸਾਡਾ ਸਾਰਾ ਜ਼ੋਰ ਘੋਟੇ ਲਾਉਣ ਉਤੇ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਪਿੰਡੋਂ ਮੱਲ੍ਹੇ ਨੂੰ ਜਾਂਦਿਆਂ ਤੇ ਮੱਲ੍ਹਿਓਂ ਪਿੰਡ ਮੁੜਦਿਆਂ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦਾ ਇੱਕ ਐੱਸੇ ਤੇ ਇੱਕ ਲੈਟਰ ਜ਼ੁਬਾਨੀ ਯਾਦ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਸਾਂ। ਦਸਵੀਂ ਦੇ ਸਾਲਾਨਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਤਕ ਪੰਜਾਹ ਲੇਖ ਤੇ ਪੰਜਾਹ ਲੈਟਰ ਸਾਡੇ ਰੱਟੇ ਪਏ ਸਨ। ਤਿੰਨ ਚਾਰ ਸੌ ਈਡੀਅਮਜ਼ ਤੇ ਪ੍ਰੋਬਰਬਜ਼ ਅਤੇ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦੇ ਔਖੇ ਲਫ਼ਜ਼ ਫਿਕਰਿਆਂ `ਚ ਵਰਤੇ ਹੋਏ ਯਾਦ ਸਨ। ਇੱਕ ਦੂਜੇ ਨੂੰ ਕਾਪੀ ਫੜਾ ਕੇ ਟੈੱਸਟ ਵੀ ਲੈਂਦੇ ਸਾਂ।
ਉਦੋਂ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਤੇ ਹਿਸਾਬ ਲਾਜ਼ਮੀ ਮਜ਼ਮੂਨ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚੋਂ ਪਾਸ ਹੋਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਸੀ। ਇੱਕ ਜਨਰਲ ਨੌਲਿਜ ਦਾ ਮਜ਼ਮੂਨ ਸੀ ਜਿਸ ਨੂੰ ਜੀ.ਕੇ.ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ ਤੇ ਉਹ ਵੀ ਪੜ੍ਹਨਾ ਲਾਜ਼ਮੀ ਸੀ। ਦੋ ਮਜ਼ਮੂਨ ਚੋਣਵੇਂ ਸਨ। ਉਹ ਮੈਂ ਪੰਜਾਬੀ ਤੇ ਡਰਾਇੰਗ ਲੈ ਰੱਖੇ ਸਨ। ਵਧੇਰੇ ਹੁਸ਼ਿਆਰ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਸਾਇੰਸ ਤੇ ਡਰਾਇੰਗ ਲੈਂਦੇ ਸਨ। ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਤੇ ਹਿਸਾਬ ਦੇ ਦੋ ਦੋ ਸੌ ਨੰਬਰ ਸਨ ਤੇ ਬਾਕੀ ਤਿੰਨ ਮਜ਼ਮੂਨਾਂ ਦੇ ਡੇਢ ਡੇਢ ਸੌ ਸਨ। ਅਸੀਂ ਰੱਟੇ ਵੀ ਲਾਉਂਦੇ ਤੇ ਖੇਡ ਮੱਲ੍ਹ ਵੀ ਲੈਂਦੇ। ਜਿਦ ਜਿਦ ਕੇ ਡੰਡ ਬੈਠਕਾਂ ਕੱਢਦੇ ਤੇ ਦੌੜਾਂ ਲਾਉਂਦੇ। ਕਿਸੇ ਵਾਹੇ ਸੁਹਾਗੇ ਵਾਹਣ `ਚ ਕਬੱਡੀ ਖੇਡਣ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ। ਉਹਨੀਂ ਦਿਨੀਂ ਸਾਡੇ ਪਿੰਡਾਂ ਵੱਲ ਹਠੂਰ ਦਾ ਛਾਂਗਾ, ਮਾਛੀ ਕਿਆਂ ਦਾ ਜਗਰਾਜ, ਮਧੇਅ ਦਾ ਅੜਿੱਕਾ, ਪੱਤੋ ਦਾ ਬਲਦੇਵ, ਰਾਜੇਆਣੇ ਦਾ ਬਿੱਲੂ, ਮੱਦੋਕਿਆਂ ਦਾ ਮੱਲ, ਬੁੱਟਰ ਦਾ ਆਤਮਾ ਤੇ ਮੱਲੇਆਣੇ ਦਾ ਗੈਸ ਕਬੱਡੀ ਦੇ ਮਸ਼ਹੂਰ ਖਿਡਾਰੀ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਹੀ ਚੜ੍ਹਦੇ ਤੇ ਲਹਿੰਦੇ ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਕਬੱਡੀ ਮੈਚ ਹੋਏ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਅਜੀਤ ਮਾਲੜੀ, ਕਿਰਪਾਲ ਸਾਧ, ਸੰਤੋਖ ਐਟਮ ਤੇ ਤੋਖੀ ਟਾਈਗਰ ਹੋਰੀਂ ਖੇਡੇ ਸਨ।
1955 ਵਿੱਚ ਏਨਾ ਮੀਂਹ ਪਿਆ ਕਿ ਰਹੇ ਰੱਬ ਦਾ ਨਾਂ। ਝੜੀ ਭਾਦੋਂ `ਚ ਲੱਗੀ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਜਿੰਨੇ ਹੜ੍ਹ ਮੈਂ ਮੁੜ ਕੇ ਨਹੀਂ ਵੇਖੇ। ਸਾਡਾ ਸਾਰਾ ਪਿੰਡ ਢਹਿ ਗਿਆ ਸੀ ਤੇ ਸੂਏ ਤੋਂ ਪਿੰਡ ਦਾ ਦੂਜਾ ਪਾਸਾ ਦਿੱਸਣ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸੀ। ਮੱਲ੍ਹੇ ਵਾਲਾ ਨਾਲਾ ਏਨਾ ਚੜ੍ਹ ਗਿਆ ਸੀ ਕਿ ਪੰਦਰਾਂ ਵੀਹ ਦਿਨ ਅਸੀਂ ਸਕੂਲ ਨਹੀਂ ਸੀ ਜਾ ਸਕੇ। ਮੈਨੂੰ ਯਾਦ ਹੈ ਕਈ ਰਾਤਾਂ ਅਸੀਂ ਬਾਹਰ ਟਿੱਬਿਆਂ `ਤੇ ਜਾ ਕੇ ਕੱਟੀਆਂ ਸਨ। ਕਦੇ ਕਦੇ ਅਸੀਂ ਸੂਏ ਦੀ ਉੱਚੀ ਪਟੜੀ `ਤੇ ਆ ਸੌਂਦੇ। ਕੋਲ ਹੀ ਪਸ਼ੂ ਬੰਨ੍ਹੇ ਹੁੰਦੇ। ਚੰਨ ਦੀ ਚਾਨਣੀ ਖੇਤਾਂ ਦੀ ਸਿੱਲ੍ਹ ਕਾਰਨ ਭਿੱਜੀ ਭਿੱਜੀ ਲੱਗਦੀ ਸੀ। ਪਾਣੀ `ਚ ਗਲ ਰਹੀਆਂ ਫਸਲਾਂ `ਚੋਂ ਹਵ੍ਹਾੜ ਉੱਠ ਰਹੀ ਸੀ। ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਸੇਮ ਹੋ ਗਈ ਸੀ ਤੇ ਚਰਦੇ ਹੋਏ ਪਸ਼ੂ ਗਾਰੇ `ਚ ਖੁੱਭ ਜਾਂਦੇ ਸਨ। ਧਰਤੀ `ਚੋਂ ਨਿੱਕਾ ਜਿਹਾ ਟੋਆ ਪੁੱਟ ਕੇ ਪਾਣੀ ਕੱਢਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਸੀ।
ਉਸ ਸਾਲ ਸਾਰੇ ਖੇਤ ਵੱਤਰ ਨਹੀਂ ਸਨ ਆਏ ਤੇ ਪੂਰੀ ਹਾੜ੍ਹੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਬੀਜੀ ਗਈ। ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਫਸਲਾਂ ਦਾ ਨੁਕਸਾਨ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਢਹੇ ਹੋਏ ਘਰ ਮੁੜ ਉਸਾਰਨੇ ਪਏ ਸਨ। ਉਹਨੀਂ ਦਿਨੀਂ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਵੱਡੀ ਸਮੱਸਿਆ ਸੇਮ ਦੀ ਸੀ ਜਦ ਕਿ ਹੁਣ ਧਰਤੀ ਦਾ ਪਾਣੀ ਬਹੁਤ ਡੂੰਘਾ ਚਲੇ ਜਾਣ ਦੀ ਹੈ। ਉਸ ਸਮੇਂ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਵੀ ਚਿੱਤ ਚੇਤਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਪੰਜਾਬ ਵਿੱਚ ਵੀ ਕਦੇ ਪਾਣੀ ਦੀ ਟੋਟ ਆ ਜਾਵੇਗੀ। ਸ਼ਾਇਦ ਇਹ ਵੀ ਇੱਕ ਕਾਰਨ ਹੋਵੇ ਕਿ ਪੰਜਾਬ ਨੇ ਆਪਣੇ ਦਰਿਆਵਾਂ ਦਾ ਪਾਣੀ ਰਾਜਸਥਾਨ ਨੂੰ ਮੁਫ਼ਤ ਵਿੱਚ ਈ ਲੁਟਾ ਦਿੱਤਾ। ਪੰਜਾਬੀਆਂ ਬਾਰੇ ਆਮ ਹੀ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦੈ ਕਿ ਉਹ ਬਹੁਤੀ ਦੂਰ ਦੀ ਨਹੀਂ ਸੋਚਦੇ। ਜਦੋਂ ਸਿਰ ਆ ਪਵੇ ਓਦੋਂ ਈ ਸਿਰ ਚੁੱਕਦੇ ਹਨ।
ਸਿਆਲ ਚੜ੍ਹਿਆ ਤਾਂ ਚਰਨ, ਮਸਤ ਤੇ ਮੈਂ, ਤਾਰੋ ਹੋਰਾਂ ਦੇ ਚੁਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਰਾਤਾਂ ਨੂੰ `ਕੱਠੇ ਪੜ੍ਹਨ ਲੱਗੇ। ਕਦੇ ਕਦੇ ਕਮਾਦਾਂ ਦੇ ਗੰਨੇ ਭੰਨਣ ਚਲੇ ਜਾਂਦੇ ਪਰ ਘਰ ਦਿਆਂ ਨੂੰ ਪਤਾ ਨਾ ਲੱਗਣ ਦਿੰਦੇ। ਹੱਟੀ ਭੱਠੀ ਦੀ ਹਾਜ਼ਰੀ ਵੀ ਭਰ ਆਉਂਦੇ। ਸਾਡੇ ਕੋਲ ਮਿੱਟੀ ਦੇ ਤੇਲ ਵਾਲਾ ਲੈਂਪ ਸੀ ਜਿਸ ਦਾ ਚਾਨਣ ਚੌਹਾਂ ਦੇ ਪੜ੍ਹਨ ਲਈ ਕਾਫੀ ਸੀ। ਤੇਲ ਅਸੀਂ ਸਾਂਝਾ ਪਾਉਂਦੇ ਤੇ ਚਿਮਨੀ ਵਾਰੀ ਨਾਲ ਸਾਫ ਕਰਦੇ। ਵਿਚੇ ਪੜ੍ਹੀ ਜਾਂਦੇ ਤੇ ਵਿਚੇ ਖ਼ਰਮਸਤੀਆਂ ਕਰੀ ਜਾਂਦੇ। ਇੱਕ ਦੋ ਕਾਰੇ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਵੀ ਕਰ ਬੈਠੇ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰ ਕੇ ਮਨ ਅੱਜ ਵੀ ਲਾਅਣਤਾਂ ਪਾ ਰਿਹੈ। ਦਿਲ ਕਰਦਾ ਹੈ ਦੱਸ ਦੇਵਾਂ ਪਰ ਦਿਮਾਗ ਕਹਿੰਦੈ ਨਾ ਦੱਸਾਂ। ਚਲੋ ਦੱਸ ਈ ਦਿੰਨਾਂ, ਹੁਣ ਕਿਹੜਾ ਸਜ਼ਾ ਮਿਲਣੀ ਐਂ?
ਸਾਡੇ ਦਸਵੀਂ ਦੇ ਕਮਰੇ ਵਿੱਚ ਕੰਧ ਵਾਲੀ ਅਲਮਾਰੀ ਸੀ। ਇੱਕ ਦਿਨ ਅਸੀਂ `ਕੱਲੇ ਚਕਰ ਵਾਲੇ ਈ ਕਮਰੇ ਵਿੱਚ ਸਾਂ। ਅਸੀਂ ਅਲਮਾਰੀ ਦੀ ਜਿੰਦੀ ਖੋਲ੍ਹ ਲਈ। ਵਿੱਚ ਮਾਰਕ ਹੋਏ ਪਰਚਿਆਂ ਦੇ ਬੰਡਲ ਪਏ ਸਨ। ਛਿਮਾਹੀ ਇਮਤਿਹਾਨਾਂ ਦੇ ਪਰਚੇ ਤਾਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਮਿਲ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ਪਰ ਸਾਲਾਨਾ ਇਮਤਿਹਾਨਾਂ ਦੇ ਨਹੀਂ ਸਨ ਮਿਲਦੇ। ਚਰਨ ਹੋਰਾਂ ਨੂੰ ਲੱਗਿਆ ਕਿ ਅਲਮਾਰੀ ਵਾਲੇ ਬੰਡਲਾਂ `ਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਨੌਵੀਂ ਦੇ ਪਰਚੇ ਵੀ ਹੋਣਗੇ। ਟਾਈਮ ਥੋੜ੍ਹਾ ਸੀ ਇਸ ਲਈ ਵੇਖ ਤਾਂ ਨਾ ਸਕੇ ਪਰ ਸਕੀਮ ਬਣਾ ਲਈ ਕਿ ਸਾਰੀ ਛੁੱਟੀ ਵੇਲੇ ਕੁੱਝ ਬੰਡਲ ਕੱਢ ਕੇ ਲੈ ਚੱਲਾਂਗੇ ਤੇ ਵੇਖ ਵੂਖ ਕੇ ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਮੋੜ ਕੇ ਅਲਮਾਰੀ `ਚ ਰੱਖ ਦੇਵਾਂਗੇ।
ਅਸੀਂ ਦਸ ਕੁ ਬੰਡਲ ਕੱਢੇ ਤੇ ਝੋਲਿਆਂ `ਚ ਲੁਕੋ ਕੇ ਤਾਰੋ ਕੇ ਚੁਬਾਰੇ `ਚ ਲੈ ਆਏ। ਫੋਲ ਫਾਲ ਕੇ ਵੇਖੇ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਆਪਣਾ ਕੋਈ ਪਰਚਾ ਨਾ ਲੱਭਾ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਉਹ ਬੰਡਲ ਮੋੜ ਕੇ ਰੱਖਣ ਦੀ ਥਾਂ ਹੋਰ ਦਸ ਬਾਰਾਂ ਬੰਡਲ ਲੈ ਆਂਦੇ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਆਪਦਾ ਕੋਈ ਪਰਚਾ ਨਾ ਨਿਕਲਿਆ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਹੋਰ ਲਿਆਂਦੇ। ਬੰਡਲ ਮੋੜ ਕੇ ਰੱਖਣ ਵਾਲਾ ਕੰਮ ਕੁੱਝ ਔਖਾ ਲੱਗਣ ਲੱਗਾ। ਫੜੇ ਜਾਣ ਦਾ ਡਰ ਸੀ। ਕੋਈ ਮਾਸਟਰ ਸਾਡੇ ਝੋਲਿਆਂ `ਚ ਬੰਡਲ ਵੇਖ ਲੈਂਦਾ ਤਾਂ ਸ਼ਾਮਤ ਆ ਜਾਂਦੀ। ਬੰਡਲ ਕੱਢਣ ਦੀ ਚੋਰੀ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਛੁੱਟੀ ਮਿਲਣ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਕਰਦੇ ਸਾਂ ਜਦੋਂ ਉਥੇ ਕੋਈ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਹੁੰਦਾ। ਘਰੋਂ ਝੋਲਿਆਂ `ਚ ਬੰਡਲ ਲਿਜਾ ਕੇ ਅਲਮਾਰੀ `ਚ ਰੱਖਣ ਦਾ ਪੂਰਾ ਰਿਸਕ ਸੀ। ਬੰਡਲ ਵਧੀ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਚੋਰੀ ਫੜੀ ਜਾਣ ਦਾ ਡਰ ਵੀ ਵਧੀ ਜਾਂਦਾ ਸੀ।
ਇਕ ਦਿਨ ਮਸਤ ਨੂੰ ਸੁੱਝ ਗਈ ਕਿ ਬੰਡਲ ਰੱਦੀ `ਚ ਵੇਚੇ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਦੋ ਬੰਡਲ ਲੈ ਗਿਆ ਤੇ ਅਮਰੀ ਦੁਕਾਨਦਾਰ ਦੀ ਦੁਕਾਨ ਤੋਂ ਪਕੌੜੀਆਂ ਲੈ ਆਇਆ। ਨਾਲ ਕਹਿ ਆਇਆ ਕਿ ਕੱਲ੍ਹ ਨੂੰ ਹੋਰ ਲਿਆਊਂ। ਦੂਜੇ ਦਿਨ ਚਾਰ ਬੰਡਲ ਲੈ ਗਿਆ ਤੇ ਬਰਫੀ ਲੈ ਆਇਆ। ਤੀਜੇ ਦਿਨ ਅਸੀਂ ਬਰਫੀ ਦੇ ਨਾਲ ਗਜਰੇਲਾ ਵੀ ਖਾਧਾ। ਫੇਰ ਤਾਂ ਸਾਡਾ ਮੂੰਹ ਹੀ ਪੈ ਗਿਆ। ਅਲਮਾਰੀ `ਚੋਂ ਬੰਡਲ ਤੁਰੇ ਆਉਂਦੇ ਤੇ ਅਮਰੀ ਦੀ ਤੱਕੜੀ `ਤੇ ਤੁਲੀ ਜਾਂਦੇ। ਬਰਫੀ ਸਾਡੇ ਢਿੱਡਾਂ ਵਿੱਚ ਪਈ ਜਾਂਦੀ। ਉਤੋਂ ਤਖਤੂਪੁਰੇ ਦਾ ਮੇਲਾ ਆ ਗਿਆ। ਅਸੀਂ ਉਹਦੇ ਲਈ ਵੀ ਪੈਸੇ ਜੋੜਨੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਲਏ। ਪੰਦਰਾਂ ਵੀਹਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਅਸੀਂ ਬੰਡਲਾਂ ਨਾਲ ਤੂੜੀ ਸਾਰੀ ਅਲਮਾਰੀ ਬੰਨੇ ਲਾ ਦਿੱਤੀ। ਸਕੂਲ ਦੀ ਜਿੰਦੀ ਦੀ ਥਾਂ ਅਸੀਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਆਪਣੀ ਜਿੰਦੀ ਠੋਕ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਜਿਵੇਂ ਅਸੀਂ ਓ ਅਲਮਾਰੀ ਦੇ ਅਸਲੀ ਮਾਲਕ ਹੋਈਏ। ਉਹ ਜਿੰਦੀ ਵੀ ਅਮਰੀ ਦੀ ਹੱਟੀ ਤੋਂ ਈ ਖਰੀਦੀ ਸੀ ਜੀਹਦੀ ਚਾਬੀ ਸਾਡੀ ਜੇਬ `ਚ ਹੁੰਦੀ ਸੀ।।
ਰੱਦੀ ਨੂੰ ਸਾਡਾ ਅਜਿਹਾ ਮੂੰਹ ਪਿਆ ਕਿ ਸਕੂਲ ਦੀਆਂ ਅਸੀਂ ਸਾਰੀਆਂ ਅਲਮਾਰੀਆਂ ਛਾਣ ਮਾਰੀਆਂ। ਡਰਾਇੰਗ ਰੂਮ ਦੀ ਇੱਕ ਪੇਟੀ ਵਿੱਚ ਅਖ਼ਬਾਰ ਪਏ ਲੱਭ ਗਏ। ਫਿਰ ਅਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵਾਢਾ ਧਰ ਲਿਆ। ਅਲਮਾਰੀ ਦੇ ਬੰਡਲਾਂ ਵਾਂਗ ਕਰਨ ਤਾਂ ਸਫਾਇਆ ਈ ਲੱਗੇ ਸੀ ਪਰ ਦੂਰ ਦੀ ਸੋਚ ਕੇ ਚਾਲੂ ਮਹੀਨੇ ਦੇ ਅਖ਼ਬਾਰ ਪੇਟੀ `ਚ ਪਏ ਰਹਿਣ ਦਿੱਤੇ। ਮਸਤ ਇੱਕ ਸ਼ਤੀਰੀ ਚੁੱਕਣ ਨੂੰ ਫਿਰਦਾ ਸੀ ਜੋ ਉਹਦੇ ਚਾਚੇ ਗੋਖੇ ਨੇ ਕੋਠਾ ਛੱਤਣ ਵੇਲੇ ਚਾੜ੍ਹ ਲੈਣੀ ਸੀ ਪਰ ਏਡੀ ਵੱਡੀ ਚੋਰੀ ਕਰਨ ਦਾ ਉਹਦਾ ਹੀਆਂ ਨਾ ਪਿਆ। ਇੱਕ ਦਿਨ ਅਮਰੀ ਨੇ ਮਸਤ ਨੂੰ ਪੁੱਛਿਆ, "ਜੇ ਮਾਮਲਾ ਗੜਬੜ ਐ ਤਾਂ ਰੱਦੀ ਮੈਂ ਪਿੰਡ `ਚ ਨੀ ਲਾਉਂਦਾ, ਅੱਗੇ ਸ਼ਹਿਰ `ਚ ਵੇਚ ਆਊਂ।" ਮਸਤ ਨੇ ਵੀ ਸਾਫ ਈ ਦੱਸ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਹੈ ਤਾਂ ਗੜਬੜ, ਅੱਗੋਂ ਤੇਰੀ ਮਰਜ਼ੀ। ਰੱਬ ਜਾਣੇ ਸਾਡੀ ਇਸ ਚੋਰੀ ਦਾ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਜਾਂ ਨਹੀਂ? ਪਰ ਏਨਾ ਜ਼ਰੂਰ ਪਤਾ ਲੱਗ ਗਿਆ ਪਈ ਪਤਾ ਨੀ ਲੱਗਦਾ ਬੰਦਾ ਕਦੋਂ ਚੋਰ ਬਣ ਜਾਂਦੈ!
ਮਾਘ ਫੱਗਣ `ਚ ਘੁਲਾੜੀਆਂ ਚੱਲ ਪਈਆਂ ਸਨ। ਅਸੀਂ ਲੈਂਪ ਦੇ ਚਾਨਣ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਸਾਂ ਕਿ ਕਿਸੇ ਨੇ ਕੁੰਡਾ ਆ ਖੜਕਾਇਆ। ਬਾਹਰ ਨਿਕਲ ਕੇ ਵੇਖਿਆ ਤਾਂ ਮਿਲਖਾ ਸਿਓਂ ਕਾ ਧੀਰਾ ਗੱਟੇ `ਚ ਗੁੜ ਲਈ ਖੜ੍ਹਾ ਸੀ। ਉਹ ਅੰਦਰ ਆਇਆ ਤੇ ਆਖਣ ਲੱਗਾ, "ਲਓ ਤੱਤਾ ਤੱਤਾ ਖਾ-ਲੋ, ਨਾਲੇ ਦੋ ਤੌੜੇ ਵੀ ਪਾ-ਲੋ। ਆਖੋਂ ਤਾਂ ਮੈਂ ਥੋਨੂੰ ਸ਼ਰਾਬ ਕੱਢਣ ਆਲਾ ਸਮਾਨ ਵੀ ਲਿਆ-ਦੂੰ।" ਗੱਟਾ ਰੱਖ ਕੇ ਉਹ ਆਪ ਤਾਂ ਚਲਾ ਗਿਆ ਪਰ ਸਾਨੂੰ ਪੜ੍ਹਨ ਦੀ ਥਾਂ ਪੁੱਠੇ ਕੰਮ ਲਾ ਗਿਆ। ਹਿਸਾਬ ਦੇ ਸੁਆਲ ਕੱਢਦੇ ਕੱਢਦੇ ਅਸੀਂ ਸ਼ਰਾਬ ਕੱਢਣ ਦੀਆਂ ਸਕੀਮਾਂ ਲਾਉਣ ਲੱਗ ਪਏ। ਘੰਟੇ ਅੱਧੇ ਘੰਟੇ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਡਿਊਟੀਆਂ ਵੀ ਵੰਡ ਲਈਆਂ।
ਮਸਤ ਦੀ ਡਿਊਟੀ ਲੱਗੀ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੇ ਵਿਹੜੇ `ਚੋਂ ਦੋ ਘੜੇ ਚੁੱਕ ਕੇ ਲਿਆਵੇਗਾ। ਉਸ ਮਾਂ ਦੇ ਪੁੱਤ ਨੇ ਓਦੋਂ ਈ ਖੇਸ ਦੀ ਬੁੱਕਲ ਮਾਰੀ ਤੇ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲ ਗਿਆ। ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਵਿਹੜਾ ਬੂਹੇ ਬੰਦ ਕਰੀ ਅੰਦਰੀਂ ਸੁੱਤਾ ਪਿਆ ਸੀ। ਘੜੇ ਬਾਹਰ ਘੜਵੰਜੀਆਂ `ਤੇ ਪਏ ਸਨ। ਇੱਕ ਉਹਨੇ ਆਪਣੇ ਚਾਚੇ ਗੋਖੇ ਦਿਓਂ ਘੜਾ ਚੁੱਕ ਲਿਆ ਤੇ ਦੂਜਾ ਆਪਣੇ ਤਾਏ ਆਰੇ ਕਿਓਂ। ਦੋਹੇਂ ਘੜੇ ਲੈ ਕੇ ਉਹ ਮਿੰਟਾਂ `ਚ ਮੁੜ ਆਇਆ। ਅਸੀਂ ਦੋਹਾਂ ਘੜਿਆਂ `ਚ ਗੁੜ ਪਾਇਆ ਤੇ ਖੂਹੀ `ਚੋਂ ਪਾਣੀ ਕੱਢ ਕੇ ਘੜੇ ਗਲਗੱਸੇ ਕਰ ਲਏ। ਤਰਖਾਣਾਂ ਦੇ ਚਰਨ ਦੀ ਡਿਊਟੀ ਲੱਗੀ ਕਿ ਉਹ ਤੇਸਾ ਲੈ ਕੇ ਕਿੱਕਰ ਦਾ ਸੱਕ ਲਿਆਵੇ। ਮੇਰੀ ਡਿਊਟੀ ਸੀ ਕਿ ਰਾਤ ਨੂੰ ਚਰਨ ਦੇ ਨਾਲ ਜਾਵਾਂ ਤੇ ਆਸੇ ਪਾਸੇ ਨਜ਼ਰ ਰੱਖਾਂ। ਤਾਰੋ ਦੀ ਡਿਊਟੀ ਸੀ ਘੜਿਆਂ ਦੀ ਨਿਗਰਾਨੀ ਰੱਖਣੀ ਕਿ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਨਾ ਲੱਗੇ। ਸੱਕ ਪਾ ਕੇ, ਘੜਿਆਂ ਦਾ ਮੂੰਹ ਬੰਨ੍ਹ ਕੇ ਤੇ ਤਾਰੋ ਕੇ ਬਾਹਰਲੇ ਘਰ ਤੂੜੀ `ਚ ਨੱਪ ਕੇ ਅਸੀਂ ਅੱਧੀ ਰਾਤ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਵਿਹਲੇ ਹੋਏ।
ਅਸੀਂ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਘੜੇ ਪਾਏ ਸੀ ਜਿਹੜੇ ਕਈ ਦਿਨ ਤੂੜੀ `ਚ ਦੱਬੇ ਰਹਿਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਨਾ ਚੱਲੇ। ਹਾਰ ਕੇ ਧੀਰੇ ਦੀ ਮਦਦ ਲਈ। ਉਸ ਨੇ ਨੁਸ਼ਾਦਰ ਦੀਆਂ ਗੋਲੀਆਂ ਪਾ ਕੇ ਘੜੇ ਰੂੜੀ `ਚ ਦੱਬਾਏ ਜੋ ਤੀਜੇ ਦਿਨ ਚੱਲ ਪਏ ਤੇ ਹਫ਼ਤੇ ਕੁ ਬਾਅਦ ਦਾਰੂ ਕੱਢਣ ਵਾਲੀ ਹੋ ਗਈ। ਤਾਰੋ ਕਾ ਬਾਹਰਲਾ ਘਰ ਸੁੰਨਾ ਪਿਆ ਸੀ ਜਿਥੇ ਸਾਥੋਂ ਅਣਜਾਣਾਂ ਤੋਂ ਚਾਰ ਪੰਜ ਬੋਤਲਾਂ ਈ ਨਿਕਲੀਆਂ ਹਾਲਾਂ ਕਿ ਗੁੜ ਦਸਾਂ ਬਾਰਾਂ ਬੋਤਲਾਂ ਦਾ ਸੀ। ਜਿੱਦਣ ਨੌਵੀਂ ਜਮਾਤ ਨੇ ਦਸਵੀਂ ਜਮਾਤ ਨੂੰ ਵਿਦਾਇਗੀ ਪਾਰਟੀ ਦਿੱਤੀ ਉੱਦਣ ਉਹ ਬੋਤਲਾਂ ਲੇਖੇ ਲੱਗੀਆਂ। ਜਦੋਂ ਦਸਵੀਂ ਜਮਾਤ ਦੀ ਗਰੁੱਪ ਫੋਟੋ ਲੱਥਣ ਲੱਗੀ ਤਾਂ ਤਾਰੋ ਸ਼ਰਾਬੀ ਹੋ ਗਿਆ ਤੇ ਫੋਟੋ ਵਿੱਚ ਈ ਨਾ ਆਇਆ। ਪਰ ਮੈਂ ਕੁੱਝ ਹੋਰਨਾਂ ਸ਼ੁਕੀਨਾਂ ਵਾਂਗ ਰੌਸ਼ਨੀ ਦੇ ਮੇਲੇ `ਚੋਂ ਖਰੀਦੀ ਇੱਕ ਆਨੇ ਦੀ ਘੜੀ ਗੁੱਟ `ਤੇ ਸਜਾ ਲਈ। ਗਰੁੱਪ ਫੋਟੋ ਵਿੱਚ ਉਹ ਨਕਲੀ ਘੜੀ ਅਸਲੀ ਘੜੀਆਂ ਵਾਂਗ ਦਿਸਦੀ ਰਹੀ।
ਸਾਡਾ ਦਸਵੀਂ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਜਗਰਾਓਂ ਹੋਣਾ ਸੀ। ਅਸੀਂ ਰੇਲਵੇ ਰੋਡ `ਤੇ ਇੱਕ ਚੁਬਾਰਾ ਕਿਰਾਏ `ਤੇ ਲੈ ਲਿਆ ਤੇ ਇੱਕ ਸਟੋਵ ਖਰੀਦ ਲਿਆ। ਖੋਆ ਤੇ ਘਿਉ ਸਾਡੀਆਂ ਪੀਪੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸੀ। ਰੋਟੀਆਂ ਅਸੀਂ ਹੋਟਲ ਤੋਂ ਮੁੱਲ ਲੈ ਆਉਂਦੇ ਤੇ ਦਾਲ ਸਬਜ਼ੀ ਆਪ ਬਣਾ ਲੈਂਦੇ। ਚੁਬਾਰਾ ਦੇਸੀ ਘਿਓ ਦੇ ਤੜਕੇ ਨਾਲ ਮਹਿਕ ਉੱਠਦਾ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਅਫ਼ਵਾਹ ਉਡਾ ਦਿੱਤੀ ਕਿ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦਾ ਪਰਚਾ ਆਊਟ ਹੋ ਗਿਐ, ਜੀਹਦੀ ਪਹੁੰਚ ਹੈ ਉਹ ਲੈ ਸਕਦੈ। ਮੈਨੂੰ ਰੋਟੀ ਟੁੱਕ ਲਈ ਛੱਡ ਕੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਮੁਹਿੰਮ ਉਤੇ ਚੜ੍ਹ ਗਏ।
ਤਾਰੋ ਦਾ ਇੱਕ ਮਾਮਾ ਮਾਸਟਰ ਸੀ ਜੋ ਦੌਧਰ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ। ਪਹਿਲਾਂ ਉਹ ਉਹਦੇ ਕੋਲ ਗਏ ਤੇ ਉਹਨੂੰ ਨਾਲ ਲੈ ਕੇ ਸਾਰੀ ਰਾਤ ਸਾਈਕਲ ਭਜਾਈ ਫਿਰੇ। ਕਦੇ ਕਿਸੇ ਕੋਲ, ਕਦੇ ਕਿਸੇ ਕੋਲ। ਮੈਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਉਡੀਕਦਾ ਰਿਹਾ ਤੇ ਦੂਜੇ ਦਿਨ ਦੇ ਪਰਚੇ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਵੀ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾ। ਦੂਜੇ ਦਿਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਰਚੇ ਮਾੜੇ ਹੋਏ ਤੇ ਮੇਰਾ ਕੁੱਝ ਠੀਕ ਹੋ ਗਿਆ। ਦੋ ਮਹੀਨੇ ਪਿੱਛੋਂ ਨਤੀਜਾ ਆਇਆ ਤਾਂ ਮੈਂ ਪਾਸ ਸਾਂ ਤੇ ਉਹ ਸਾਰੇ ਫੇਲ੍ਹ ਸਨ। ਡੀ.ਬੀ.ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਛੱਤੀ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ `ਚੋਂ ਛੇ ਜਣੇ ਈ ਪਾਸ ਹੋਏ ਸਨ। ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕੁਲ ਚੌਦਾਂ ਮੁੰਡਿਆਂ ਨੇ ਦਸਵੀਂ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ਪਰ ਪਾਸ ਮੈਂ `ਕੱਲਾ ਈ ਹੋ ਸਕਿਆ। ਜੇ ਫੇਲ੍ਹ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਤਾਂ ਸੰਭਵ ਸੀ ਮੈਂ ਖੇਤੀ ਦੇ ਕੰਮ `ਚ ਪੈ ਜਾਂਦਾ ਜਿਵੇਂ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਦੇ ਕਈ ਜਮਾਤੀ ਪਏ। ਤੇ ਇਹ ਵੀ ਸੰਭਵ ਸੀ ਕਿ ਕੱਦ ਕੱਢ ਕੇ ਮੈਂ ਵੀ ਤਾਰੋ ਵਾਂਗ ਫੌਜ `ਚ ਭਰਤੀ ਹੋ ਜਾਂਦਾ।
ਹਸੰਦਿਆਂ ਖੇਲੰਦਿਆਂ - ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ ਦੀ ਸਵੈ-ਜੀਵਨੀ :: 09 :: Life in M.R. Govt. College Fazilka :: Principal Sarwan Singh Autobiography
Life in M.R. Govt. College Fazilka :: Principal Sarwan Singh Autobiography
ਮੈਂ 1956 ਵਿੱਚ ਮੈਟ੍ਰਿਕ ਕੀਤੀ। ਉਦੋਂ ਮੈ੍ਰਿਟਕ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਪੰਜਾਬ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਲਿਆ ਕਰਦੀ ਸੀ। ਲਾਹੌਰ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਪੂਰਬੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦਾ ਹੈੱਡਕੁਆਟਰ ਸੋਲਨ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਜਿਹੜੀ ਸਨਦ ਮਿਲੀ ਉਸ ਉਪਰ ਸੋਲਨ ਛਪਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਤੇ ਦਸਤਖ਼ਤ ਰਜਿਸਟਰਾਰ ਅਗਨੀਹੋਤਰੀ ਦੇ ਹਨ। ਦਸਵੀਂ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਸਾਰੇ ਮੁੰਡਿਆਂ `ਚੋਂ ਮੈਂ `ਕੱਲਾ ਈ ਪਾਸ ਹੋ ਸਕਿਆਂ ਸਾਂ। ਇਸ ਲਈ ਪਿੰਡ ਦੇ ਲੋਕ ਮੈਨੂੰ ਹੁਸ਼ਿਆਰ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਕਹਿ ਰਹੇ ਸਨ। ਪਰ ਆਈ ਮੇਰੀ ਥਰਡ ਡਿਵੀਜ਼ਨ ਹੀ ਸੀ। ਅੱਕਾਂ `ਚ ਰਿੰਡ ਪ੍ਰਧਾਨ ਹੋਣ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਸੀ। ਬਾਅਦ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਦਸਵੀਂ ਦੇ ਨੰਬਰ ਦੱਸਣੋਂ ਸੰਕੋਚ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾ ਜਦ ਕਿ ਉਦੋਂ ਦੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿੱਚ ਮੇਰਾ ਪਾਸ ਹੋਣਾ ਹੀ ਫਸਟ ਡਿਵੀਜ਼ਨ ਲੈਣ ਵਰਗਾ ਸੀ।
ਉਹਨਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਗੁਰੂਸਰ ਸੁਧਾਰ ਕਾਲਜ ਦਾ ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਇਕਬਾਲ ਸਿੰਘ ਇਲਾਕੇ ਦੇ ਪਾਸ ਹੋਏ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਚਿੱਠੀਆਂ ਪਾ ਕੇ ਵਧਾਈ ਦਿੰਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ਤੇ ਆਪਣੇ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਦਾਖਲ ਹੋਣ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਦਾ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਵੀ ਸੁਧਾਰ ਦਾਖਲ ਹੋਣ ਲਈ ਉਸ ਦੀ ਚਿੱਠੀ ਮਿਲੀ ਸੀ। ਪਰ ਮੇਰਾ ਤਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦੇ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਨ ਦਾ ਮਨ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਕਾਲਜ ਦੇ ਕੋਲ ਈ ਭੂਆ ਦਾ ਪਿੰਡ ਸੀ ਜਿਥੇ ਫੀਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਕੋਈ ਖਰਚਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਹੋਣਾ। ਉਦੋਂ ਕਾਲਜ ਥੋੜ੍ਹੇ ਸਨ ਤੇ ਦੂਰ ਦੁਰਾਡੇ ਸਨ। ਜਗਰਾਓਂ ਵੀ ਅਜੇ ਕਾਲਜ ਨਹੀਂ ਸੀ ਬਣਿਆ। ਇੱਕ ਕਾਲਜ ਮੋਗੇ ਸੀ, ਫਿਰ ਫਿਰੋਜ਼ਪੁਰ ਤੇ ਉਸ ਤੋਂ ਅੱਗੇ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ। ਅਬੋਹਰ, ਮਲੋਟ, ਜਲਾਲਾਬਾਦ ਤੇ ਜ਼ੀਰੇ ਵਰਗੇ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਕਾਲਜ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੁਕਤਸਰ ਵੀ ਮਗਰੋਂ ਕਾਲਜ ਖੁੱਲ੍ਹਿਆ। ਹੁਣ ਤਾਂ ਕਾਲਜ ਉਤੇ ਕਾਲਜ ਚੜ੍ਹਿਆ ਪਿਐ। ਚਕਰ ਨਾਲ ਲੱਗਦੇ ਪਿੰਡ ਲੋਪੋਂ ਵਿੱਚ ਈ ਦੋ ਕਾਲਜ ਹਨ, ਇੱਕ ਕਾਲਜ ਢੁੱਡੀਕੇ ਹੈ, ਇੱਕ ਕਮਾਲਪੁਰੇ ਤੇ ਇੱਕ ਡੱਲੇ ਖੁੱਲ੍ਹ ਚੁੱਕੈ। ਉਦੋਂ ਪਿੰਡਾਂ `ਚੋ ਇੱਕਾ ਦੁੱਕਾ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਹੀ ਕਾਲਜ ਪੜ੍ਹਦੇ ਸਨ ਤੇ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਚਾਰ ਕਾਲਜੀਏਟਾਂ `ਚੋਂ ਇੱਕ ਸਾਂ।ਜੁਲਾਈ ਵਿੱਚ ਕਾਲਜਾਂ ਦੇ ਦਾਖਲੇ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਏ ਤਾਂ ਮੈਂ ਤੜਕਿਓਂ ਈ ਪਿੰਡੋਂ ਤੁਰ ਕੇ ਜਗਰਾਓਂ ਤੋਂ ਸੱਤ ਵਾਲੀ ਗੱਡੀ ਜਾ ਫੜੀ ਤੇ ਦੋ ਵਜਦੇ ਨੂੰ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਪਹੁੰਚ ਗਿਆ। ਗਰਮੀ ਬਹੁਤ ਸੀ। ਘੰਟਾ ਘਰ ਦੇ ਚੌਂਕ ਵਿੱਚ ਰੇੜ੍ਹੀਆਂ ਉਤੇ ਸ਼ਰਦਾਈ ਦੇ ਗਲਾਸ ਵਿਕ ਰਹੇ ਸਨ। ਉਥੇ ਕੂੰਡਿਆਂ `ਚ ਘੁੰਗਰੂਆਂ ਵਾਲੇ ਘੋਟਣੇ ਖੜਕ ਰਹੇ ਸਨ ਜੋ ਰਾਹ ਜਾਂਦਿਆਂ ਦਾ ਧਿਆਨ ਮੱਲੋਮੱਲੀ ਖਿੱਚਦੇ। ਉਹ ਬਰਫ਼ ਇੱਕ ਗੁਥਲੀ `ਚ ਪਾ ਕੇ ਲੱਕੜ ਦੀ ਥਾਪੀ ਨਾਲ ਭੰਨਦੇ ਤੇ ਕੱਚ ਦੇ ਵੱਡੇ ਗਲਾਸਾਂ ਵਿੱਚ ਪਾਉਂਦੇ। ਮੈਂ ਉਥੋਂ ਸ਼ਰਦਾਈ ਦਾ ਗਲਾਸ ਪੀ ਕੇ ਕਾਲਜੇ ਠੰਢ ਪਾਈ। ਸੁਆਦ ਤੋਂ ਲੱਗਿਆ ਸੀ ਕਿ ਸ਼ਰਦਾਈ `ਚ ਬਦਾਮ, ਖਸਖਸ, ਇਲਾਇਚੀ, ਕਾਲੀ ਮਿਰਚ ਤੇ ਮਗ਼ਜ਼ ਪਾਏ ਸਨ। ਦੁੱਧ ਤੇ ਖੰਡ ਨਾਲ ਉਹਦਾ ਸੁਆਦ ਬਹੁਤ ਮਿੱਠਾ ਤੇ ਸੰਘਣਾ ਸੀ।
ਉੱਨ ਬਾਜ਼ਾਰ, ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਚੁੰਗੀ ਤੇ ਡੀ.ਏ.ਵੀ.ਸਕੂਲ ਕੋਲ ਦੀ ਲੰਘ ਕੇ ਮੈਂ ਕਾਲਜ ਅੱਗੋਂ ਦੀ ਲੰਘਣ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਪੀਲੀ ਇਮਾਰਤ ਉਤੇ ਉੱਕਰੇ ਮੁਨਸ਼ੀ ਰਾਮ ਕਾਲਜ ਦੇ ਵੱਡੇ ਕਾਲੇ ਅੱਖਰ ਪੜ੍ਹੇ। ਕਾਲਜ ਦੇ ਘੰਟਾਘਰ ਵਰਗੇ ਦੋ ਉੱਚੇ ਬੁਰਜ ਬਿਲਡਿੰਗ ਦੀ ਸ਼ਾਨ ਸਨ। ਚੜ੍ਹਦੇ ਪਾਸੇ ਹੋਸਟਲ ਸੀ ਤੇ ਪਿਛਲੇ ਪਾਸੇ ਖੇਡਣ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਸਨ। ਮੂਹਰੇ ਬਹੁਤ ਵੱਡਾ ਲਾਅਨ ਸੀ। ਕਾਲਜ ਦੀ ਤਿੰਨ ਚਾਰ ਫੁੱਟ ਉੱਚੀ ਕੰਧ ਨਿੱਕੀਆਂ ਨਿੱਕੀਆਂ ਥੰਮ੍ਹਲੀਆਂ ਵਾਲੀ ਸੀ ਜੀਹਦੇ ਪਿਛਲੇ ਪਾਸੇ ਸਾਈਕਲ ਸਟੈਂਡ ਸੀ। ਗੇਟ ਖੁੱਲ੍ਹਾ ਸੀ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਮੈਂ ਅੰਦਰ ਚਲਾ ਗਿਆ ਸਾਂ। ਮੈਂ ਕਾਲਜ ਦੇ ਨਲਕੇ ਤੋਂ ਮੂੰਹ ਧੋਤਾ ਤੇ ਪਾਣੀ ਪੀਤਾ। ਪਾਣੀ ਸੁਆਦ ਸੀ ਜੋ ਮੈਂ ਕਈ ਸਾਲ ਪੀਣਾ ਸੀ।
ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਨਵੇਂ ਕਪੜੇ ਪਾ ਕੇ ਕਾਲਜ ਆਇਆ ਤਾਂ ਨਵੇਂ ਮੁੰਡੇ ਦਾਖਲ ਹੋ ਰਹੇ ਸਨ ਤੇ ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਮੌਜੂ ਉਡਾ ਰਹੇ ਸਨ। ਮੇਰੇ ਦੁਆਲੇ ਵੀ ਕੁੱਝ ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਆਣ ਜੁੜੇ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਮਖੌਲ ਕੀਤੇ ਤੇ ਗੱਲ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਹੱਥ ਲਾਏ। ਮੈਂ ਉਦੋਂ ਲਵਾ ਮੁੰਡਾ ਸਾਂ ਤੇ ਮੁੱਛ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਫੁੱਟੀ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਬਿੱਲੋ ਕਿਹਾ ਤੇ ਕਿਸੇ ਨੇ ਭਾਬੀ। ਮੈਨੂੰ ਗੁੱਸਾ ਤਾਂ ਬਹੁਤ ਆਇਆ ਪਰ ਕਰਦਾ ਕੀ? ਉਦੋਂ ਨਵੇਂ ਆਏ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਦੀ ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਰੈਗਿੰਗ ਹੁੰਦੀ ਹੀ ਸੀ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਅਛੋਪਲੇ ਹੀ ਮੇਰੀ ਕਮੀਜ਼ ਦੇ ਪਿਛਲੇ ਪਾਸੇ ਕਾਗਜ਼ ਚਿਪਕਾ ਦਿੱਤਾ। ਮੈਂ ਘਰ ਮੁੜ ਕੇ ਕਮੀਜ਼ ਲਾਹੀ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਚਿਪਕਾਏ ਹੋਏ ਕਾਗਜ਼ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗਾ। ਉਹਦੇ ਉਤੇ ਲਿਖਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ-ਰਾਊਂਡ ਫੂਲ! ਇਹਦਾ ਮਤਲਬ ਸੀ ਕਿ ਮੈਂ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਤੇ ਰਸਤੇ `ਚ ਰਾਊਂਡ ਫੂਲ ਈ ਬਣਿਆ ਆਇਆ ਸਾਂ। ਸ਼ੁਕਰ ਐ ਮੈਨੂੰ ਕਿਸੇ ਨੇ ਬਲੱਡੀ ਫੂਲ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਜਿਵੇਂ ਫਿਰੋਜ਼ ਦੀਨ ਸ਼ਰਫ਼ ਨੇ ਲਿਖਿਆ ਸੀ-ਜੀਂਦੇ ਰਹੇ ਜੇ ਪੁੱਤ ਅਕਾਲੀਆਂ ਦੇ ਅਸਾਂ ਫੂਲ ਬਲੱਡੀ ਨਹੀਂ ਕਹਿਣ ਦੇਣਾ।
ਉਹਨਾਂ ਦਿਨਾਂ `ਚ ਦੋ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀ ਐੱਫ.ਏ.ਹੁੰਦੀ ਸੀ ਤੇ ਦੋ ਦੀ ਬੀ.ਏ.। ਐੱਫ.ਏ.`ਚ ਚਾਰ ਮਜ਼ਮੂਨ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਲਾਜ਼ਮੀ ਸੀ। ਮੈਂ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦੇ ਨਾਲ ਪੰਜਾਬੀ, ਸਵਿਕਸ ਤੇ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਰੱਖੇ। ਪੰਜਾਬੀ ਮੇਰਾ ਮਨਭਾਉਂਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਸੀ। ਪੰਜਾਬੀ ਪੜ੍ਹਾਉਣ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰੋ.ਗੁਰਬਖ਼ਸ਼ ਸਿੰਘ ਸੱਚਦੇਵ ਸਨ। ਮੱਲ੍ਹੇ ਦੇ ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਵਿੱਚ ਪੰਜਾਬੀ ਮੈਂ ਕੌਂਕਿਆਂ ਦੇ ਗਿਆਨੀ ਦਲੀਪ ਸਿੰਘ ਤੋਂ ਪੜ੍ਹਿਆ ਸਾਂ ਤੇ ਪ੍ਰਾਇਮਰੀ ਵਿੱਚ ਮਾਸਟਰ ਰਾਮ ਸਿੰਘ ਤੋਂ। ਮੈਨੂੰ ਪੰਜਾਬੀ ਦੇ ਤਿੰਨੇ ਉਸਤਾਦ ਵਧੀਆ ਮਿਲੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਮੁੱਢ ਤੋਂ ਹੀ ਸ਼ੁਧ ਲਿਖਾਈ ਕਰਨੀ ਸਿਖਾ ਦਿੱਤੀ ਸੀ। ਮੈਂ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਪ੍ਰਾਇਮਰੀ ਜਮਾਤਾਂ ਤੋਂ ਹੀ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਸ਼ੁਧ ਲਿਖਾਈ ਕਰਾਉਣ ਵਾਲੇ ਉਸਤਾਦ ਮਿਲਣੇ ਚਾਹੀਦੇ ਹਨ। ਬਾਅਦ ਵਿੱਚ ਗ਼ਲਤ ਲਿਖਾਈ ਸ਼ੁਧ ਕਰਨੀ ਬੜੀ ਮੁਸ਼ਕਲ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
ਸਾਡਾ ਪੰਜਾਬੀ ਦਾ ਪੀਰੀਅਡ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਪਹਿਲੇ ਦਿਨ ਜਾਣ ਪਛਾਣ ਹੀ ਹੋਈ। ਸਾਨੂੰ 'ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਮੇਰਾ ਪਹਿਲਾ ਦਿਨ' ਸਿਰਲੇਖ ਅਧੀਨ ਲੇਖ ਲਿਖ ਕੇ ਲਿਆਉਣ ਲਈ ਕਿਹਾ ਗਿਆ। ਗਿਅ੍ਹਾਰਵੀਂ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਸੌ ਤੋਂ ਵੱਧ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਸਾਂ ਪਰ ਪੰਜਾਬੀ ਪੜ੍ਹਨ ਵਾਲੇ ਮਸਾਂ ਵੀਹ ਕੁ ਸਨ ਤੇ ਉਹ ਵੀ ਸਾਰੇ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਮੁੰਡੇ ਕੁੜੀਆਂ। ਹਵਾ ਈ ਕੁੱਝ ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਸੀ ਕਿ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਬੱਚੇ ਪੰਜਾਬੀ ਪੜ੍ਹਦੇ ਸਨ ਤੇ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੇ ਹਿੰਦੀ। ਪੰਜਾਬੀ ਸੂਬੇ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿੱਚ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਪੰਜਾਬੀ ਹਿੰਦੂ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਬੋਲੀ ਪੰਜਾਬੀ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋ ਗਏ ਸਨ ਤੇ ਹਿੰਦੀ ਨੂੰ ਮਾਤ ਭਾਸ਼ਾ ਲਿਖਵਾਉਣ ਲੱਗ ਪਏ ਸਨ। ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੂ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਦੀ ਬਹੁਗਿਣਤੀ ਸੀ। ਪੰਜਾਬੀ ਬੋਲੀ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਪੰਜਾਬੀ ਅਖ਼ਬਾਰਾਂ ਰਾਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ ਤੇ ਹਿੰਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਦਾ ਉਰਦੂ ਤੇ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਅਖ਼ਬਾਰਾਂ ਰਾਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਪੰਜਾਬ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੀ ਦੇ ਅਖ਼ਬਾਰ ਉਦੋਂ ਪ੍ਰਚਲਤ ਨਹੀਂ ਸਨ ਹੋਏ।
ਕਾਲਜ ਦੇ ਤਿੰਨ ਕੁ ਸੌ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ `ਚ ਕੁੜੀਆਂ ਮਸਾਂ ਪੰਦਰਾਂ ਵੀਹ ਹੀ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਮੁੰਡੇ ਵੇਖਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਤੇ ਉਹ ਨੀਵੀਂ ਪਾਈ ਰੱਖਦੀਆਂ। ਪੰਜਾਬੀ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਕੋਈ ਕੁੜੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਪੜ੍ਹਦੀ ਕਿਉਂਕਿ ਕੁੜੀਆਂ ਸਨ ਹੀ ਮਹਾਜਨਾਂ ਦੀਆਂ। ਉਹ ਹਿੰਦੀ ਪੜ੍ਹਦੀਆਂ ਸਨ। ਕੁੱਝ ਮੁੰਡੇ, ਕੁੜੀਆਂ ਨਾਲ ਪੜ੍ਹਨ ਦੀ ਖਾਤਰ ਹਿੰਦੀ ਪੜ੍ਹਨ ਲੱਗ ਪਏ ਸਨ। ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਦਾ ਇੱਕ ਭਾਊ ਵੀ ਪੰਜਾਬੀ ਛੱਡ ਕੇ ਹਿੰਦੀ ਦੀ ਕਲਾਸ ਵਿੱਚ ਜਾਣ ਨੂੰ ਫਿਰਦਾ ਸੀ ਜੀਹਨੂੰ ਅਸੀਂ ਮਸਾਂ ਰੋਕਿਆ। ਜੇ ਕੋਈ ਕੁੜੀ ਪੰਜਾਬੀ ਪੜ੍ਹਦੀ ਹੁੰਦੀ ਤਾਂ ਸੰਭਵ ਸੀ ਹੋਰ ਮੁੰਡੇ ਵੀ ਪੰਜਾਬੀ ਪੜ੍ਹਨ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ। ਕੋਈ ਮੰਨੇ ਨਾ ਮੰਨੇ, ਮੁੰਡੇ ਕੁੜੀਆਂ ਪਿੱਛੇ ਜਾਣੋ ਨਹੀਂ ਹਟਦੇ। ਟਿਊਸ਼ਨਾਂ ਪੜ੍ਹਾਉਣ ਵਾਲੇ ਇਕੋ ਸੋਹਣੀ ਕੁੜੀ ਨੂੰ ਟਿਊਸ਼ਨ ਪੜ੍ਹਨ ਲਾ ਲੈਣ ਤਾਂ ਉਹਦੇ ਪਿੱਛੇ ਮੁੰਡੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਈ ਆ ਜਾਂਦੇ ਹਨ!
ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਅਸੀਂ ਆਪੋ ਆਪਣੇ ਲੇਖ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਸੁਣਾਏ। ਮੇਰਾ ਲੇਖ ਪ੍ਰੋ.ਸੱਚਦੇਵ ਨੇ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਸਲਾਹਿਆ ਤੇ ਕਾਲਜ ਦੇ ਮੈਗਜ਼ੀਨ ਵਿੱਚ ਛਾਪਣ ਲਈ ਲੈ ਲਿਆ। ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਉਹ ਕਿਉਂ ਚੰਗਾ ਲੱਗਾ? ਸੋਧ ਸਾਧ ਕੇ ਉਹ ਕਾਲਜ ਦੇ ਮੈਗਜ਼ੀਨ 'ਫਾਊਂਟੇਨ' ਵਿੱਚ ਛਾਪਿਆ ਗਿਆ। ਉਹ ਮੇਰੀ ਛਪੀ ਹੋਈ ਪਹਿਲੀ ਲਿਖਤ ਸੀ। ਫਾਊਂਟੇਨ ਵਿੱਚ ਕਿਸੇ ਕੁੜੀ ਦੇ ਨਾਂ ਹੇਠ ਛਪੀ ਇੱਕ ਕਵਿਤਾ 'ਦੁਨੀਆਂ ਯਾਰ ਦੁਰੰਗੀ ਏ' ਮੈਨੂੰ ਹੁਣ ਤਕ ਯਾਦ ਹੈ। ਉਹਦਾ ਇੱਕ ਬੰਦ ਸੀ:
-ਚੰਗਾ ਪਹਿਨ ਕੇ ਦੁਨੀਆਂ ਕੋਲੋਂ ਗੁੰਡਾ ਨਾਮ ਧਰਾਂਦਾ ਏ,
ਹੋਣ ਮੈਲੇ ਦੁਰਕਾਰੇ ਤਾਂ ਵੀ ਨਾ ਕੋਈ ਕੋਲ ਬਹਾਂਦਾ ਏ,
ਨਾਲੇ ਆਖਣ ਦੁਨੀਆਂ ਵਾਲੇ ਇਹਨੂੰ ਅੱਜ ਕੱਲ੍ਹ ਤੰਗੀ ਏ, ਦੁਨੀਆਂ ਯਾਰ ਦੁਰੰਗੀ ਏ …।
ਪ੍ਰੋ.ਸੱਚਦੇਵ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਮੈਗਜ਼ੀਨ ਲਈ ਲਿਖਣ ਦਾ ਸ਼ੌਂਕ ਪਾ ਦਿੱਤਾ। 'ਲੋਕ ਗੀਤਾਂ ਵਿੱਚ ਗੋਰਾ ਰੰਗ' ਦੇ ਸਿਰਲੇਖ ਥੱਲੇ ਮੈਂ ਪੱਚੀ ਤੀਹ ਲੋਕ ਗੀਤ ਮੈਗਜ਼ੀਨ ਵਿੱਚ ਛਪਵਾਏ। ਪਾਊਡਰ ਬਾਰੇ ਇੱਕ ਟੱਪਾ ਸੀ-ਗੋਰਾ ਰੰਗ ਡੱਬੀਆਂ ਵਿੱਚ ਆਇਆ ਕਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਖ਼ਬਰ ਕਰੋ। ਉਦੋਂ ਫੋਟੋ ਖਿਚਾਉਣ ਵੇਲੇ ਮੂੰਹ `ਤੇ ਪਾਊਡਰ ਮਲਿਆ ਜਾਂਦਾ ਸੀ ਤਾਂ ਕਿ ਮੂੰਹ ਗੋਰਾ ਦਿਸੇ। ਇੱਕ ਲੇਖ ਮੈਂ 'ਛੜਿਆਂ ਦੇ ਲੋਕ ਗੀਤ' ਲਿਖਿਆ। ਉਹਦੇ ਕੁੱਝ ਟੱਪੇ ਜ਼ਿਕਰਯੋਗ ਹਨ-ਛੜਿਆਂ ਦਾ ਸੌਂਕ ਬੁਰਾ ਕੱਟਾ ਮੁੰਨ ਕੇ ਝਾਂਜਰਾਂ ਪਾਈਆਂ। ਇੱਕ ਸੀ-ਛੜੇ ਬੈਠ ਕੇ ਸਲਾਹਾਂ ਕਰਦੇ ਕੌਣ ਕੌਣ ਹੋਈਆਂ ਰੰਡੀਆਂ? ਇੱਕ ਟੱਪਾ ਹੋਰ ਸੀ-ਰੰਨਾਂ ਵਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਰੋਣ ਨਿਆਣੇ ਛੜਿਆਂ ਨੂੰ ਰੋਣ ਬਿੱਲੀਆਂ।
ਅਸੀਂ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਬੈਂਚਾਂ ਉਤੇ ਬਹਿ ਕੇ ਪੜ੍ਹਦੇ ਸਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਉਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਦੇ ਨਾਂ ਵੀ ਖੁਣੇ ਹੋਏ ਸਨ। ਉਹ 1947 ਤਕ ਇਨ੍ਹਾਂ ਬੈਂਚਾਂ ਉਤੇ ਬਹਿ ਕੇ ਪੜ੍ਹਦੇ ਰਹੇ ਸਨ ਤੇ ਬੈਠੇ ਬੈਠੇ ਕਿਸੇ ਤਿੱਖੀ ਚੀਜ਼ ਨਾਲ ਨਾਂ ਖੁਰਚੀ ਗਏ ਸਨ। ਬੇਸ਼ਕ ਉਹ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਚਲੇ ਗਏ ਸਨ ਪਰ ਆਪਣੇ ਨਾਵਾਂ ਦੀਆਂ ਨਿਸ਼ਾਨੀਆਂ ਪਿੱਛੇ ਛੱਡ ਗਏ ਸਨ। ਮੁਨਸ਼ੀ ਰਾਮ ਕਾਲਜ1940 ਵਿੱਚ ਬਣਿਆ ਸੀ। ਮੁਨਸ਼ੀ ਰਾਮ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ ਦਾ ਬੇਉਲਾਦਾ ਬਾਣੀਆ ਸੀ। ਲੋਕ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੇ ਸਨ ਪਈ ਆਪਣੇ ਘਰ ਵਾਸਤੇ ਉਹ ਏਨਾ ਕੰਜੂਸ ਸੀ ਕਿ ਸਸਤੀ ਹੋਈ ਬੇਹੀ ਸਬਜ਼ੀ ਖਰੀਦਿਆ ਕਰਦਾ ਸੀ ਪਰ ਦਾਨ ਦੇਣ ਵੇਲੇ ਉਹਦਾ ਦਿਲ ਦਰਿਆ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਉਸ ਨੇ ਇੱਕ ਧਰਮਸ਼ਾਲਾ ਬਣਾਈ, ਇੱਕ ਕਾਲਜ ਖੋਲ੍ਹਿਆ ਤੇ ਪੁੰਨ ਦਾਨ ਦੇ ਹੋਰ ਵੀ ਕਈ ਕਾਰਜ ਕੀਤੇ। ਮੇਰੇ ਪੜ੍ਹਨ ਦੇ ਸਮੇਂ ਦੌਰਾਨ ਕਦੇ ਵੀ ਮੁਨਸ਼ੀ ਰਾਮ ਦਾ ਜਨਮ ਦਿਨ ਜਾਂ ਬਰਸੀ ਬਗ਼ੈਰਾ ਨਹੀਂ ਮਨਾਏ ਗਏ ਤੇ ਨਾਂ ਹੀ ਉਹਦੀ ਸ਼ਖਸੀਅਤ ਬਾਰੇ ਕੁੱਝ ਛਾਪਿਆ ਗਿਆ। ਹੁਣ ਤਾਂ ਉਹ ਕਾਲਜ ਪੰਜਾਬ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਆਪਣੇ ਹੱਥਾਂ `ਚ ਲੈ ਲਿਆ ਹੈ ਤੇ ਅਧਿਆਪਕਾਂ ਖੁਣੋਂ ਪੰਜਾਬ ਰੋਡਵੇਜ਼ ਦੀ ਲਾਰੀ ਬਣਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਹੁਣ ਮਹਾਂ ਦਾਨੀ ਮੁਨਸ਼ੀ ਰਾਮ ਨੂੰ ਕੀਹਨੇ ਯਾਦ ਕਰਨਾ ਹੈ?
ਇਕ ਸ਼ਾਮ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਵਰਾਇਟੀ ਸ਼ੋਅ ਹੋਣਾ ਸੀ ਯਾਨੀ ਰੰਗਾ ਰੰਗ ਪਰੋਗਰਾਮ ਸੀ। ਸਾਡੀ ਭੰਗੜੇ ਦੀ ਟੀਮ ਤਿਆਰ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਮੈਂ ਸਭ ਤੋਂ ਹੌਲਾ ਸਾਂ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਮੈਨੂੰ ਮੋਢਿਆਂ `ਤੇ ਚੜ੍ਹਾ ਕੇ ਗੇੜਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਸੀ। ਇੱਕ ਮੁੰਡੇ ਨੇ ਫਿਲਮੀ ਦੁਗਾਣੇ ਨਾਲ ਡਾਨਸ ਕਰਨਾ ਸੀ ਪਰ ਉਹਦਾ ਸਾਥ ਦੇਣ ਲਈ ਕੋਈ ਕੁੜੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਲੱਭ ਰਹੀ। ਕਾਲਜ ਦੀਆਂ ਕੁੜੀਆਂ ਉਦੋਂ ਮੁੰਡਿਆਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਸਨ ਨੱਚਦੀਆਂ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਅਸੀਂ ਕੁੜੀਆਂ ਵਾਲੇ ਕਪੜੇ ਦੇ ਦੇਵਾਂਗੀਆਂ ਤੁਸੀਂ ਕਿਸੇ ਅਣਦਾੜ੍ਹੀਏ ਮੁੰਡੇ ਨੂੰ ਪੁਆ ਕੇ ਨਚਾ ਲਓ। ਉਦੋਂ ਕੁੜੀਆਂ ਦੇ ਰੋਲ ਆਮ ਕਰ ਕੇ ਮੁੰਡੇ ਈ ਕਰਿਆ ਕਰਦੇ ਸਨ। ਭੰਗੜੇ ਵਾਲੇ ਮੇਰੇ ਸਾਥੀਆਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਕੁੜੀ ਦਾ ਰੋਲ ਕਰਨ ਲਈ ਤਿਆਰ ਕਰ ਲਿਆ।
ਮੈਂ ਸੋਲ੍ਹਾਂ ਸਾਲਾਂ ਦਾ ਕੁੜੀਆਂ ਵਰਗਾ ਹੀ ਮੁੰਡਾ ਸਾਂ। ਮੇਰੇ ਲੰਮੇ ਕਾਲੇ ਕੇਸ ਸਨ ਤੇ ਮੁੱਛ ਅਜੇ ਫੁੱਟੀ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੇਰੀਆਂ ਦੋ ਗੁੱਤਾਂ ਕੀਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਉਦੋਂ ਆਮ ਫੈਸ਼ਨ ਸੀ। ਤਵੇ ਦਾ ਗੀਤ ਸੀ-ਮਾਏ ਮੇਰੀਏ ਨੀ ਮੈਨੂੰ ਬੜਾ ਚਾਅ, ਦੋ ਗੁੱਤਾਂ ਕਰ ਮੇਰੀਆਂ। ਮੇਰੀਆਂ ਗੁੱਤਾਂ `ਚ ਪਰਾਂਦੀਆਂ ਤੇ ਰੰਗ ਬਰੰਗੀਆਂ ਫੁੱਲਚਿੜੀਆਂ ਪਾਈਆਂ ਗਈਆਂ। ਮੂੰਹ `ਤੇ ਪਾਊਡਰ ਮਲ ਕੇ ਸੁਰਖ਼ੀ ਬਿੰਦੀ ਲਾਈ ਗਈ। ਨੋਕਦਾਰ ਅੰਗੀ ਹੇਠਾਂ ਰਬੜ ਦੀਆਂ ਗੇਂਦਾ ਰੱਖ ਕੇ ਤਣੀਆਂ ਕਸੀਆਂ ਗਈਆਂ ਜੋ ਮਸਾਂ ਪੂਰੀਆਂ ਆਈਆਂ। ਗੇਂਦਾਂ 'ਹਰ ਚੀਜ਼ ਮਿਲੇਗੀ ਇੱਕ ਆਨਾ' ਵਾਲੀ ਰੇੜ੍ਹੀ ਤੋਂ ਮਿਲ ਗਈਆਂ ਸਨ। ਲੱਕ ਉਤੇ ਰੇਸ਼ਮੀ ਗਰਾਰਾ ਬੰਨ੍ਹਿਆ ਗਿਆ ਤੇ ਉਹਦਾ ਰੰਗੀਨ ਨਾਲਾ ਥੋੜ੍ਹਾ ਜਿਹਾ ਲਟਕਾਇਆ ਗਿਆ। ਅੱਖਾਂ `ਚ ਕਜਲੇ ਦੀ ਧਾਰੀ ਖਿੱਚੀ ਗਈ ਤੇ ਪੈਰੀਂ ਝਾਂਜਰਾਂ ਪਾਈਆਂ ਗਈਆਂ।
ਸਟੇਜ ਉਤੇ ਚੜ੍ਹਨ ਦਾ ਝਾਕਾ ਤਾਂ ਮੇਰਾ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਖੁੱਲ੍ਹਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਮੇਰੀ ਮੇਕ ਅੱਪ ਕਰ ਕੇ ਜਦੋਂ ਮੈਨੂੰ ਸਟੇਜ `ਤੇ ਚਾੜ੍ਹਿਆ ਤੇ ਪਰਦਾ ਚੁੱਕਿਆ ਗਿਆ ਤਾਂ ਮੈਂ ਮਧੂ ਬਾਲਾ ਨੂੰ ਮਾਤ ਪਾ ਰਿਹਾ ਸਾਂ! ਨੱਚਦਾ ਹੋਇਆ ਹੈਲਨ ਵਾਂਗ ਗੇੜਾ ਦਿੰਦਾ ਤਾਂ ਬਿੰਦੇ ਝੱਟੇ ਤਾੜੀਆਂ ਵੱਜਦੀਆਂ ਤੇ ਕਾਲਜ ਦੇ ਲੋਫਰ ਮੁੰਡੇ 'ਹਾਏ ਮਰਗੇ' ਤੇ 'ਮਾਰ ਲਿਆ ਈ' ਕੂਕਦੇ। ਮੈਂ ਕਿਹੜਾ ਕੁੜੀ ਸਾਂ? ਮੈਂ ਵੀ ਭੰਗੜੇ ਵਾਲਿਆਂ ਦਾ ਚੰਭਲਾਇਆ ਅੱਖ ਮਟੱਕਾ ਕਰੀ ਗਿਆ। ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਕਈ ਦਿਨ ਗੱਲਾਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਰਹੀਆਂ ਕਿ ਜਿੰਦਾ ਡਾਨਸ ਵਾਲੀ ਕੁੜੀ ਕੌਣ ਸੀ? ਅੱਜ ਮੈਂ ਖੁੱਲ੍ਹੀ ਦਾੜ੍ਹੀ ਨਾਲ ਵੇਖਣ ਨੂੰ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਦਾ ਗਿਆਨੀ ਧਿਆਨੀ ਲੱਗਦਾ ਹਾਂ। ਲੱਗਦਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਕਿ ਕਦੇ ਜ਼ਿੰਦਾ ਡਾਨਸ ਵਾਲਾ ਕੰਜਰਖਾਨਾ ਕੀਤਾ ਹੋਵੇਗਾ। ਪਰ ਓਦੋਂ ਚੜ੍ਹਦੀ ਜੁਆਨੀ ਓਨੀ ਓ ਮਸਤਾਨੀ ਸੀ ਜਿੰਨੀ ਕਿਸੇ ਦੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਸੀ।
ਕਾਲਜ ਦੇ ਹੋਸਟਲ ਵਿੱਚ ਗੰਗਾ ਨਗਰ, ਅਬੋਹਰ ਤੇ ਮਲੋਟ ਵੱਲ ਦੇ ਪੇਂਡੂ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਰਹਿੰਦੇ ਸਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕਮਰਿਆਂ ਵਿੱਚ ਦੇਸੀ ਘਿਓ ਦੀਆਂ ਪੀਪੀਆਂ ਪਈਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਤੇ ਉਹ ਪਹਾੜੀਏ ਰਸੋਈਏ ਤੋਂ ਦਾਲ ਸਬਜ਼ੀ ਨੂੰ ਤੜਕੇ ਲੁਆ ਕੇ ਫੁਲਕੇ ਪੇਲਦੇ। ਫਿਰ ਉਹ ਹੋਸਟਲ ਦੇ ਹਾਤੇ `ਚ ਪਿਆ ਸੋਲਾਂ ਪੌਂਡ ਦਾ ਗੋਲਾ ਸੁੱਟਦੇ ਤੇ ਭਾਰੇ ਮੁਗਦਰ ਦੇ ਬਾਲੇ ਕੱਢਦੇ। ਮੈਂ ਵੀ ਵਿਹਲੇ ਪੀਰੀਅਡ ਵਿੱਚ ਗੋਲੇ ਤੇ ਮੁਗਦਰ ਨਾਲ ਜ਼ੋਰ ਅਜ਼ਮਾਈ ਕਰਦਾ। ਬਣਵਾਲੇ ਦੇ ਨਿਰਭੈ ਸਿੰਘ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਗੋਲਾ ਸੁੱਟਣ ਲਾਇਆ ਜਿਸ ਦੀ ਪ੍ਰੈਟਿਸ ਕਰ ਕੇ ਬਾਅਦ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਦਿੱਲੀ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦਾ ਚੈਂਪੀਅਨ ਬਣਿਆ। ਭੂਆ ਦੇ ਪਿੰਡ ਕੋਠੇ ਰਹਿੰਦਿਆਂ ਮੈਨੂੰ ਖੁਰਾਕ ਦੀ ਕੋਈ ਕਮੀ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਦੁੱਧ ਘਿਓ ਵਾਧੂ ਸੀ। ਮੈਂ ਕਈ ਵਾਰ ਕਾੜ੍ਹਨੀ ਦੇ ਦੁੱਧ ਵਿੱਚ ਘਿਓ ਪਾ ਕੇ ਪੀ ਲੈਂਦਾ ਸਾਂ ਤੇ ਨੱਸ ਭੱਜ ਕੇ ਹਜ਼ਮ ਕਰਦਾ ਸਾਂ। ਦਾਲ ਸਬਜ਼ੀ ਵਿੱਚ ਵੀ ਘਿਓ ਤਰੋਤਰ ਹੁੰਦਾ ਸੀ।
ਕਾਲਜ ਜਾਣ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮੈਂ ਸਰ੍ਹੋਂ ਦੇ ਤੇਲ ਦੀ ਸ਼ੀਸੀ ਤੇ ਸਨ ਲਾਈਟ ਸਾਬਣ ਦੀ ਟਿੱਕੀ ਲੈ ਕੇ ਕਿਸੇ ਵਗਦੇ ਖੂਹ `ਤੇ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ। ਸਿਆਲ `ਚ ਖੂਹ ਦੇ ਨਿੱਘੇ ਪਾਣੀ `ਚੋਂ ਭਾਫ਼ਾਂ ਨਿਕਲ ਰਹੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ। ਜਿਧਰ ਪਾਣੀ ਦੀ ਆਡ ਜਾਂਦੀ ਭਾਫ਼ ਨਾਲ ਦੀ ਨਾਲ ਤੁਰੀ ਜਾਂਦੀ। ਤੇਲ ਦੀ ਮਾਲਸ਼ ਕਰ ਕੇ ਮੈਂ ਸੌ ਡੰਡ ਕੱਢਦਾ ਤੇ ਦੋ ਸੌ ਬੈਠਕਾਂ ਮਾਰਦਾ। ਫਿਰ ਔਲੂ ਦੇ ਨਿੱਘੇ ਪਾਣੀ `ਚ ਬਹਿ ਕੇ ਮਲ ਮਲ ਨਹਾਉਂਦਾ। ਖੂਹ ਉਤੇ ਜੁੜੇ ਢੱਗਿਆਂ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ `ਤੇ ਖੋਪੇ ਚਾੜ੍ਹੇ ਹੁੰਦੇ ਤੇ ਉਹ ਗਲ ਦੀਆਂ ਟੱਲੀਆਂ ਟਣਕਾਉਂਦੇ ਚਾਲੇ ਪਏ ਰਹਿੰਦੇ। ਖੂਹ ਦਾ ਕੁੱਤਾ ਟਿੱਕ ਟਿੱਕ ਕਰੀ ਜਾਂਦਾ। ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਸਾਨੂੰ ਮੋਹਨ ਸਿੰਘ ਦੀ ਕਵਿਤਾ 'ਖੂਹ ਦੀ ਗਾਧੀ ਉਤੇ' ਪੜ੍ਹਾਈ ਜਾਂਦੀ ਤਾਂ ਮੇਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਮੂਹਰੇ ਤੂਤਾਂ ਵਾਲੇ ਖੂਹ ਦਾ ਨਜ਼ਾਰਾ ਆ ਜਾਂਦਾ। ਪਿੰਡ ਕੋਠੇ ਦੇ ਆਲੇ ਦੁਆਲੇ ਕਈ ਖੂਹ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚੋਂ ਇੱਕ ਦੋ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਵਗਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਸਨ।
ਮੇਰਾ ਕੱਦ ਕਾਠ ਅਜੇ ਸਮੱਧਰ ਹੀ ਸੀ ਪਰ ਮੈਂ ਕਾਲਜ ਦੀਆਂ ਖੇਡਾਂ ਵਿੱਚ ਭਾਗ ਲੈਣ ਲੱਗ ਪਿਆ ਸਾਂ। ਕਦੇ ਗੋਲਾ ਸੁੱਟਦਾ, ਕਦੇ ਡਿਸਕਸ ਤੇ ਕਦੇ ਹਾਕੀ ਖੇਡਦਾ। ਆਲੇ ਦੁਆਲੇ ਦੇ ਪਿੰਡਾਂ ਵਿੱਚ ਪੈਂਦੀਆਂ ਛਿੰਝਾਂ ਵੇਖਣ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਤੇ ਸੁਲੇਮਾਨਕੀ ਚੁੰਗੀ ਕੋਲ ਹਰ ਹਫ਼ਤੇ ਹੁੰਦੇ ਕਬੱਡੀ ਦੇ ਮੈਚ ਵੇਖਦਾ। ਉਦੋਂ ਉਥੇ ਲੰਮੀ ਤੇ ਚੁੱਪ ਕੌਡੀ ਖੇਡੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਪਿੰਡਾਂ ਦੇ ਲੋਕ ਹੁਮ ਹੁਮਾ ਕੇ ਕਬੱਡੀ ਵੇਖਣ ਆਉਂਦੇ। ਮੈਂ ਅਜੇ ਏਨਾ ਤਕੜਾ ਨਹੀਂ ਸਾਂ ਹੋਇਆ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋ ਸਕਦਾ। ਮੈਂ ਨੇੜੇ ਖੜ੍ਹ ਕੇ ਖੇਡ ਦੇ ਨਜ਼ਾਰੇ ਤਕਦਾ ਤੇ ਖਿਡਾਰੀਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਮੇਰਾ ਵੀ ਓਨਾ ਈ ਜ਼ੋਰ ਲੱਗਦਾ। ਇਹ ਉਹ ਦਿਨ ਸਨ ਜਦੋਂ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਖੇਡ ਲੇਖਕ ਬਣਨ ਦੇ ਬੀਜ ਬੀਜੇ ਜਾ ਰਹੇ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਅੱਗੇ ਜਾ ਕੇ ਪੁੰਗਰਨਾ ਸੀ।
http://www.globalpunjabi.com/index.php?option=com_k2&view=item&id=54:mr-college-fazulka
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ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ
ਪ੍ਰਿੰ. ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ ਦਾ ਜਨਮ 8 ਜੁਲਾਈ 1940 ਨੂੰ ਪਿੰਡ ਚਕਰ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਲੁਧਿਆਣਾ ਵਿਚ ਬਾਬੂ ਸਿੰਘ ਸੰਧੂ ਦੇ ਘਰ ਮਾਤਾ ਕਰਤਾਰ ਕੌਰ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ ਹੋਇਆ। ਉਸ ਦੇ ਦਾਦਾ, ਬਾਬਾ ਪਾਲਾ ਸਿੰਘ ਜੈਤੋ ਮੋਰਚੇ ਦੇ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਸੰਗਰਾਮੀ ਸਨ। ਉਹ ਚਕਰ, ਮੱਲ੍ਹੇ, ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ, ਮੁਕਤਸਰ ਤੇ ਦਿੱਲੀ ਵਿਚ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਉਸ ਨੇ ਦਿੱਲੀ ਤੇ ਢੁੱਡੀਕੇ ਦੇ ਕਾਲਜਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰੋਫੈ਼ਸਰੀ ਅਤੇ ਅਮਰਦੀਪ ਕਾਲਜ ਮੁਕੰਦਪੁਰ ਦੀ ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲੀ ਕੀਤੀ। ਉਹ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦੀ ਸਿੰਡੀਕੇਟ ਤੇ ਪੰਜਾਬ ਸਕੂਲ ਸਿੱਖਿਆ ਬੋਰਡ ਦਾ ਮੈਂਬਰ ਰਿਹਾ। ਉਸ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਦੇਸ਼ ਦੇ ਸੈਂਕੜੇ ਖੇਡ ਮੇਲੇ ਆਪਣੀ ਅੱਖੀਂ ਵੇਖੇ ਹਨ ਤੇ ਸੈਂਕੜੇ ਖਿਡਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਖ਼ੁਦ ਮਿਲਿਆ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਦੱਸਣ ਮੂਜਬ ਉਹ ਘੱਟੋਘੱਟ ਦੋ ਲੱਖ ਕਿਲੋਮੀਟਰ ਪੈਰੀਂ ਤੁਰ ਚੁੱਕੈ ਤੇ ਹਵਾਈ ਜਹਾਜ਼ਾਂ ਦੇ ਸਫ਼ਰ ਦਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਅੰਤ ਹੀ ਨਹੀਂ।
ਉਸ ਨੇ ਦੋ ਦਰਜਨ ਪੁਸਤਕਾਂ ਲਿਖੀਆਂ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਡੇਢ ਦਰਜਨ ਖੇਡਾਂ ਖਿਡਾਰੀਆਂ ਬਾਰੇ ਹੀ ਹਨ। ਉਸ ਦਾ ਸਫ਼ਰਨਾਮਾ 'ਅੱਖੀਂ ਵੇਖ ਨਾ ਰੱਜੀਆਂ' ਪੰਜਾਬ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦੀ ਪਾਠ ਪੁਸਤਕ ਬਣਿਆ ਰਿਹੈ ਤੇ ਸਵੈਜੀਵਨੀ 'ਹਸੰਦਿਆਂ ਖੇਲੰਦਿਆਂ' ਚਰਚਿਤ ਪੁਸਤਕ ਹੈ। ਉਸ ਨੂੰ ਪੰਜਾਬੀ ਦਾ ਮੋਢੀ ਖੇਡ ਲੇਖਕ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦੈ ਵੈਸੇ ਉਹ ਸਰਬਾਂਗੀ ਲੇਖਕ ਹੈ। ਉਸ ਨੇ ਕਹਾਣੀਆਂ, ਰੇਖਾ ਚਿੱਤਰ, ਸਫ਼ਰਨਾਮੇ, ਹਾਸ ਵਿਅੰਗ ਤੇ ਪਿੰਡ ਦੀ ਸੱਥ ਦੇ ਤਬਸਰੇ ਵੀ ਲਿਖੇ ਹਨ। ਉਸ ਨੂੰ ਅਨੇਕਾਂ ਇਨਾਮ ਤੇ ਮਾਣ ਸਨਮਾਨ ਮਿਲੇ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਪੰਜਾਬੀ ਲੇਖਕ ਪੁਰਸਕਾਰ, ਕਰਤਾਰ ਸਿੰਘ ਧਾਲੀਵਾਲ ਅਵਾਰਡ, ਸੱਯਦ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਅਵਾਰਡ, ਸਪੋਰਟਸ ਸਾਹਿਤ ਦਾ ਨੈਸ਼ਨਲ ਅਵਾਰਡ ਅਤੇ ਸਾਹਿਤ ਸਭਾਵਾਂ ਤੇ ਖੇਡ ਮੇਲਿਆਂ ਦੇ ਸੌ ਤੋਂ ਵੱਧ ਮਾਨ ਸਨਮਾਨ ਸ਼ਾਮਲ ਹਨ। ਉਹ 1965-66 ਵਿਚ ਦਿੱਲੀ ਦੇ ਸਾਹਿਤਕ ਪਰਚੇ 'ਆਰਸੀ' ਵਿਚ ਛਪਣ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਦਰਜਨ ਦੇ ਕਰੀਬ ਅਖ਼ਬਾਰਾਂ ਤੇ ਰਸਾਲਿਆਂ ਵਿਚ ਛਪਦਾ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਫੁਟਕਲ ਲੇਖਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਹਜ਼ਾਰ ਤੋਂ ਉਪਰ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਦੋ ਪੁੱਤਰ ਹਨ। ਇਕ ਕੈਨੇਡਾ ਵਿਚ ਹੈ ਤੇ ਇਕ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ। ਉਹ ਆਪਣੀ ਪਤਨੀ ਹਰਜੀਤ ਕੌਰ ਨਾਲ ਗਰਮੀਆਂ ਕੈਨੇਡਾ ਵਿਚ ਕੱਟਦਾ ਹੈ ਤੇ ਸਿਆਲ ਦਾ ਨਿੱਘ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ ਮਾਣਦਾ ਹੈ।
ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ
ਪ੍ਰਿੰ. ਸਰਵਣ ਸਿੰਘ ਦਾ ਜਨਮ 8 ਜੁਲਾਈ 1940 ਨੂੰ ਪਿੰਡ ਚਕਰ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਲੁਧਿਆਣਾ ਵਿਚ ਬਾਬੂ ਸਿੰਘ ਸੰਧੂ ਦੇ ਘਰ ਮਾਤਾ ਕਰਤਾਰ ਕੌਰ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ ਹੋਇਆ। ਉਸ ਦੇ ਦਾਦਾ, ਬਾਬਾ ਪਾਲਾ ਸਿੰਘ ਜੈਤੋ ਮੋਰਚੇ ਦੇ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਸੰਗਰਾਮੀ ਸਨ। ਉਹ ਚਕਰ, ਮੱਲ੍ਹੇ, ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ, ਮੁਕਤਸਰ ਤੇ ਦਿੱਲੀ ਵਿਚ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਉਸ ਨੇ ਦਿੱਲੀ ਤੇ ਢੁੱਡੀਕੇ ਦੇ ਕਾਲਜਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰੋਫੈ਼ਸਰੀ ਅਤੇ ਅਮਰਦੀਪ ਕਾਲਜ ਮੁਕੰਦਪੁਰ ਦੀ ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲੀ ਕੀਤੀ। ਉਹ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦੀ ਸਿੰਡੀਕੇਟ ਤੇ ਪੰਜਾਬ ਸਕੂਲ ਸਿੱਖਿਆ ਬੋਰਡ ਦਾ ਮੈਂਬਰ ਰਿਹਾ। ਉਸ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਦੇਸ਼ ਦੇ ਸੈਂਕੜੇ ਖੇਡ ਮੇਲੇ ਆਪਣੀ ਅੱਖੀਂ ਵੇਖੇ ਹਨ ਤੇ ਸੈਂਕੜੇ ਖਿਡਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਖ਼ੁਦ ਮਿਲਿਆ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਦੱਸਣ ਮੂਜਬ ਉਹ ਘੱਟੋਘੱਟ ਦੋ ਲੱਖ ਕਿਲੋਮੀਟਰ ਪੈਰੀਂ ਤੁਰ ਚੁੱਕੈ ਤੇ ਹਵਾਈ ਜਹਾਜ਼ਾਂ ਦੇ ਸਫ਼ਰ ਦਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਅੰਤ ਹੀ ਨਹੀਂ।
ਉਸ ਨੇ ਦੋ ਦਰਜਨ ਪੁਸਤਕਾਂ ਲਿਖੀਆਂ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਡੇਢ ਦਰਜਨ ਖੇਡਾਂ ਖਿਡਾਰੀਆਂ ਬਾਰੇ ਹੀ ਹਨ। ਉਸ ਦਾ ਸਫ਼ਰਨਾਮਾ 'ਅੱਖੀਂ ਵੇਖ ਨਾ ਰੱਜੀਆਂ' ਪੰਜਾਬ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦੀ ਪਾਠ ਪੁਸਤਕ ਬਣਿਆ ਰਿਹੈ ਤੇ ਸਵੈਜੀਵਨੀ 'ਹਸੰਦਿਆਂ ਖੇਲੰਦਿਆਂ' ਚਰਚਿਤ ਪੁਸਤਕ ਹੈ। ਉਸ ਨੂੰ ਪੰਜਾਬੀ ਦਾ ਮੋਢੀ ਖੇਡ ਲੇਖਕ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦੈ ਵੈਸੇ ਉਹ ਸਰਬਾਂਗੀ ਲੇਖਕ ਹੈ। ਉਸ ਨੇ ਕਹਾਣੀਆਂ, ਰੇਖਾ ਚਿੱਤਰ, ਸਫ਼ਰਨਾਮੇ, ਹਾਸ ਵਿਅੰਗ ਤੇ ਪਿੰਡ ਦੀ ਸੱਥ ਦੇ ਤਬਸਰੇ ਵੀ ਲਿਖੇ ਹਨ। ਉਸ ਨੂੰ ਅਨੇਕਾਂ ਇਨਾਮ ਤੇ ਮਾਣ ਸਨਮਾਨ ਮਿਲੇ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ `ਚ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਪੰਜਾਬੀ ਲੇਖਕ ਪੁਰਸਕਾਰ, ਕਰਤਾਰ ਸਿੰਘ ਧਾਲੀਵਾਲ ਅਵਾਰਡ, ਸੱਯਦ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਅਵਾਰਡ, ਸਪੋਰਟਸ ਸਾਹਿਤ ਦਾ ਨੈਸ਼ਨਲ ਅਵਾਰਡ ਅਤੇ ਸਾਹਿਤ ਸਭਾਵਾਂ ਤੇ ਖੇਡ ਮੇਲਿਆਂ ਦੇ ਸੌ ਤੋਂ ਵੱਧ ਮਾਨ ਸਨਮਾਨ ਸ਼ਾਮਲ ਹਨ। ਉਹ 1965-66 ਵਿਚ ਦਿੱਲੀ ਦੇ ਸਾਹਿਤਕ ਪਰਚੇ 'ਆਰਸੀ' ਵਿਚ ਛਪਣ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਦਰਜਨ ਦੇ ਕਰੀਬ ਅਖ਼ਬਾਰਾਂ ਤੇ ਰਸਾਲਿਆਂ ਵਿਚ ਛਪਦਾ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਫੁਟਕਲ ਲੇਖਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਹਜ਼ਾਰ ਤੋਂ ਉਪਰ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਦੋ ਪੁੱਤਰ ਹਨ। ਇਕ ਕੈਨੇਡਾ ਵਿਚ ਹੈ ਤੇ ਇਕ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ। ਉਹ ਆਪਣੀ ਪਤਨੀ ਹਰਜੀਤ ਕੌਰ ਨਾਲ ਗਰਮੀਆਂ ਕੈਨੇਡਾ ਵਿਚ ਕੱਟਦਾ ਹੈ ਤੇ ਸਿਆਲ ਦਾ ਨਿੱਘ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ ਮਾਣਦਾ ਹੈ।
शहीदी स्मारक के बदले दिए 12 गांव-Shahhed-E-Azam Bhagat Singh
Fazilka, Laxman Dost, Dainik Bhaskar,16th December 2010
भारत पाक युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीरता, बहादुरी और शौर्य की अनुठी गाथा का प्रतीक आसफवाला शहीदों की समाधि को लेने के बदले फाजिल्का क्षेत्र को भी भारी मूल्य चुकाना पड़ा। इसके तहत पाकिस्तान को फाजिल्का क्षेत्र का बहुत बड़ा हिस्सा दिया गया। देश का विभाजन करते समय रैडक्लिफ आयोग ने एक लकीर खींच दी। लकीर ने भारत को दो हिस्सों में बांट दिया। इसके कारण क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव सिंह की स्मारक लकीर के दूसरी ओर पाकिस्तान में चली गई।देश की स्वतन्त्रता के लिए कुर्बानी देने वाले क्रांतिकारी शहीदों की स्मारक सीमा की उस ओर जाने से भारतीयों के मन को ठेस पहुंची। शहीदों की स्मारक के लिए दोनों देशों में बरसों तक शीत युद्ध चलता रहा। फिर दोनो देशों ने स्वर्ण सिंह-शेख समझौता किया। स्वर्ण सिंह-शेख समझौते के तहत शहीदों का स्मारक फिरोजपुर जिले में आ गया। इसके बदले फाजिल्का तहसील के १२ गांव पाकिस्तान को दिए गए। इस ऐतिहासिक फैसले पर लिखी गई भारत की कुर्बानी की पुस्तक में फाजिल्का की कुर्बानी के सुनहरे पन्नों की संख्या औ बढ़ गई। भौगोलिक बदलाव के कारण फाजिल्का नगर पाकिस्तानी क्षेत्र के गोलों की रोलिंग रेंज में आ गया है। यही कारण है कि पाकिस्तान ने 1965 और 1971 के युद्ध के दौरान फाजिल्का क्षेत्र को अपना निशाना बनाया और पाक रेंजरों ने फाजिल्का की तरफ बढऩे का प्रयास किया। लेकिन भारत के जांबाज सैनिकों से उसे मुंह की खानी पड़ी। 1971 को भारत-पाक का सबसे बड़ा युद्ध फाजिलका सेक्टर में लड़ा गया। पाक ने फाजिल्का के त्रिभुज आकार का फायदा उठाया और फाजिल्का के कई गांवों को तीनों ओर से घेर लिया। उस भारतीय क्षेत्र को आजाद कराने के लिए कई भारतीय सैनिकों को वतन पर कुर्बान होना पड़ा। इन कुर्बानियों की याद में आसफवाला में शहीद स्मारक का निर्माण हुआ।
Fazilka war memorial for 1971 martyrs still awaiting funds
Raakhi JaggaIndian Express, 16th December 2010
A war memorial built on 5.5 acre of land in village Asafwala, about 7 km from Fazilka, still awaits grants announced by various politicians many years ago. This memorial is an initiative of Fazilka residents to remember the 226 martyrs of 1971 Indo-Pak war who laid down their lives to save this sub-tehsil. The prominent ones are Deputy Chief Minister Sukhbir Singh Badal, who announced a Rs 5 lakh grant way back in 2001 and former Ferozepur MP Balram Jakhar who had announced Rs 1 lakh. Both the grants never came.On Thursday, the trust managing the memorial will be remembering the martyrs to observe Vijay Diwas in which apart from Army officials and the DC, college students will also be participating in large numbers. The trust is organising a marathon to spread awareness about the environment in which bicycles will be gifted to students. Patriotic dramas will also be staged by college students.
After the war, mass cremation of the martyrs was carried out on about 1 kanal of land by the villagers and Army officials. Later the piece of land, owned by one Ram Rakha Thukral, was converted into a memorial.
Gradually a trust — Shaheedon Ki Samadhi Committee was formed. It purchased more land and a beautiful memorial built by the residents themselves was unveiled by then Chief Minister Giani Zail Singh in September 1972.
Sandeep Galhotra, president of this trust, told The Indian Express, "From 1 Kanal, the space is today 5.5 acre where we have set up a war museum as well in which pictures of all the 226 martyrs have been displayed.
The Army authorities helped us to get these pics and we are maintaining this memorial on our own at an annual expenditure of around Rs 1 lakh. But one high school, primary school and dispensary built in the same premises are being maintained by government. From time to time, we have received a few lakh rupees from the government but initially, for raising the memorial and even to purchase the land, the residents themselves took the initiative."
Galhotra agreed that many politicians had announced funds but only a few kept their promise. Still, they are continuing their public initiative and maintaining the memorial from their own funds. Of 226 martyrs, 82 were from the 4 Jat Regiment while the others were from the 3 Assam Rifles and 15 Rajput regiments. The trust organises programmes annually.
Mohan Lal Pruthi, general secretary of the trust, said, "We are spreading awareness among the youth as well about the sacrifices of our martyrs." He added, "Unlike many government-maintained memorials which are in dilapidated condition, we have maintained it in the best way."
Gradually a trust — Shaheedon Ki Samadhi Committee was formed. It purchased more land and a beautiful memorial built by the residents themselves was unveiled by then Chief Minister Giani Zail Singh in September 1972.
Sandeep Galhotra, president of this trust, told The Indian Express, "From 1 Kanal, the space is today 5.5 acre where we have set up a war museum as well in which pictures of all the 226 martyrs have been displayed.
The Army authorities helped us to get these pics and we are maintaining this memorial on our own at an annual expenditure of around Rs 1 lakh. But one high school, primary school and dispensary built in the same premises are being maintained by government. From time to time, we have received a few lakh rupees from the government but initially, for raising the memorial and even to purchase the land, the residents themselves took the initiative."
Galhotra agreed that many politicians had announced funds but only a few kept their promise. Still, they are continuing their public initiative and maintaining the memorial from their own funds. Of 226 martyrs, 82 were from the 4 Jat Regiment while the others were from the 3 Assam Rifles and 15 Rajput regiments. The trust organises programmes annually.
Mohan Lal Pruthi, general secretary of the trust, said, "We are spreading awareness among the youth as well about the sacrifices of our martyrs." He added, "Unlike many government-maintained memorials which are in dilapidated condition, we have maintained it in the best way."
Wednesday, December 15, 2010
TAPI: The Audacity of Pipeline Hope
Vladimir Socor
DECEMBER 15, 2010
On December 11 in Ashgabat, the top officials of four participant countries signed agreements on a Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India (TAPI) gas pipeline project, favored on and off (currently on again) by the US government.
Presidents Gurbanguly Berdimuhamedov of Turkmenistan, Afghanistan's Hamid Karzai, and Pakistan's Asif Ali Zardari, along with India's Petroleum Minister, Murli Deora, signed an inter-governmental agreement (IGA) on the project; while the ministerial-level officials of the four countries signed a gas pipeline framework agreement (GPFA). The IGA is said to include a legal framework as well as issues of physical security for the project, while the GPFA covers largely technical issues.
Originating in south-eastern Turkmenistan, the pipeline is envisaged to run through parts of Afghanistan, including Herat and Kandahar; to continue into Pakistan via Quetta and Multan, and to terminate at Fazilka in India's Punjab, with a total length of approximately 1,700 kilometers (km), including 730 km in Afghanistan. Construction is supposed to be completed by 2013-2014, apparently on the assumption that it would start in 2011.
The line is planned to carry 33 billion cubic meters (bcm) of Turkmen gas annually, from which Pakistan and India would purchase 42 percent each. Afghanistan would buy (and/or receive in lieu of transit fees) 16 percent of that total volume.
TAPI construction cost estimates range from $3.3 billion to $7.5 billion and over –a spread testifying to the absence of up-to-date feasibility studies. Pricing of gas and other commercial issues are yet to be negotiated.
The Asian Development Bank (ADB) has endorsed the proposed pipeline since and remains its sole backer, at least in principle. Attending the signing event, ADB President, Haruhiko Kuroda, reiterated his support for the project, but stopped short of specifics. Kuroda cautioned that the participant countries must guarantee the security of the pipeline and quality of the construction work.
That cautionary note refers to the war and turmoil in Afghanistan and some nearby areas of Pakistan. At the signing event, President Karzai promised that his country would strive to guarantee the security of construction and operation of the pipeline; while President Zardari expected the project to bring economic development and, thus, help "combat extremism" in Afghanistan and Pakistan. Afghanistan's Minister of Mines, Wahidullah Shahrani, said that "local communities" along the pipeline route would be paid to guard it (apparently a reference to local warlords) (Interfax, Neytralny Turkmenistan, Turkmenistan.ru, Business Recorder [Pakistan], Press Trust of India, December 11-13).
The project's history has been an agitated one. Initiated in 1995 by Turkmenistan and Pakistan, with an international consortium led by the US company Unocal, the project moved forward with the cooperation of Afghan Taliban authorities. Hamid Karzai and Zalmay Khalilzad were promoting the project at that stage, long before becoming president of Afghanistan and US ambassador to that country, respectively. In 1998 the Taliban authorities selected the Unocal-led consortium, CentGas, over rival international companies to implement the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan pipeline project. Gazprom, initially holding a 10 percent stake in it, withdrew from Centgas, thus removing a possible source of obstruction. However, Unocal itself withdrew in late 1998 (one of the factors being political pressure from vocal feminist groups over the Taliban's treatment of women), then folded into another company. The collapse of US-Taliban contacts prior to 2001 froze the project entirely.
The US helped reactivate the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan project in 2002, as a nation-building tool following the US military intervention in Afghanistan. The project was supposed to give Afghanistan's warring tribes a common interest in state consolidation, as well as a unique source of currency revenue and infrastructure development. These assumptions were not borne out, however. In 2005, the British consultancy Penspen (one of worldwide leaders in this field) submitted the "final version" of a feasibility study, financed by the ADB. Meanwhile, India negotiated its entry into the project, which thus became TAPI. In 2008, India signed agreements of intent with Afghanistan and Pakistan on transportation of Turkmen gas.
The Penspen study apparently remains the basis for the TAPI agreements signed on December 11, 2010 in Ashgabat. Under that study, the gas field Dauletabad was envisaged as the main supply source in Turkmenistan for this project. At present, the participants envision Turkmenistan's supergiant, yet to be developed Yolotan-South Osman fields as a likely major source for TAPI.
The TAPI project meets a set of US political objectives in the region. Hopes and calculations attached to it include: nation-building and development in Afghanistan; a common stake for Pakistan and India in a joint project, potentially encouraging a détente between these two countries; a channel for Indian influence in Afghanistan; and nullifying plans for an Iran-Pakistan-India (IPI) gas pipeline, which has been under discussion for some years between these three governments. These political objectives of TAPI seem to have precipitated the signing of the agreements, despite the forbidding circumstances on the ground in Afghanistan.
Source: Presidents Gurbanguly Berdimuhamedov of Turkmenistan, Afghanistan's Hamid Karzai, and Pakistan's Asif Ali Zardari, along with India's Petroleum Minister, Murli Deora, signed an inter-governmental agreement (IGA) on the project; while the ministerial-level officials of the four countries signed a gas pipeline framework agreement (GPFA). The IGA is said to include a legal framework as well as issues of physical security for the project, while the GPFA covers largely technical issues.
Originating in south-eastern Turkmenistan, the pipeline is envisaged to run through parts of Afghanistan, including Herat and Kandahar; to continue into Pakistan via Quetta and Multan, and to terminate at Fazilka in India's Punjab, with a total length of approximately 1,700 kilometers (km), including 730 km in Afghanistan. Construction is supposed to be completed by 2013-2014, apparently on the assumption that it would start in 2011.
The line is planned to carry 33 billion cubic meters (bcm) of Turkmen gas annually, from which Pakistan and India would purchase 42 percent each. Afghanistan would buy (and/or receive in lieu of transit fees) 16 percent of that total volume.
TAPI construction cost estimates range from $3.3 billion to $7.5 billion and over –a spread testifying to the absence of up-to-date feasibility studies. Pricing of gas and other commercial issues are yet to be negotiated.
The Asian Development Bank (ADB) has endorsed the proposed pipeline since and remains its sole backer, at least in principle. Attending the signing event, ADB President, Haruhiko Kuroda, reiterated his support for the project, but stopped short of specifics. Kuroda cautioned that the participant countries must guarantee the security of the pipeline and quality of the construction work.
That cautionary note refers to the war and turmoil in Afghanistan and some nearby areas of Pakistan. At the signing event, President Karzai promised that his country would strive to guarantee the security of construction and operation of the pipeline; while President Zardari expected the project to bring economic development and, thus, help "combat extremism" in Afghanistan and Pakistan. Afghanistan's Minister of Mines, Wahidullah Shahrani, said that "local communities" along the pipeline route would be paid to guard it (apparently a reference to local warlords) (Interfax, Neytralny Turkmenistan, Turkmenistan.ru, Business Recorder [Pakistan], Press Trust of India, December 11-13).
The project's history has been an agitated one. Initiated in 1995 by Turkmenistan and Pakistan, with an international consortium led by the US company Unocal, the project moved forward with the cooperation of Afghan Taliban authorities. Hamid Karzai and Zalmay Khalilzad were promoting the project at that stage, long before becoming president of Afghanistan and US ambassador to that country, respectively. In 1998 the Taliban authorities selected the Unocal-led consortium, CentGas, over rival international companies to implement the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan pipeline project. Gazprom, initially holding a 10 percent stake in it, withdrew from Centgas, thus removing a possible source of obstruction. However, Unocal itself withdrew in late 1998 (one of the factors being political pressure from vocal feminist groups over the Taliban's treatment of women), then folded into another company. The collapse of US-Taliban contacts prior to 2001 froze the project entirely.
The US helped reactivate the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan project in 2002, as a nation-building tool following the US military intervention in Afghanistan. The project was supposed to give Afghanistan's warring tribes a common interest in state consolidation, as well as a unique source of currency revenue and infrastructure development. These assumptions were not borne out, however. In 2005, the British consultancy Penspen (one of worldwide leaders in this field) submitted the "final version" of a feasibility study, financed by the ADB. Meanwhile, India negotiated its entry into the project, which thus became TAPI. In 2008, India signed agreements of intent with Afghanistan and Pakistan on transportation of Turkmen gas.
The Penspen study apparently remains the basis for the TAPI agreements signed on December 11, 2010 in Ashgabat. Under that study, the gas field Dauletabad was envisaged as the main supply source in Turkmenistan for this project. At present, the participants envision Turkmenistan's supergiant, yet to be developed Yolotan-South Osman fields as a likely major source for TAPI.
The TAPI project meets a set of US political objectives in the region. Hopes and calculations attached to it include: nation-building and development in Afghanistan; a common stake for Pakistan and India in a joint project, potentially encouraging a détente between these two countries; a channel for Indian influence in Afghanistan; and nullifying plans for an Iran-Pakistan-India (IPI) gas pipeline, which has been under discussion for some years between these three governments. These political objectives of TAPI seem to have precipitated the signing of the agreements, despite the forbidding circumstances on the ground in Afghanistan
On December 11 in Ashgabat, the top officials of four participant countries signed agreements on a Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India (TAPI) gas pipeline project, favored on and off (currently on again) by the US government.
Presidents Gurbanguly Berdimuhamedov of Turkmenistan, Afghanistan's Hamid Karzai, and Pakistan's Asif Ali Zardari, along with India's Petroleum Minister, Murli Deora, signed an inter-governmental agreement (IGA) on the project; while the ministerial-level officials of the four countries signed a gas pipeline framework agreement (GPFA). The IGA is said to include a legal framework as well as issues of physical security for the project, while the GPFA covers largely technical issues.
Originating in south-eastern Turkmenistan, the pipeline is envisaged to run through parts of Afghanistan, including Herat and Kandahar; to continue into Pakistan via Quetta and Multan, and to terminate at Fazilka in India's Punjab, with a total length of approximately 1,700 kilometers (km), including 730 km in Afghanistan. Construction is supposed to be completed by 2013-2014, apparently on the assumption that it would start in 2011.
The line is planned to carry 33 billion cubic meters (bcm) of Turkmen gas annually, from which Pakistan and India would purchase 42 percent each. Afghanistan would buy (and/or receive in lieu of transit fees) 16 percent of that total volume.
TAPI construction cost estimates range from $3.3 billion to $7.5 billion and over –a spread testifying to the absence of up-to-date feasibility studies. Pricing of gas and other commercial issues are yet to be negotiated.
The Asian Development Bank (ADB) has endorsed the proposed pipeline since and remains its sole backer, at least in principle. Attending the signing event, ADB President, Haruhiko Kuroda, reiterated his support for the project, but stopped short of specifics. Kuroda cautioned that the participant countries must guarantee the security of the pipeline and quality of the construction work.
That cautionary note refers to the war and turmoil in Afghanistan and some nearby areas of Pakistan. At the signing event, President Karzai promised that his country would strive to guarantee the security of construction and operation of the pipeline; while President Zardari expected the project to bring economic development and, thus, help "combat extremism" in Afghanistan and Pakistan. Afghanistan's Minister of Mines, Wahidullah Shahrani, said that "local communities" along the pipeline route would be paid to guard it (apparently a reference to local warlords) (Interfax, Neytralny Turkmenistan, Turkmenistan.ru, Business Recorder [Pakistan], Press Trust of India, December 11-13).
The project's history has been an agitated one. Initiated in 1995 by Turkmenistan and Pakistan, with an international consortium led by the US company Unocal, the project moved forward with the cooperation of Afghan Taliban authorities. Hamid Karzai and Zalmay Khalilzad were promoting the project at that stage, long before becoming president of Afghanistan and US ambassador to that country, respectively. In 1998 the Taliban authorities selected the Unocal-led consortium, CentGas, over rival international companies to implement the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan pipeline project. Gazprom, initially holding a 10 percent stake in it, withdrew from Centgas, thus removing a possible source of obstruction. However, Unocal itself withdrew in late 1998 (one of the factors being political pressure from vocal feminist groups over the Taliban's treatment of women), then folded into another company. The collapse of US-Taliban contacts prior to 2001 froze the project entirely.
The US helped reactivate the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan project in 2002, as a nation-building tool following the US military intervention in Afghanistan. The project was supposed to give Afghanistan's warring tribes a common interest in state consolidation, as well as a unique source of currency revenue and infrastructure development. These assumptions were not borne out, however. In 2005, the British consultancy Penspen (one of worldwide leaders in this field) submitted the "final version" of a feasibility study, financed by the ADB. Meanwhile, India negotiated its entry into the project, which thus became TAPI. In 2008, India signed agreements of intent with Afghanistan and Pakistan on transportation of Turkmen gas.
The Penspen study apparently remains the basis for the TAPI agreements signed on December 11, 2010 in Ashgabat. Under that study, the gas field Dauletabad was envisaged as the main supply source in Turkmenistan for this project. At present, the participants envision Turkmenistan's supergiant, yet to be developed Yolotan-South Osman fields as a likely major source for TAPI.
The TAPI project meets a set of US political objectives in the region. Hopes and calculations attached to it include: nation-building and development in Afghanistan; a common stake for Pakistan and India in a joint project, potentially encouraging a détente between these two countries; a channel for Indian influence in Afghanistan; and nullifying plans for an Iran-Pakistan-India (IPI) gas pipeline, which has been under discussion for some years between these three governments. These political objectives of TAPI seem to have precipitated the signing of the agreements, despite the forbidding circumstances on the ground in Afghanistan.
Source: Presidents Gurbanguly Berdimuhamedov of Turkmenistan, Afghanistan's Hamid Karzai, and Pakistan's Asif Ali Zardari, along with India's Petroleum Minister, Murli Deora, signed an inter-governmental agreement (IGA) on the project; while the ministerial-level officials of the four countries signed a gas pipeline framework agreement (GPFA). The IGA is said to include a legal framework as well as issues of physical security for the project, while the GPFA covers largely technical issues.
Originating in south-eastern Turkmenistan, the pipeline is envisaged to run through parts of Afghanistan, including Herat and Kandahar; to continue into Pakistan via Quetta and Multan, and to terminate at Fazilka in India's Punjab, with a total length of approximately 1,700 kilometers (km), including 730 km in Afghanistan. Construction is supposed to be completed by 2013-2014, apparently on the assumption that it would start in 2011.
The line is planned to carry 33 billion cubic meters (bcm) of Turkmen gas annually, from which Pakistan and India would purchase 42 percent each. Afghanistan would buy (and/or receive in lieu of transit fees) 16 percent of that total volume.
TAPI construction cost estimates range from $3.3 billion to $7.5 billion and over –a spread testifying to the absence of up-to-date feasibility studies. Pricing of gas and other commercial issues are yet to be negotiated.
The Asian Development Bank (ADB) has endorsed the proposed pipeline since and remains its sole backer, at least in principle. Attending the signing event, ADB President, Haruhiko Kuroda, reiterated his support for the project, but stopped short of specifics. Kuroda cautioned that the participant countries must guarantee the security of the pipeline and quality of the construction work.
That cautionary note refers to the war and turmoil in Afghanistan and some nearby areas of Pakistan. At the signing event, President Karzai promised that his country would strive to guarantee the security of construction and operation of the pipeline; while President Zardari expected the project to bring economic development and, thus, help "combat extremism" in Afghanistan and Pakistan. Afghanistan's Minister of Mines, Wahidullah Shahrani, said that "local communities" along the pipeline route would be paid to guard it (apparently a reference to local warlords) (Interfax, Neytralny Turkmenistan, Turkmenistan.ru, Business Recorder [Pakistan], Press Trust of India, December 11-13).
The project's history has been an agitated one. Initiated in 1995 by Turkmenistan and Pakistan, with an international consortium led by the US company Unocal, the project moved forward with the cooperation of Afghan Taliban authorities. Hamid Karzai and Zalmay Khalilzad were promoting the project at that stage, long before becoming president of Afghanistan and US ambassador to that country, respectively. In 1998 the Taliban authorities selected the Unocal-led consortium, CentGas, over rival international companies to implement the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan pipeline project. Gazprom, initially holding a 10 percent stake in it, withdrew from Centgas, thus removing a possible source of obstruction. However, Unocal itself withdrew in late 1998 (one of the factors being political pressure from vocal feminist groups over the Taliban's treatment of women), then folded into another company. The collapse of US-Taliban contacts prior to 2001 froze the project entirely.
The US helped reactivate the Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan project in 2002, as a nation-building tool following the US military intervention in Afghanistan. The project was supposed to give Afghanistan's warring tribes a common interest in state consolidation, as well as a unique source of currency revenue and infrastructure development. These assumptions were not borne out, however. In 2005, the British consultancy Penspen (one of worldwide leaders in this field) submitted the "final version" of a feasibility study, financed by the ADB. Meanwhile, India negotiated its entry into the project, which thus became TAPI. In 2008, India signed agreements of intent with Afghanistan and Pakistan on transportation of Turkmen gas.
The Penspen study apparently remains the basis for the TAPI agreements signed on December 11, 2010 in Ashgabat. Under that study, the gas field Dauletabad was envisaged as the main supply source in Turkmenistan for this project. At present, the participants envision Turkmenistan's supergiant, yet to be developed Yolotan-South Osman fields as a likely major source for TAPI.
The TAPI project meets a set of US political objectives in the region. Hopes and calculations attached to it include: nation-building and development in Afghanistan; a common stake for Pakistan and India in a joint project, potentially encouraging a détente between these two countries; a channel for Indian influence in Afghanistan; and nullifying plans for an Iran-Pakistan-India (IPI) gas pipeline, which has been under discussion for some years between these three governments. These political objectives of TAPI seem to have precipitated the signing of the agreements, despite the forbidding circumstances on the ground in Afghanistan
संगीत से प्रीत, जज्बे की जीत
जागरण संवाददाता, फाजिल्का
Bathinda Edition, Page 1 Anchor, Amrit Sachdeva:
जिंदगी में अंधेरा होने के बावजूद हरप्रीत की तमन्ना दूसरों के जीवन को सुरमयी बनाने की है। आठवीं कक्षा में ही आंखों की रोशनी खोने के बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी और ब्रेल लिपि के जरिये पढ़ाई जारी रखी। वह म्यूजिक में बीए करने के बाद अब अध्यापिका बनने के लिए ईटीटी कर रही है। राधा स्वामी कालोनी निवासी एवं बिजली विभाग में कार्यरत पूर्ण सिंह की 25 वर्षीय पुत्री हरप्रीत कौर बताती है कि आंखों की ज्योति कम होकर समाप्त होने की समस्या वंशानुगत है। वह आठवीं तक देख सकती थी, लेकिन अचानक नेत्र ज्योति समाप्त होने लगी और उसे दिखना बंद हो गया। ऐसे में परिजनों ने उसका हौसला बढ़ाया। पिता पूर्ण सिंह ने उसे लुधियाना स्थित ब्रेल भवन में बे्रल लिपि के जरिये पढ़ाई करने के लिए भेजा। चार साल की अथक मेहनत से अपनी पढ़ाई की और विषारद संगीत को अपने जीवन का आधार बनाया। इस दौरान उसकी शादी धार्मिक विचारों वाले रविंदर सिंह से हुई, जो गुरुद्वारा श्री सिंह सभा में सेवा संभाल रहे हैं। उसे एक चार साल की बेटी व छोटा बेटा है। हरप्रीत ने कहा कि वह म्यूजिक टीचर बनना चाहती है। फिलहाल वह ज्योति बीएड कालेज में ईटीटी कर रही है। कालेज में रोजाना होने वाले लेक्चर को रिकार्ड करती है और घर जाकर उसे बे्रल लिपि में लिख लेती है। हरप्रीत के साहस को देखते कर शहर की विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संस्थाएं उसे सम्मानित कर चुकी है। अब शहीदों की समाधि कमेटी द्वारा विजय दिवस के मौके पर कार्यक्रम में शबद गायन के लिए हरप्रीत को आमंत्रित किया गया है।
Sacrifice of ‘Fazilka saviours’ recalled - Vijay Diwas tomorrow
Praful Chander Nagpal
Fazilka, December 14
In the border village of Asafwala, seven kilometers from here, a magnificent memorial to the 1971 Indo-Pak war is situated in the Fazilka sector as a testimony to the gallantry of valiant war heroes, who laid down their lives defending this strategically important town from falling into the hands of Pakistan.
In the 1971 war, Pakistani forces were determined to capture the strategic border area surrounded by Pakistan from three sides (which is called chicken's neck in military parlance) when the war began on December 3, 1971. Bomb shells from the Pak mortars wreaked havoc in the town and in villages of the border area. A fierce man-to-man battle was fought in this area. Pak forces made some advances and captured some Indian territory and the strategic Beriwala bridge in Fazilka sector. Indian Army jawans not only stalled the advancing Pak forces from three sides standing like impregnable Rock of Gibraltar but they pushed them back as well.
About 226 brave officers and jawans of Four Jat Regiment, three Assam Regiments and 15 Rajput Regiment of the Indian Army attained martyrdom in the war which continued for two weeks. After the cease-fire, it was not possible to carry out the cremation of the deceased Armymen as the bodies of the war heroes were badly decomposed by the time of ceasefire on December 17, 1971. The indebted citizens of Fazilka and the rural areas with the cooperation of the Armymen performed collective cremation of the mortal remains of the war heroes in a befitting way at village Asafwala. A 55-feet long pyre was prepared and collective cremation was done with the recitation of hymns from all religious scriptures.
Supreme sacrifices and acts of valour of these jawans moved the residents of the area so much that they decided to raise a memorial in the memory of these jawans whom the people of the area acknowledged as the 'Saviours of Fazilka'.
They constituted Shaheedon Ki Samadhi Committee, Asafwala, Fazilka, which has been looking after the memorial complex in a decent way.
Giani Zail Singh, who was then the chief minister of Punjab, unveiled the memorial on September 22, 1972.
Since then, the memorial which is considered to be the best privately managed war memorial, became a historical spot for all dignitaries visiting this area. Every year, a Shaheedi Mela is organised on the war memorial.
Fazilka, December 14
In the border village of Asafwala, seven kilometers from here, a magnificent memorial to the 1971 Indo-Pak war is situated in the Fazilka sector as a testimony to the gallantry of valiant war heroes, who laid down their lives defending this strategically important town from falling into the hands of Pakistan.
In the 1971 war, Pakistani forces were determined to capture the strategic border area surrounded by Pakistan from three sides (which is called chicken's neck in military parlance) when the war began on December 3, 1971. Bomb shells from the Pak mortars wreaked havoc in the town and in villages of the border area. A fierce man-to-man battle was fought in this area. Pak forces made some advances and captured some Indian territory and the strategic Beriwala bridge in Fazilka sector. Indian Army jawans not only stalled the advancing Pak forces from three sides standing like impregnable Rock of Gibraltar but they pushed them back as well.
About 226 brave officers and jawans of Four Jat Regiment, three Assam Regiments and 15 Rajput Regiment of the Indian Army attained martyrdom in the war which continued for two weeks. After the cease-fire, it was not possible to carry out the cremation of the deceased Armymen as the bodies of the war heroes were badly decomposed by the time of ceasefire on December 17, 1971. The indebted citizens of Fazilka and the rural areas with the cooperation of the Armymen performed collective cremation of the mortal remains of the war heroes in a befitting way at village Asafwala. A 55-feet long pyre was prepared and collective cremation was done with the recitation of hymns from all religious scriptures.
Supreme sacrifices and acts of valour of these jawans moved the residents of the area so much that they decided to raise a memorial in the memory of these jawans whom the people of the area acknowledged as the 'Saviours of Fazilka'.
They constituted Shaheedon Ki Samadhi Committee, Asafwala, Fazilka, which has been looking after the memorial complex in a decent way.
Giani Zail Singh, who was then the chief minister of Punjab, unveiled the memorial on September 22, 1972.
Since then, the memorial which is considered to be the best privately managed war memorial, became a historical spot for all dignitaries visiting this area. Every year, a Shaheedi Mela is organised on the war memorial.
Defence of Fazilka still a matter of debate among historians-Remembering 1971 Indo-Pak War Heroes
Chander Parkash/ TNS
Fazilka, December 14
Was it faulty planning or lack of professional approach that led to a large number of casualties in the Indian Army in the course of capturing of its territory by Pakistan's Army in the 1971 war?
A section of residents of this town and surrounding villages have still been waiting for the answer to this question from the authorities concerned despite the fact that 39 years have passed since the Indo-Pak war was fought which led to the creation of an independent country Bangladesh, out of Pakistan.
During a tour to different villages, a section of the residents offered different stories in connection with the Indo-Pak war of 1971, which witnessed a large number of casualties on the Indian side. Though various organisations of India including its Army authorities might have held the opinion that Indian Army had done wonders in Fazilka sector and defeated the enemy, a section of Indian and foreign-based war commentators hold different views.
While John H. Gill, an internationally recognised military historian, who has served the US Army, in his book titled 'An Atlas of 1971 India-Pakistan War: The Creation of Bangladesh', has claimed that in the 1971 Indo-Pak war, Indian defenders, located west of Fazilka across the border from the Sulenmanki headworks, lost a significant chunk of land to Pakistan's 105 Brigade despite repeated and costly counter attacks due to poor position and inept leadership of its 67 Brigade.
However, indecision on the part of Pakistan's high command in connection with the implementation of its plan, called 'Changez Khan', proved to be lucky for India. Under the plan,
105 Brigade and 25 Brigade was to drive east from the vicinity of Bahawalnagar to cross the international border before turning northeast to push for Bathinda and Ludhiana, mentioned Gill in his book.
A retired Major General Sukhwant Singh, in his book titled 'Defence of the Western Border, India's War Since Independence' has claimed that there was a detailed plan for the security of Fazilka, which was a vital communication centre and falling of the same into Pakistani hand, could have enabled the enemy to develop various variable thrusts into the Indian territory.
He claimed that the original plan to defend Fazilka was changed as per the directions of seniors just before the 1971 conflict.
The Beriwala bridge in Fazilka sector, which was captured by the enemy within an hour or so of the attack on December 3, could not be taken back despite five counterattacks till December 13-14 (1971). Almost all the counterattacks witnessed heavy casualties of the Indian Army personnel.
Meanwhile, a series of functions would be held at Asafwala later this month where a memorial has been raised in the memory of supreme sacrifices made by the Army jawans of Four Jat Regiment during the 1971 Indo-Pak war in Fazilka sector, by the Shaheedon Ki Samadhi Committee.
Fazilka, December 14
Was it faulty planning or lack of professional approach that led to a large number of casualties in the Indian Army in the course of capturing of its territory by Pakistan's Army in the 1971 war?
A section of residents of this town and surrounding villages have still been waiting for the answer to this question from the authorities concerned despite the fact that 39 years have passed since the Indo-Pak war was fought which led to the creation of an independent country Bangladesh, out of Pakistan.
During a tour to different villages, a section of the residents offered different stories in connection with the Indo-Pak war of 1971, which witnessed a large number of casualties on the Indian side. Though various organisations of India including its Army authorities might have held the opinion that Indian Army had done wonders in Fazilka sector and defeated the enemy, a section of Indian and foreign-based war commentators hold different views.
While John H. Gill, an internationally recognised military historian, who has served the US Army, in his book titled 'An Atlas of 1971 India-Pakistan War: The Creation of Bangladesh', has claimed that in the 1971 Indo-Pak war, Indian defenders, located west of Fazilka across the border from the Sulenmanki headworks, lost a significant chunk of land to Pakistan's 105 Brigade despite repeated and costly counter attacks due to poor position and inept leadership of its 67 Brigade.
However, indecision on the part of Pakistan's high command in connection with the implementation of its plan, called 'Changez Khan', proved to be lucky for India. Under the plan,
105 Brigade and 25 Brigade was to drive east from the vicinity of Bahawalnagar to cross the international border before turning northeast to push for Bathinda and Ludhiana, mentioned Gill in his book.
A retired Major General Sukhwant Singh, in his book titled 'Defence of the Western Border, India's War Since Independence' has claimed that there was a detailed plan for the security of Fazilka, which was a vital communication centre and falling of the same into Pakistani hand, could have enabled the enemy to develop various variable thrusts into the Indian territory.
He claimed that the original plan to defend Fazilka was changed as per the directions of seniors just before the 1971 conflict.
The Beriwala bridge in Fazilka sector, which was captured by the enemy within an hour or so of the attack on December 3, could not be taken back despite five counterattacks till December 13-14 (1971). Almost all the counterattacks witnessed heavy casualties of the Indian Army personnel.
Meanwhile, a series of functions would be held at Asafwala later this month where a memorial has been raised in the memory of supreme sacrifices made by the Army jawans of Four Jat Regiment during the 1971 Indo-Pak war in Fazilka sector, by the Shaheedon Ki Samadhi Committee.
Tuesday, December 14, 2010
District headquarter status sought for Fazilka :: Sanjha Morcha to begin hunger strike from Jan 5
Our Correspondent
Fazilka, December 13
To get district headquarter status for Fazilka, the members of the Sanjha Morcha have decided to launch the next phase of agitation by starting fast-unto-death from January 5.
It was resolved in the meeting of the five members steering committee and other members of the Morcha, which was held here today at the freedom fighter Lala Sunam Rai MA Memorial Welfare Centre, presided over by its president Sushil Gumber. The ongoing agitation which has entered its 120th day today would come to end on January 4.
The members have unanimously decided to launch fast-unto-death dharna and in the first phase two persons would sit on dharna, disclosed Gumber and spokesman of Morcha, Raj Kishore Kalra.
"We would disclose the names at an appropriate time. However, it is confirmed that the fast-unto-death would be started from January 5 by all means, maintained Kalra."
He further added that the series of fast-unto-death dharna would continue till the demand to get district headquarters status was fulfilled.
He pointed out that the Sanjha Morcha would also launch an awareness fortnight campaign from December 20 to Jaunary 4.
While talking to the Tribune, Jyani said he is ready to sit on fast-unto-death from January 5 and hastened to add that he is at the disposal of the Sanjha Morcha members.
He said he is ready to follow the decision of the Morcha members regarding fast-unto-death.
Jyani said he is ready to quit the post of MLA immediately also if the Sanjha Morcha members desire so.
Fazilka, December 13
To get district headquarter status for Fazilka, the members of the Sanjha Morcha have decided to launch the next phase of agitation by starting fast-unto-death from January 5.
It was resolved in the meeting of the five members steering committee and other members of the Morcha, which was held here today at the freedom fighter Lala Sunam Rai MA Memorial Welfare Centre, presided over by its president Sushil Gumber. The ongoing agitation which has entered its 120th day today would come to end on January 4.
The members have unanimously decided to launch fast-unto-death dharna and in the first phase two persons would sit on dharna, disclosed Gumber and spokesman of Morcha, Raj Kishore Kalra.
"We would disclose the names at an appropriate time. However, it is confirmed that the fast-unto-death would be started from January 5 by all means, maintained Kalra."
He further added that the series of fast-unto-death dharna would continue till the demand to get district headquarters status was fulfilled.
He pointed out that the Sanjha Morcha would also launch an awareness fortnight campaign from December 20 to Jaunary 4.
While talking to the Tribune, Jyani said he is ready to sit on fast-unto-death from January 5 and hastened to add that he is at the disposal of the Sanjha Morcha members.
He said he is ready to follow the decision of the Morcha members regarding fast-unto-death.
Jyani said he is ready to quit the post of MLA immediately also if the Sanjha Morcha members desire so.
Memory gates to honour martyrs-1971 Indo-Pak war heroes
Our Correspondent
Fazilka, December 13
The Municipal Council (Fazilka) has resolved to raise three memory gates to commemorate the Indo-Pak war heroes, who had attained martyrdom in the 1971 Indo-Pak war in Fazilka sector.
The memory gates would be raised on the outskirts of Fazilka, Ferozepur, Abohar and Malout side.
In this regard, a resolution was unanimously adopted at the meeting of the Municipal Council held under the chairmanship of its president Anil Kumar Sethi.
Besides, the Council has also recommended the construction of an underbridge to the Punjab government on the SDM court road railway crossing in an effort to get rid of traffic menace on the Court road, Mahajan market and SDM Court road.
The Council has also decided to spend Rs three crore on laying premix, streets and drains and replacing the streetlights with timer-lights in all 21 wards of the town. On the other hand, five municipal councillors belonging to the Congress party staged walk out from the Council meeting on the charge of discrimination being done to their wards in development works.
Fazilka, December 13
The Municipal Council (Fazilka) has resolved to raise three memory gates to commemorate the Indo-Pak war heroes, who had attained martyrdom in the 1971 Indo-Pak war in Fazilka sector.
The memory gates would be raised on the outskirts of Fazilka, Ferozepur, Abohar and Malout side.
In this regard, a resolution was unanimously adopted at the meeting of the Municipal Council held under the chairmanship of its president Anil Kumar Sethi.
Besides, the Council has also recommended the construction of an underbridge to the Punjab government on the SDM court road railway crossing in an effort to get rid of traffic menace on the Court road, Mahajan market and SDM Court road.
The Council has also decided to spend Rs three crore on laying premix, streets and drains and replacing the streetlights with timer-lights in all 21 wards of the town. On the other hand, five municipal councillors belonging to the Congress party staged walk out from the Council meeting on the charge of discrimination being done to their wards in development works.
Border town may turn into energy hub soon-TAPI Gas Pipeline Project
Chander Parkash
Tribune News Service
Fazilka, December 13
With the signing of Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India (TAPI) gas pipeline project by the respective representatives of these countries in the recent past, this town bordering Pakistan has got prominence as the important pipeline would terminate in this region and could enable it to develop as an energy hub.
The 1,640 km long Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India gas pipeline backed by the Asian Development Bank (ADB) would bring 3.2 billion cubic feet of natural gas per day from Turkmenistan's gas fields to Multan in the Central Pakistan and then it would end in the north-western part of Indian town Fazilka.
If all goes well, the pipeline would perhaps be the fourth pipeline, which would touch Punjab. Earlier, the state has witnessed the Kandla-Bathinda oil pipeline operation.
The signatures on the documents connected with 'Inter-governmental agreement' (IGA) and the 'Gas sales and purchase agreement' (GSPA) were put by Asif Ali Zardari, President, Pakistan, Hamid Karzai, President Afghanistan, Gurbanguly Berdimuhamedov, President, Turkmenistan, Murli Deora, Union Petroleum Minister, India and Haruhiko Kuroda, President, Asian Development Bank about two days ago.
Set up in 1844 by a British citizen, this town, located in close vicinity of Indo-Pak border, was famous for its wool trade during pre-partition days as local traders would export wool to Liverpool (Britain) through Karachi and Sindh ports.
With the wool trade virtually coming to an end coupled with the failure of successive state and centre government to develop required infrastructure for its aggressive industrialisation and setbacks caused by two Indo-Pak wars in 1965 and 1971, the economic complexion of this town changed drastically in the past many decades.
"Now, we hope that a fresh era of economic prosperity would start in this region within a few years with the completion TAPI," said Navdeep Asija, administrative secretary, Graduate Welfare Association Fazilka (GWAF), adding that terminal point of gas pipe was expected to be set up at Sadiqi — the joint check-post on the Indo-Pak border.
Information gathered by the TNS revealed that the prestigious project, expected to change the energy scenario in India, Afghanistan and Pakistan, had been hanging fire for the past one and a half decade due to security and other reasons. About 735 kilometres of gas pipeline would pass from Afghanistan and 800 kilometres from Pakistan before it touched the Indian territory.
However, Ferozepur Deputy Commissioner Kamal Kishor Yadav, when contacted, said no department or agency of the Central government had ever contacted the district administration in connection with the TAPI and hence, he could not make any comment as to whether it would terminate in the Fazilka region or not. However, the Border Security Force (BSF) authorities have also expressed their ignorance about TAPI.
Tribune News Service
Fazilka, December 13
With the signing of Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India (TAPI) gas pipeline project by the respective representatives of these countries in the recent past, this town bordering Pakistan has got prominence as the important pipeline would terminate in this region and could enable it to develop as an energy hub.
The 1,640 km long Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India gas pipeline backed by the Asian Development Bank (ADB) would bring 3.2 billion cubic feet of natural gas per day from Turkmenistan's gas fields to Multan in the Central Pakistan and then it would end in the north-western part of Indian town Fazilka.
If all goes well, the pipeline would perhaps be the fourth pipeline, which would touch Punjab. Earlier, the state has witnessed the Kandla-Bathinda oil pipeline operation.
The signatures on the documents connected with 'Inter-governmental agreement' (IGA) and the 'Gas sales and purchase agreement' (GSPA) were put by Asif Ali Zardari, President, Pakistan, Hamid Karzai, President Afghanistan, Gurbanguly Berdimuhamedov, President, Turkmenistan, Murli Deora, Union Petroleum Minister, India and Haruhiko Kuroda, President, Asian Development Bank about two days ago.
Set up in 1844 by a British citizen, this town, located in close vicinity of Indo-Pak border, was famous for its wool trade during pre-partition days as local traders would export wool to Liverpool (Britain) through Karachi and Sindh ports.
With the wool trade virtually coming to an end coupled with the failure of successive state and centre government to develop required infrastructure for its aggressive industrialisation and setbacks caused by two Indo-Pak wars in 1965 and 1971, the economic complexion of this town changed drastically in the past many decades.
"Now, we hope that a fresh era of economic prosperity would start in this region within a few years with the completion TAPI," said Navdeep Asija, administrative secretary, Graduate Welfare Association Fazilka (GWAF), adding that terminal point of gas pipe was expected to be set up at Sadiqi — the joint check-post on the Indo-Pak border.
Information gathered by the TNS revealed that the prestigious project, expected to change the energy scenario in India, Afghanistan and Pakistan, had been hanging fire for the past one and a half decade due to security and other reasons. About 735 kilometres of gas pipeline would pass from Afghanistan and 800 kilometres from Pakistan before it touched the Indian territory.
However, Ferozepur Deputy Commissioner Kamal Kishor Yadav, when contacted, said no department or agency of the Central government had ever contacted the district administration in connection with the TAPI and hence, he could not make any comment as to whether it would terminate in the Fazilka region or not. However, the Border Security Force (BSF) authorities have also expressed their ignorance about TAPI.
इमरजेंसी ड्यूटी पड़ रही ओपीडी ड्यूटी पर भारी
जागरण संवाददाता, फाजिल्का
राज्य के ए ग्रेड अस्पतालों में शुमार स्थानीय सरकारी अस्पताल में डाक्टरों की कमी से जहां मरीज परेशान हैं, वहीं डाक्टर भी वर्क लोड से आजीज आ चुके हैं। यहां डाक्टर ओपीडी के साथ-साथ इमरजेंसी ड्यूटी करने को भी मजबूर हैं। इस कारण ओपीडी ड्यूटी प्रभावित हो रही है।
उल्लेखनीय है कि कुछ वर्ष पहले तक राज्य के सभी सरकारी अस्पतालों में इमरजेंसी में डाक्टर की अलग से नियुक्तियां हुआ करती थीं। उसके तहत फाजिल्का में 3 इमरजेंसी मेडिकल आफिसर के पद मंजूर थे, लेकिन वर्तमान में तीनों पदों के लिए कोई विशेष डाक्टर नियुक्त नहीं है। ऐसे में अस्पताल के ओपीडी के मेडिकल आफिसरों की ड्यूटियां ही बारी-बारी से लगाई जाती हैं। वह भी तब जब 14 में से तीन डाक्टरों की पहले से ही कमी चल रही है। इसका सारा असर ओपीडी पर पड़ता है। रात को इमरजेंसी डयूटी करने वाला डाक्टर दूसरे दिन सुबह अपनी ओपीडी की ड्यूटी के लिए कैसे उपलब्ध हो सकता है।
यह तो डाक्टरों के आपसी सहयोग के चलते जैसे तैसे काम चल रहा है। जबकि यहां ओपीडी में ही महिला रोग विशेषज्ञ, रेडियोलाजिस्ट और ब्लड ट्रांसफर आफिसर के पद रिक्त चले आ रहे हैं। नाइट ड्यूटी के बाद सुबह डाक्टर के न आने के अलावा डाक्टरों के लिए विभाग की बैठकों व कई बार कोर्ट केसों में पेशी पर जाने के चलते भी मरीजों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
इस बारे में अस्पताल के एसएमओ डा. एसपी गर्ग से बात की गई तो उन्होंने कहा कि प्रतिमाह डाक्टरों की कमी संबंधी सूचना उच्चाधिकारियों को दी जाती है। विभाग द्वारा भी डाक्टर उपलब्ध करवाने के प्रयास किए जाते हैं, लेकिन फाजिल्का जैसे सरहदी क्षेत्र में कोई डाक्टर आने को तैयार नहीं होता। इस कारण यहां पद रिक्त पड़े हैं।
राज्य के ए ग्रेड अस्पतालों में शुमार स्थानीय सरकारी अस्पताल में डाक्टरों की कमी से जहां मरीज परेशान हैं, वहीं डाक्टर भी वर्क लोड से आजीज आ चुके हैं। यहां डाक्टर ओपीडी के साथ-साथ इमरजेंसी ड्यूटी करने को भी मजबूर हैं। इस कारण ओपीडी ड्यूटी प्रभावित हो रही है।
उल्लेखनीय है कि कुछ वर्ष पहले तक राज्य के सभी सरकारी अस्पतालों में इमरजेंसी में डाक्टर की अलग से नियुक्तियां हुआ करती थीं। उसके तहत फाजिल्का में 3 इमरजेंसी मेडिकल आफिसर के पद मंजूर थे, लेकिन वर्तमान में तीनों पदों के लिए कोई विशेष डाक्टर नियुक्त नहीं है। ऐसे में अस्पताल के ओपीडी के मेडिकल आफिसरों की ड्यूटियां ही बारी-बारी से लगाई जाती हैं। वह भी तब जब 14 में से तीन डाक्टरों की पहले से ही कमी चल रही है। इसका सारा असर ओपीडी पर पड़ता है। रात को इमरजेंसी डयूटी करने वाला डाक्टर दूसरे दिन सुबह अपनी ओपीडी की ड्यूटी के लिए कैसे उपलब्ध हो सकता है।
यह तो डाक्टरों के आपसी सहयोग के चलते जैसे तैसे काम चल रहा है। जबकि यहां ओपीडी में ही महिला रोग विशेषज्ञ, रेडियोलाजिस्ट और ब्लड ट्रांसफर आफिसर के पद रिक्त चले आ रहे हैं। नाइट ड्यूटी के बाद सुबह डाक्टर के न आने के अलावा डाक्टरों के लिए विभाग की बैठकों व कई बार कोर्ट केसों में पेशी पर जाने के चलते भी मरीजों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
इस बारे में अस्पताल के एसएमओ डा. एसपी गर्ग से बात की गई तो उन्होंने कहा कि प्रतिमाह डाक्टरों की कमी संबंधी सूचना उच्चाधिकारियों को दी जाती है। विभाग द्वारा भी डाक्टर उपलब्ध करवाने के प्रयास किए जाते हैं, लेकिन फाजिल्का जैसे सरहदी क्षेत्र में कोई डाक्टर आने को तैयार नहीं होता। इस कारण यहां पद रिक्त पड़े हैं।
206 सपूतों ने दी थी प्राणों की आहुति
Laxman Dost,14 December 2010,Dainik Bhaskar, Fazilka
रक्त से रंजित रेत, खून से भी गहरा नहर का पानी, कई किलोमीटर तक बिखरे सैनिकों के शव। भारत—पाक अंतराष्ट्रीय सीमा पर बेरीवाला से लेकर पक्का चिश्ती, नूरन, पीरबक्श, छोटा मुबेकी, बड़ा मुबेकी गांवों का यह दृश्य बता रहा था कि भारत—पाक के बीच चल रहे युद्ध में पिछले दस दिनों में कितनी तबाही हुई। भारत ने दसवें दिन एक तरह से युद्ध पर विजय प्राप्त कर ली थी। अब तक पाकिस्तानी अपनी नाक बचाने के लिए उल्टे सीधे निशाने लगा रहे थे। हालांकि गोलीबारी 16 दिसंबर तक जारी रही। अब समय था पाक रेंजरों से खाली करवाए गए क्षेत्र से भारतीय सैनिकों के शवों की तलाश करना। गांव नूरन के बगू सिंह, बेरीवाला की बागा बाई, बसावा राम और जिंदा बाई ने बताया कि जहां भारतीय सैनिक शवों को संभाल रहे वहीं वे पाक रेंजरों की फायरिंग का भी माकूल जवाब दे रहे थे। ले. कर्नल आरके सूरी के नेतृत्व में भारतीय जवानों ने जमीनी स्तर पर तो युद्ध जीत लिया था। भारतीय सैनिक अब पाक रेंजरों को गांवों से भी पीछे धकेल रहे थे। भारतीय सेना साबुना नहर को पहले ही पार कर चुकी थी और गांवों में प्रवेश कर गई थी। सबसे पहले उन्होंने बेरीवाला को आजाद करवाया। इसके बाद अन्य गांवों में भी भारतीय विजय की पताका फहरानी आरंभ कर दी।
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