Laxman Dost, 10th December, 2010, Dainik Bhaskar
14 दिन तक चले इस युद्ध में 206 जवानों ने प्राणों की आहुति दी। उनकी वीरगाथा से आज भी लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते है और गर्व से सीना चौड़ा हो जाता है। अमर शहीदों की यह गाथा आने वाली कई पीढिय़ों में देश भक्ति का जज्बा जगाती रहेगी। सैनिकों को तो सभी याद रखेंगे लेकिन बंदी बने ग्रामीणों ने भी कोई कम कुर्बानी नहीं दी थी। आज के दिन भारतीय सेना और भी उत्साह से आगे बढ़ रही थी। हार सामने देख पाकसेना ने बंदी बनाए गए लोगों को पाक जेलों मेें बंद करना शूरू कर दिया था। इस दौरान करीब 1200 से भी अधिक ग्रामीणों को पाक जेलों में बंद किया गया। रास्ते में कई किलोमीटर पैदल चलाया गया। अंतर्राष्ट्रीय कानून के चलते किसी भी युद्धबंदी को मारा नहीं जा सकता, लेकिन पाकसेना ने ग्रामीणों को इतने तसीहे दिये कि वह कभी नहीं भूल पाएंगे। भारत-पाक युद्ध में पाकसेना की यही एक ढाल थी, जो भारतीय सेना को सीधे अटैक से रोक रही थी। पाक सेना ने पूरा युद्ध ही इन्हीं युद्धबंदियों की आड़ में लड़ा। भारत पाक युद्ध अब धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहा था, क्योंकि भारतीय सेना के जमीनी व हवाई हमलों के चलते पाक सेना को भारी क्षति हो रही थी। उसके कई कमांडर व सैनिक मर चुके थे। 10 दिसंबर को पाक रेंजरों ने कब्जे में लिये बेरीवाला, सादकी, मुहम्मदपीरा, घड़ूमी, बक्खूशाह, पक्का चिस्ती, छोटा मुबेकी व बड़ा मुबेकी को खाली करवाना शुरू कर दिया था। पाक रेंजर ने इन गांवों को बुरी तरह लूटा। घरों से ग्रामीणों का सामान उठा लिया। पशुओं को भी नहीं छोड़ा। महिलाओं से गहने छीने गए। पाकिस्तानियों ने हर गांव की अलग कतार बनाई और पाक जेलों में बंद करना शुरू कर दिया। सिलसिला तीन दिन चला और गांव खंडहर बन गए। इस युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी इन्हीं लोगों ने सही।
कहां-कहां ले जाया गया: बच्चे, स्त्रियों और पुरुषों को गांव की चौपाल में एकत्रित कर लिया गया और वहां से एक कतार बना कर संगीनों के साये में भारत-पाक बार्डर से आठ किलोमीटर पर स्थित शहर हवेली में ले जाया गया। यहां पर इन्हें एक रात रखा गया और यहां से मिंटगुमरी एक जेल में बंद कर दिया गया। पाक रेंजरों ने वहां पर युद्धबंदियां का नाम, पता, उम्र, काम आदि नोट किया। यहां पर इन्हें तीन दिन बंद रखा गया। खाने के लिए प्रति व्यक्ति मात्र दो रोटियां दी गईं।
इसके बाद इन्हें साहीवाल जेल में ढूस दिया गया। यह जेल इन ग्रामीणों के लिए इतनी छोटी थी कि इसमें आधे भी ग्रामीण नहीं आ सकते थे। एक ही कमरे में कई कई लोगों को बंद किया गया। सर्द रातों में इनके पास पहनने के लिए कपड़े नाममात्र के थे। लैटरीन, बाथरूम व चिकित्सा जैसी सुविधाएं तो कौसों दूर थी। इन युद्ध बंदियों ने यहां पूरे पांच माह नर्कीय जीवन गुजारा। इसके बाद इन्हें हड़प्पा में शिफ्ट कर दिया गया। यहां पर इन लोगों से मुजरिमों की भाती काम लिया जाता था।
http://www.bhaskar.com/article/PUN-OTH-1038619-1635288.html
यहां पर इन्हें करीब छह महीने रखा गया। करीब 11 माह बाद इन लोगों को एक दिन बताया गया कि उन्हें रिहा किया जा रहा है और सभी को अमृतसर के वाघा बार्डर से भारत को सौंपा गया।
यहां पर इन्हें करीब छह महीने रखा गया। करीब 11 माह बाद इन लोगों को एक दिन बताया गया कि उन्हें रिहा किया जा रहा है और सभी को अमृतसर के वाघा बार्डर से भारत को सौंपा गया।
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